अर्थव्यवस्था

शहर छोड़कर गांव जाने वाले कामगार लौटे, अब काम के लाले

असंगठित क्षेत्र के बहुत से कामगार लॉकडाउन के बाद अपने गांव चले थे लेकिन वहां काम न मिलने पर वापस लौटना पड़ा

Bhagirath

अप्रैल-मई में पूरे देश का ध्यान महानगरों से अपने घर गांव लौट रहे मजदूरों की ओर था। डाउन टू अर्थ ने तब इन मजदूरों के साथ पैदल सफर किया, लेकिन समय के साथ इन मजदूरों को फिर से भुला दिया गया है। अब लॉकडाउन खुल चुका है। ऐसे में जो मजदूर अपने गांव नहीं जा पाए या जो गांव में काम न मिलने पर फिर से महानगर लौट आए हैं, उनकी अब क्या हालत है और क्या उन्हें काम मिल रहा है, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने श्रमिकों से बात की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, दाने-दाने को मोहताज हुए दिल्ली के मजदूर । पढ़ें, अगली कड़ी - 

देशव्यापी लॉकडाउन की घोषणा और इसके लगातार बढ़ने के बाद दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों का धैर्य जब जवाब दे गया तो वे अपने गांव चले गए। गांव में भी फांके के दिन गुजारने के बाद बहुत से मजदूर वापस शहर लौट आए। इन मजदूरों के सामने रोजगार का भीषण संकट खड़ा हो गया है। उन्हें या तो काम नहीं मिल रहा है और अगर कुछ दिन काम मिल भी रहा है तो उससे शहर में गुजारा कर पाना बहुत मुश्किल है। दक्षिण दिल्ली के संगम विहार में किराए के घर में रह रहे 20 साल के सुभाष कुमार मूलरूप से आगरा के रहने वाले हैं। वह 1 जुलाई को गांव से लौटे हैं। तब से रोज लेबर चौक आ रहे हैं लेकिन अब एक दिन भी काम नहीं मिला है। काम न मिलने पर उन्होंने कुछ दिन सब्जी की रेहड़ी लगाई, लेकिन 1,500-1,800 रुपए के नुकसान के बाद उन्होंने यह काम बंद कर दिया। सुभाष बताते हैं, “सब्जी लेने रोज सुबह-सुबह ओखला मंडी जाना पड़ता था। मंडी में सब्जी छांटकर नहीं मिलती। अक्सर सब्जी खराब निकलने की वजह से घाटा होने लगा, इसलिए यह काम छोड़कर वापस लेबर चौक पर आ गया हूं।” सुभाष जब गांव गए थे तो उन्हें उम्मीद थी कि वहां कुछ न कुछ काम मिल जाएगा। उनकी यह उम्मीद गांव जाकर टूट गई। उन्हें मनरेगा का काम भी नहीं मिला। मजबूर होकर उन्हें वापस दिल्ली लौटना पड़ा।

फरीदाबाद के मेवला महाराजपुर गांव में किराए के एक कमरे में पत्नी और दो बच्चों के साथ रहने वाले मुकेश कुमार 10 जुलाई को उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में स्थित अपने गांव से लौटे हैं। फरीदाबाद में वह ऑटो चलाकर गुजर-बसर करते हैं। 8 जून को वह पत्नी और दोनों बच्चों को ऑटो से लेकर गांव चले गए थे। वह इन दिनों ऑटो चलाकर मुश्किल से 200 रुपए बचा रहे हैं। इतने रुपए से किराए के घर में रहकर गुजर-बसर करना मुकेश को भारी पड़ रहा है। लॉकडाउन से पहले उनकी पत्नी ऊषा एक कोठी में मेड का काम करती थीं। बदले में हर महीने 9,000 रुपए मिलते थे। वायरस के डर से मालिक उन्हें काम पर आने से मना कर दिया। तब से लेकर अब तक उन्हें काम नहीं मिला है। मालिक ने इस दौरान उन्हें एक रुपए भी नहीं दिए। मुकेश बताते हैं, “मैं बच्चों को ऑटो से स्कूल छोड़ने और वापस लेकर आने का काम करता था। बाकी समय सवारियां ठोता था। स्कूल बंद होने और लॉकडाउन के बाद सवारियां न मिलने से काम पूरी तरह से बंद हो गया है।”

हर महीने 20-25 हजार रुपए कमाने वाले मुकेश अब बमुश्किल 5,000-6,000 रुपए की कमा पा रहे हैं। इसमें से 3,000 रुपए कमरे के किराए पर खर्च हो जाएंगे। शेष पैसों से परिवार को पालने की चुनौती है। फिलहाल स्कूल खुलने के आसार नहीं हैं और न ही मुकेश की स्थिति सुधरने के। मुकेश बताते हैं कि गांव जाने से पहले मेरा पांच साल का बेटा बीमार हो गया था। उन्हें लग रहा था कि ऊपरी चक्कर (भूतप्रेत) के कारण उनके बेटे की तबीयत खराब है। इस वजह से भी वह गांव चले। गांव में उन्होंने बेटे की झाडफूंक कराई लेकिन स्थिति में सुधार नहीं हुआ। गांव में वह करीब एक महीने रहे और इस दौरान बेटे को लेकर कभी महोबा, कभी बांदा तो कभी झांसी के अस्पतालों के चक्कर लगाते रहे। इसमें करीब 70 हजार रुपए खर्च हो गए लेकिन बेटे को आराम नहीं मिला। गांव में रहकर उनकी सारी जमा पूंजी खर्च हो गई और बेटे के इलाज के कारण 50 हजार रुपए का कर्ज भी चढ़ गया। इस कारण उन्होंने ऑटो से वापस फरीदाबाद लौटने का फैसला किया। अब वह फरीदबाद में बेटे का इलाज करा रहे हैं।  

निर्माण मजदूरों की तरह फैक्ट्रियों में काम करने वाले श्रमिकों पर भी पिछले चार महीने मुसीबतों का पहाड़ बनकर टूटे हैं। दिल्ली के उत्तम नगर में स्थित विश्वास पार्क में रहने वाले भागीरथ प्रसाद करीब 20 साल से ओखला की जिस गारमेंट फैक्ट्री में चपरासी का काम करते थे, उसके मालिक ने जुलाई में घर बैठने को बोल दिया है। फैक्ट्री मालिकों ने मार्च से जुलाई के बीच बस एक बार आधे महीने की तनख्वाह दी है। भागीरथ प्रसाद को बस से करीब 30 किलोमीटर का सफर तय करके फैक्ट्री पहुंचना पड़ता था। लॉकडाउन के बाद जब फैक्ट्री खुली और मालिक आने का दबाव बनाने लगे तो वह कुछ दिन बस में सफर करके फैक्ट्री पहुंचे, लेकिन बाद में मालिकों ने कोरोनावायरस के डर से बस में आने से मना कर दिया। वह ऑटो या टैक्सी से फैक्ट्री जाने की स्थिति में नहीं हैं। फिलहाल वह बेरोजगार हैं और सब्जी का ठेला लगाने पर विचार कर रहे हैं।

डाउन टू अर्थ को मालिक के शोषण का किस्सा सुनाते हुए वह कहते हैं कि उनकी फैक्ट्री के मालिक सैलरी के रूप में उन्हें 30 हजार रुपए का चेक देते थे, लेकिन कुछ दिनों में 20 हजार रुपए वापस ले लेते थे। इस तरह उन्हें महीने में केवल 10 हजार रुपए का वेतन मिलता था। इसमें से करीब 1,500 रुपए हर महीने आने-जाने में खर्च हो जाते थे। वह बताते हैं कि फैक्ट्री मालिक केवल सरकार को दिखाने और रिकॉर्ड में चढ़ाने के लिए कामगारों को ज्यादा वेतन का चेक देते हैं और एक-दो दिन में ही पैसे निकालकर लौटाने का दबाव बनाने लगते हैं। कामगार इसका विरोध नहीं कर पाते क्योंकि विरोध का मतलब है नौकरी से हाथ धोना।

भागीरथ प्रसाद मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के रहने वाले हैं। उनके जिले के बहुत से लोग दिल्ली छोड़कर गांव जा चुके हैं। बेरोजगारी की स्थिति में अब उनके पास भी गांव लौटकर खेती करने का विकल्प बचा है। लेकिन इस वक्त गांव जाने के भी अपने खतरे हैं। पहला खतरा बीमारी व इलाज न मिलने का और दूसरा सूखे का क्योंकि बुंदेलखंड में पिछले कुछ सालों से लगातार सूखा पड़ रहा है।

लॉकडाउन और उससे उपजे हालात ने असंगठित क्षेत्र के बहुत से कामगारों को पेशा बदलने पर विवश कर दिया है। मोहम्मद गेसर लॉकडाउन से पहले गोविंदपुरी मेट्रो स्टेशन पर ई-रिक्शा चलाया करते थे, लेकिन अब उसी ई-रिक्शे गली-गली घूमकर सब्जी बेच रहे हैं। गेसर के परिवार में तीन बेटियां, एक बेटा और पत्नी हैं। उन्होंने अपनी जिंदगी में इससे बुरा वक्त नहीं देखा है। गेसर बताते हैं कि दिल्ली सरकार ने रिक्शा चालकों को 5,000 रुपए देने की घोषणा की थी लेकिन उन्हें इस घोषणा का कोई लाभ नहीं हुआ। लॉकडाउन से पहले वह ई-रिक्शा चलाकर रोजाना 800-900 रुपए काम लेते थे लेकिन अब सब्जी बेचकर मुश्किल से 300 रुपए कमा पाते हैं।

गेसर बताते हैं, “रिक्शे की बैटरी खराब हो गई है। बैटरी में इतनी जान नहीं है कि सवारी बिठाकर रिक्शा खींच सके। इसे ठीक करने में करीब 20 हजार रुपए की जरूरत है। रोज कमाने खाने वाले हम जैसे लोगों के लिए यह बहुत बड़ी रकम है। जब तक बैटरी ठीक नहीं हो जाती है, सब्जी बेचकर ही गुजर-बसर करनी होगी।” अलीगढ़ से लगभग 20 साल पहले दिल्ली आए गेसर बताते हैं कि शुरुआत में उन्होंने घड़ी मैकेनिक का काम किया। लेकिन बाद में यह काम मिलना बंद हो गया तो बेलदारी यानी दिहाड़ी मजदूरी करने लगे। तीन साल पहले पैसे जमा करके ई-रिक्शा खरीदा था। मेट्रो बंद होने और सवारियों न मिलने के कारण ई-रिक्शे का उपयोग भी बंद हो गया। वह बताते हैं, “मेरे अंदर से कोरोनावायरस का डर निकल गया है क्योंकि डर तभी तब रहता है, जब तक पेट भरा हो। भूखे आदमी पेट की आग के आगे सभी डर भूल जाता है।”