श्रम अधिकारों के यथार्थ में भारत की स्थिति, विरोधाभासों से भरी है। आज से लगभग 178 बरस पहले तत्कालीन ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा 7 अप्रैल को इंडियन स्लेवरी एक्ट (1843) लागू करते हुये बंधुआ मज़दूरी के उन्मूलन हेतु वैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किये थे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बंधुआ मज़दूर मुक्ति क़ानून (1976) को परिभाषित करते हुये बंधुआ मज़दूरी के दायरे में उन सभी श्रमिकों को भी शामिल किया गया है - जिन्हें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मज़दूरी तथा मौजूदा बाज़ार (प्रचलित) दर से कम पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है।
भारत की ज़मीनी हक़ीक़त है कि - ईंट भट्ठों के मज़दूरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों के कपडा बुनकरों और शहरी क्षेत्रों मे सड़क निर्माण के श्रमिकों से लेकर असंगठित सुरक्षा गार्डों तक उनके कार्य की अवधि, कार्यदशा, औसत वेतन तथा सामाजिक सुरक्षा के सवाल लगभग अनुत्तरित हैं। इन्हें बंधुआ मज़दूर माना जाये या नहीं यह शोध का विषय हो सकता है किंतु वास्तविकता बंधुआ मज़दूरी से अलग भी नहीं है।
आज 178 बरस बाद भी समाज और सरकार, दावे के साथ नहीं कह सकती कि भारत में बंधुआ मज़दूरी अथवा वैसी परिस्थितियां समाप्त हो चुकी हैं। यही कारण है कि तमाम राजनैतिक और वैधानिक प्रतिबद्धताओं के बावज़ूद बंधुआ मज़दूरी के वैश्विक सूचकांक (ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स 2018) के अनुसार 167 देशों की सूची में भारत का स्थान 53 है। सवाल क्रम का नहीं बल्कि यथार्थ उन बहुसंख्यक असंगठित श्रमिक वर्ग के हैं जिनके समक्ष बंधुआ जैसी परिस्थितियों के अलावा कोई वैकल्पिक मार्ग है भी/ही नहीं। भारत में असंगठित क्षेत्र के दो तिहाई श्रमिक, आर्थिक-सामाजिक अथवा राजनैतिक असुरक्षा के मध्य कार्य करने के लिये बाध्य हैं। यह तय होना शेष है कि उनकी असुरक्षा, भारतीय राजतंत्र की नैतिक पराजय है अथवा आर्थिक मजबूरियाँ।
पूरी तरह से एक बरस ही हुये हैं जब महामारी की आपदा नें उस समूचे राज्य (अ)व्यवस्था को सार्वजनिक कर दिया था - जिसे श्रम अधिकारों के लिये जवाबदेह माना जाता रहा था/है। वास्तव में महामारी की आपदा कोई अवसर नहीं है - बल्कि सीख है जिसे दुहराये जाने की संभावना न होने देना राज्यतंत्र की राजनैतिक जवाबदेही है। लेकिन असंगठित क्षेत्र के दो-तिहाई से अधिक श्रमिकों के लिये आपदायें तो उनके अनिश्चित जिंदगी का निश्चित हिस्सा है, जहाँ आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा किसी महामारी से कम नहीं। उनकी लिखित-अलिखित कहानियां, सरकारी श्रम क़ानूनों के फ़लसफ़ों से जुदा हैं।
फ़िलहाल वे यहाँ हैं, श्योपुर के अपने टूटी-फूटी झोपड़ी से 500 मील दूर जैसलमेर के खेतों में जीरे की फसल काटने आये सियाराम और उनके साथ पलायन कर आये दूसरे सहरिया आदिवासी श्रमिक - जिनके लिये यह अवसर नहीं बल्कि एक ऐसी नियति है, जिसका उत्तर, श्रम अधिकारों के क़ानून अथवा सरकारी योजनाओं की लोकनीति में नहीं है। सियाराम सहरिया कहते हैं कि मेरा पूरा सहराना भूमिहीन मज़दूर है- अपनी जमीन की आस में आवेदन देते-देते मेरे बाप-दादा गुज़र गये। आवेदन देने की प्रथा का अब मैं निर्वहन कर रहा हूँ - शायद मेरे जवान बेटे की नियति भी यही होगी।
सियाराम सहरिया की कहानी मध्यप्रदेश के चंबल घाटी में भूमि सुधारों का भूला-बिसरा इतिहास है। और इसका वर्तमान है कराहल जैसे सहरिया आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र जिसे संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत संरक्षित किये जाने के बावजूद लगभग दो-तिहाई सहरिया आदिवासी ग़रीबी रेखा से नीचे हैं। सहरियाओं का संक्षिप्त इतिहास कहता है कि कराहल का यह क्षेत्र उनका मूलनिवास रहा है, लेकिन अधिकांश सहरिया अब भी भूमिहीन हैं और जीविकोपार्जन के संसाधनों के अभाव में पलायन करने के लिये पीढ़ियों से अभिशप्त हैं। एकता परिषद द्वारा महामारी के दौरान किया गया सर्वेक्षण (अप्रैल-जून 2020) बताता है कि कराहल क्षेत्र के सभी सहरानों से औसतन 60 फ़ीसदी सहरिया आदिवासी हर बरस पलायन करते हैं। राजस्थान के सीमांचलों में फ़सल कटाई से लेकर - उत्तरप्रदेश के ईंट भट्ठों और हरियाणा में भवन निर्माण से लेकर दिल्ली की सड़कों की मरम्मत तक के कामों में खप रहे हैं चंबल घाटी के सहरिया। जिन परिस्थितियों में सहरिया आदिवासी कार्य कर रहे हैं वहां बंधुआ मजदूरी के पैमाने लागू होते हैं अथवा नहीं यह उनकी निजी कहानियों और सार्वजनिक मज़बूरियों की वास्तविकताओं से देखा-समझा जा सकता है।
राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर श्रम अधिकारों को मानवाधिकारों से जोड़ने वाले आठ प्रमुख समझौते हुये हैं। अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ) से हुई सहमति पत्रों पर समझौतों के बाद भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा अब तक मुख्य रूप से 6 सहमत प्रावधानों पर संपुष्टि (रेटिफिकेशन) की जा चुकी है जिनमें - बंधुआ मज़दूरी (29) और बंधुआ मज़दूरी उन्मूलन (105), समान और सम्मानजनक पारिश्रमिक (100), भेदभाव रहित जीविकोपार्जन (111), श्रमिकों की न्यूनतम आयु (138) तथा बाल मजदूरी उन्मूलन (182) आदि शामिल हैं। लेकिन जिन दो महत्वपूर्ण प्रावधानों की संपुष्टि अब तक नहीं की गयी है उनमें - संगठित होने के अधिकार और सुरक्षा (87) तथा श्रमिकों के सामूहिक सौदेबाज़ी के अधिकार (98) शामिल हैं। ग़ौरतलब है कि संपुष्टि के बाद अधिकांश प्रावधानों को वैधानिक रूप तो दिया गया है किन्तु उनके अनुपालन और उल्लंघन को लेकर वैधानिक कार्यवाही के मक़सद से कोई ढाँचागत सुधार नहीं हुये। मसलन, समान और सम्मानजनक पारिश्रमिक सुनिश्चित करने का दायित्व उसी प्रबंधन का है जो इसके उल्लंघन के लिये अब तक और अधिकांश परिस्थितियों में जवाबदेह रहा है। जबकि जवाबदेह विभागों द्वारा इस संबंध में की गयी कार्यवाहियां अपूर्ण और संदेहास्पद रही हैं।
चम्बल से हर बरस पलायन करने वाले सहरिया खेतिहर मज़दूरों को कितना मज़दूरी मिलता है, यह न स्थानीय और न ही पलायन वाले जगह के श्रम विभाग के संज्ञान में है। वास्तव में मज़दूरी की शर्तें तो मालिक ही तय करते हैं। जहाँ मज़दूरों के अधिकारों का अर्थ, मालिकों द्वारा तयशुदा कार्य और पारिश्रमिक के आधे-अधूरे शर्तों के प्रति असहमतियां मान लिया गया है। इसलिये श्रम अधिकारों की वक़ालत न केवल अनिश्चित बल्कि समाज और सरकार के लिये एक अवांछित और असुलझा विषय बना हुआ है।
कराहल के सहरानों से निकलकर विगत 11 बरसों से पलायन के लिये बाध्य रेवती सहरिया कहती है कि विपन्नता और पलायन उन्हें और उसके परिवार को विरासत में मिली है। एक ऐसी विरासत जिसे झुठलाते- झुठलाते सरकारें बूढ़ी और हमारी पीढ़ियां जवान होती रहीं। रेवती सहरिया, श्रमिकों के अधिकार संपन्न प्रावधानों के विषय में नहीं जानती। वास्तव में पलायन करने के लिये बाध्य लाखों विपन्नों को अपने अधिकारों के बारे में जानने लायक भी, जो सरकार और समाज नहीं बना पायीं उससे न्याय की उम्मीदें करने के मुग़ालते में अब कम से कम रेवती और सियाराम जैसे मज़दूर तो नहीं ही हैं।
बरसों पूर्व भारत देश के प्रतिनिधियों नें भी अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की संधियों में हस्ताक्षर किये थे। जिसका तात्पर्य था कि श्रम क़ानूनों को प्रभावी रूप से जवाबदेह राज्यतंत्र के माध्यम से लागू किया जाये। दशकों बाद भी लगभग बंधुआ जैसी परिस्थितियों में कार्यरत असंगठित क्षेत्र के लाखों श्रमिकों को वैधानिक न्यूनतम मज़दूरी तक मयस्सर नहीं है, ऐसे में मज़दूरों के हितों के लिये खड़े किये गये पूरी (अ)व्यवस्था पर सवाल जायज़ हैं। ज़ाहिर है - रेवती और सियाराम के लिये इन सवालों के जवाब भर महत्वपूर्ण नहीं हैं बल्कि वे उस पूरे सरकारी तंत्र को जिंदा देखना चाहते हैं जिनके पास सहरियाओं पर पीढ़ी दर पीढ़ी हुये ऐतिहासिक अन्यायों को समाप्त करने का साहस और सामर्थ्य हो । आज़ाद भारत में सियाराम और रेवती की तीसरी पीढ़ी आज उम्मीदों की आस मे खड़ी है।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय महासचिव हैं)