पिछले दिनों श्रम विभाग ने रोजगार की स्थिति पर अपने सालाना परिवार सर्वेक्षण की रिपोर्ट जारी की। वर्ष 2015-16 की पहली तिमाही में देश की अर्थव्यवस्था 7.1 प्रतिशत की दर से बढ़ी है जो दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। फिर भी हमारे यहां बेरोजगारी की दर 5 प्रतिशत है, जो पिछले पांच वर्षों के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई है।
जिस देश में 65 प्रतिशत से अधिक आबादी काम करने योग्य है, उसके लिए यह एक बुरी खबर है। फिर, देश का श्रम क्षेत्र अत्यधिक असंगठित भी है। कुल रोजगार का मात्र 10 प्रतिशत ही संगठित क्षेत्र में हैं। इससे रोजगार का परिदृश्य बेहद जटिल हो जाता है। लेकिन यह हमारे लिए कोई नई बात नहीं है। देश में रोजगारविहीन आर्थिक विकास का सिलसिला वर्ष 2004 से जोर पकड़ने लगा था जो अब तक जारी है। वर्ष 2004 में ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सत्ता से बाहर हुआ था, जो दस साल बाद वर्ष 2014 में ऐतिहासिक बहुमत के साथ वापस आया। इस बीच, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने दो बार पांच-पांच साल शासन किया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने हर साल एक करोड़ नौकरियों का वादा किया है। लेकिन सत्ता में दो वर्ष गुजारने के बाद उनका यह वादा पूरा होता मुश्किल नजर आ रहा है। वर्ष 2014 में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने सही कहा था कि पिछले दशक में नौकरियां घटी हैं। वर्ष 2011 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) ने रोजगार पर आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों से पता चलता है कि वर्ष 2004-05 और 2009-10 के बीच प्रतिवर्ष केवल दस लाख नई नौकरियां आईं। जबकि इस दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था ने 8.43 प्रतिशत की ऐतिहासिक उच्च वृद्धि दर हासिल की थी।
सवाल है कि अब मोदी इस समस्या को कैसे सुलझाएंगे? सीमा पार आतंकवाद के खिलाफ उनके आक्रामक तेवर खासकर नियंत्रण रेखा पर ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ की वजह से उनकी कुछ कर दिखाने वाले और अपना वादा निभाने वाले नेता की छवि मजबूती हुई है। आतंकवाद की तरह बढ़ती बेरोजगारी भी एक ऐसी समस्या है, जो सरकारें बदलने के बावजूद बनी रहती है। राजनीतिक रूप से देखा जाए तो बेरोजगारी आतंकवाद से ज्यादा घातक है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री रोजगारहीन विकास को लेकर भी उतने ही चिंतित हैं। पिछले दिनों अपने दो टीवी इंटरव्यू में उन्होंने बेरोजगारी और रोजगारहीन आर्थिक वृद्धि पर बात की है। अपनी खास आशावादी शैली में उन्होंने बताया कि सरकार के हालिया रोजगार सृजन कार्यक्रमों से नई नौकरियां आएंगी। इन कार्यक्रमों में स्टार्टअप इंडिया, डिजिटल इंडिया, मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रिफाइनेंस एजेंसी लिमिटेड) योजना, मेक इन इंडिया (निर्माण क्षेत्र के लिए) और इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी योजनाएं शामिल है, जिनसे ज्यादा नौकरियां पैदा होंगी। उन्हें उम्मीद है कि इन कार्यक्रमों का असर समाज के निचले तबके तक पहुंचेगा यानी ट्रिकल डाउन इफैक्ट होगा। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ये कार्यक्रम आर्थिक विकास के अनुपात में नई नौकरियां पैदा कर पाएंगे?
अर्थव्यवस्था के लिए आशावाद हमेशा अच्छी राह नहीं होती। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में सकल घरेलू उत्पाद की रोजगार सृजन क्षमता घट रही है। तत्कालीन योजना आयोग के सदस्य अरुण मैरा के अनुसार, भारत की आर्थिक वृद्धि में रोजगार पैदा करने की क्षमता यानी एम्प्लॉइमेंट इलैस्टिसिटी दुनिया में सबसे कम है। अपने एक ब्लॉग में वह लिखते हैं कि वर्ष 2000 से 2010 के बीच भारत में आर्थिक वृद्धि की रोजगार बढ़ाने की क्षमता विश्व के औसत से कम रही है। इस अवधि में वैश्विक अर्थव्यवस्था की औसत एम्प्लॉइमेंट इलैस्टिसिटी 0.3 थी, जबकि भारत में यह 0.2 थी। हालांकि इसके कई कारण हैं, लेकिन सबसे प्रमुख कारण है महत्वपूर्ण क्षेत्रों में गतिविधियों का ऑटोमेशन होना यानी लोगों के बजाय मशीनों या सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल। इसके अलावा सिर्फ औद्योगिक या सेवा क्षेत्रों से नई नौकरियां हासिल करने पर जोर देना और असंगठित क्षेत्र में आज भी सर्वाधिक रोजगार देने वाले कृषि जैसे पारंपरिक क्षेत्रों को नजरअंदाज करने से भी यह समस्या बढ़ी है।
इसलिए अब पीएम मोदी को वर्तमान कार्यक्रमों से ध्यान हटाकर नए रोजगार पैदा करने पर जोर देना होगा। भारत में हर साल 1.2 करोड़ लोग रोजगार पाने की कतार में जुड़ रहे हैं। समय आ गया है जब एक हमला बेरोजगारी पर भी किया जाए। कृषि क्षेत्र आज भले ही ठहरा हुआ है लेकिन इसमें रोजगार देने की क्षमता बहुत अधिक है। कृषि को बढ़ावा देने से गांव में रोजगार के कई अवसर पैदा हो सकते हैं। रोजगार की सबसे ज्यादा मांग ग्रामीण इलाकों में ही है। इसलिए समय आ गया है जब रोजगार सृजन के नए तरीके सोचने के साथ-साथ पुराने तरीकों में भी सुधार किया जाए। इसके लिए किसी को सीमा पार करने की जरूरत नहीं है, सिर्फ सही सोच ही काफी है!