अर्थव्यवस्था

20 किलो की ईंटें महिलाएं उठा लेती हैं लेकिन ठेकेदारी जैसे कामों में पीछे छूट जाती हैं

आश्चर्य है कि दुनिया के सबसे शोषित वर्गों में से एक यानी श्रमिक वर्ग ही वह वर्ग भी है जो सबसे महत्वपूर्ण वर्ग भी है, जिसके बिना कोई काम नहीं चल सकता

Swati Shaiwal

आश्चर्य है कि दुनिया के सबसे शोषित वर्गों में से एक यानी श्रमिक वर्ग ही वह वर्ग भी है, जो सबसे महत्वपूर्ण वर्ग भी है, जिसके बिना कोई काम नहीं चल सकता। सबसे मेहनतकश, लेकिन सबसे कम संसाधनों के साथ जीने को मजबूर। उस पर अगर मजदूर महिला है तो यहां केवल मेहनताना ही नहीं,  काम के मामले में भी कई समझौते हैं।

महिलाएं मजदूरी के काम तो पाती हैं लेकिन ठेकेदारी, मिस्त्री और कारीगरी के कामों में उनकी संख्या न के बराबर ही है। जबकि इनमें से कई कामों में शारीरिक मेहनत भी कम होती है। फिर भी इन कामों में पुरुषों का ही बोलबाला है। जानिए क्या हैं कारण? क्यों महिलाएं नहीं आ पातीं, इस क्षेत्र में मुख्य भूमिकाओं में? 

मेरे सामने रखी एक मध्यम आकार की तगाड़ी (सीमेंट, ईंट, गिट्टी आदि सामान लाने-ले जाने का लोहे या प्लास्टिक का साधन) इस स्टोरी में कई बार सामने आई, जिसे महिलाएं बड़ी आसानी से तीन-चार मंजिल लेकर चढ़ रही थीं। किसी में करीब 10-12 किलो वजन की ईंटें थीं तो किसी में 15 किलो तक का बना हुआ माल (सीमेंट, गिट्टी या चूरी और रेत का मिक्सचर) या मलबा था।

मैंने इन्हें हर बार उठाया और हर बार सिर्फ एक बार ही उठा पाई वो भी कंधों से ऊपर तक बड़ी मुश्किल से। जबकि वे महिलाएं ऐसी कई तगाड़ी (जब तक दिहाड़ी का पूरा काम न हो, इसलिए इनकी कोई गिनती नहीं होती) उठाकर कई मंजिल चढ़-उतर रही थीं।

कुछ के बच्चे गांव में हैं, कुछ अपने साथ बच्चों को भी साइट पर लेकर आई हैं। हर जगह ठेकेदार पुरुष ही थे और इसी बात ने मुझे और अचरज में डाला कि जब ठेकेदारी और कारीगरी का काम मजदूरी की तुलना में कम मेहनत वाला है तो महिलाएं यहाँ क्यों नहीं? 

आज से करीब 15-16 साल पहले की बात है। जिस अखबार में मैंने काम की शुरुआत की उसके महिला परिशिष्ट में मेरी एक हार्डकोर स्टोरी छपी। यह फीचर डेस्क पर आने के बाद मेरी पहली स्टोरी थी और इसके लिए बाकायदा मेरी बॉस ने मुझे असाइनमेंट दिया था। फील्ड में जाकर स्टोरी कवर करने का अपना सुकून है।

असल जिंदगी से सामना यहीं होता है। तो, साथ में काम करने वाले कई साथियों ने बधाई दी। इसमें पुरुष भी शामिल थे। और फ्रंट पेज टीम में शामिल एक सज्जन ने कहा- अच्छी स्टोरी है। अच्छा है तुमने यह स्टोरी की वरना हमको तो लगता था महिला परिशिष्ट का काम तो केवल रेसिपीज और फैशन तक ही सीमित होता है।

ऐसा सोचने वाले वो अकेले नहीं थे। ज्यादातर लोग यही सोच रखते हैं कि महिला परिशिष्ट है तो उसमें घरेलू नुस्खों, फैशन, मेकअप, आदि से ही काम चल जाता है। सोच आज भी नहीं बदली है। अब भी मुझे कई बार इस तरह की समझाइश दी जाती है कि आप तो रेसिपीज लिखिए, मेकअप टिप्स दीजिये। खैर... 

पितृसत्तात्मक समाज में महिला और पुरुषों के बीच काम को बांटने की यह रीत बरसों से चली आ रही है और अब भी यह अस्तित्व में है। चाहे कॉरपोरेट दफ्तर हों या फिर मजदूर वर्ग हर जगह यह खाई मौजूद है। केवल इतना ही नहीं, मजदूर वर्ग में इससे इतर इस भेदभाव का जुड़ाव और भी कई चीजों से है।

उदाहरण के लिए अधिकांश मजदूर और कामगार महिलाओं का मानना है कि चूंकि वे ज्यादा मेहनत के काम नहीं कर सकतीं इसलिए परिवार नियोजन के ऑपरेशन उन्हें ही करवाने चाहिए। अगर पुरुष नसबंदी करवाएंगे तो उनमें कमजोरी आ जायेगी और फिर वो मेहनत के काम नहीं कर पाएंगे। अगर ऐसा हो गया तो घर कैसे चलेगा? 

जितने भी निर्माण कार्यों को मैंने जाकर जाना समझा, वहां मैंने यह बात नोटिस की कि दीवारें उठाने से लेकर प्लास्टर करने तक जैसे कामों के लिए अधिकांश पुरुष ही आते हैं। जबकि रेत, गिट्टी, सीमेंट और मलबा भर कर सिर पर ढोने जैसे काम महिला कामगारों के हिस्से हैं।

ये मेरे लिए आश्चर्य की बात थी क्योंकि कम से कम 15-20 किलो की तगारी सिर पर ढोने की तुलना में प्लास्टर और दीवार उठाने का काम कम मेहनत वाला है। यहां पुरुषों का ही वर्चस्व है। महिलाएं इस काम मे हाथ ही नहीं आजमातीं। और अपनी इस उत्सुकता को शांत करने के लिए मैंने इस बात की तह तक जाने का सोचा। 

अब भी चयन की आजादी नहीं

दो दशकों से इस क्षेत्र में काम कर रहे ठेकेदार कपिल वर्मा कहते हैं- ऐसा नहीं है कि औरतें ठेकेदारी या कारीगरी का काम नहीं कर सकतीं लेकिन उनके साथ पहली दिक्कत होती है जानकारी के अभाव की। पुरुषों को भी इन कामों के लिए कोई प्रशिक्षण नहीं मिलता लेकिन उन्हें समाज एक्सप्लोर करने की छूट देता है। इसलिए वे खुद ही करते करते यह काम सीख जाते हैं। जबकि औरतें एक दायरे में बंधी रहती हैं तो मजदूरी तक ही सीमित रह जाती हैं।

मजदूरी करने वाली महिलाएं अक्सर परिवार के साथ एक जगह से दूसरी जगह जाती हैं और जहाँ उनके घर के पुरुष काम करते हैं वहीं उन्हें भी दिहाड़ी मिल जाती है। इसलिए वे अपने परिवार के साथ ही ज्यादातर काम लेती हैं और मजदूरी तक सीमित रह जाती हैं। 

सुरक्षा और निडरता का भी मामला है

पिछले 35 वर्षों से भी अधिक वर्षों से कंस्ट्रक्शन का काम कर रहे रमेश केवट ने 13 साल की उम्र में मजदूरी करने से इस क्षेत्र में कदम रखा था। काम सीखते सीखते वे जल्द ही ठेकेदार बन गए। वह कहते हैं- आज से करीब 10-15 साल पहले ही हमारे एक साथी की घरवाली ने ठेकेदारी का काम शुरू किया था लेकिन उसमें पूरी तरह उसके पति का साथ रहता था।

इससे उसका हौसला बढ़ा और उसने कई मकान बनवाये लेकिन हर बाई (औरत) के साथ ऐसा नहीं हो सकता। ठेकेदारी के काम में रात-बिरात साइट पर जाना पड़ता है, कई तरह के लोगों से पाला पड़ता है तो कई बार झगड़े और लड़ाई की नौबत भी आ जाती है। बाईयों (औरतों) के लिए सुरक्षा भी एक बड़ा मुद्दा होता है क्योंकि लोग अक्सर उनका फायदा उठाने के बारे में सोचते हैं- मेरा मतलब समझ रहे हो न आप?' 

घर, परिवार और बच्चे भी औरतें ही देखती हैं

'आप मेरे को एक बात बताओ मैडम, आदमी तो सुबह से रोटी खाके काम पे आ जाता है लेकिन औरत को सुबह घर की सफाई, सबका खाना, बच्चों को निलहाना (नहलाना), कपड़े फटकना, ये सारे काम होते हैं। फिर शाम को आदमी दारू पीके घर पहुंचता है और जो खाना टेम पे नी मिले तो जोरू पे हाथ हल्का कर लेता है। है कि नी? तो औरत बिचारी इस सबके साथ जित्ता हो सकता है उत्ता काम करती है बेलदारी (मजदूरी) का। ऐसा नी है कि ठेकेदारी नी कर सकती पन (पर) कैसे करे, आप बताओ?' ये कहना था पिछले दो दशकों से ठेकेदारी का काम कर रहे शांतिलाल सोलंकी का। 

दिहाड़ी में तो फर्क है ही

जाहिर है कि हर अन्य क्षेत्र की तरह यहाँ भी हायरार्की तो है ही। उस हिसाब से मेहनताना भी है। कारीगर, मिस्त्री, फ्लोरिंग, खिड़की- दरवाजों और ग्रिल्स फिटिंग आदि जैसे कामों में 90 प्रतिशत से अधिक पुरुष ही काम करते हैं और इनका मेहनताना 500 रूपये से लेकर 800-1000 रूपये प्रतिदिन तक हो सकता है। जबकि मजदूरी करने वाली महिलाओं को 300-400 रूपये प्रतिदिन और खेतों में मदद करने वाली महिलाओं को 150-200 रूपये प्रतिदिन तक मिलता है। यहां एक और आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि मजदूरी के इस का के साथ ही महिलाएं लंच के समय में या बीच बीच में गोद के बच्चे को दूध भी पिला लेती हैं, छोटे बच्चों को संभाल भी लेती हैं और कई मामलों में तो साइट पर ही डिलीवरी के 1-2 घंटे बाद फिर से काम पर आ जाती हैं। जबकि आदमी सिर्फ 'काम' करते हैं। इसके बावजूद औरतों का मेहनताना भी कम है और वैल्यू भी। 

मनावर के पास से काम करने आईं 27-28 साल की गेंदा बाई पिछले 5-6 साल से मजदूरी का काम कर रही हैं। मुंह में उन्होंने भी गुटखा दबा रखा है। यह गुटखा जेंडर बायस नहीं है। इसका उपयोग आदमी-औरतें दोनों ही भूख को भुलाने और दबाने के लिए करते हैं। सीमेंट के माल की तगाड़ी को उठाते हुए उन्होंने मेरे प्रश्न को तीन बार समझने की कोशिश की लेकिन असमर्थ रहीं। जब समझीं तो बड़ी मासूमियत से उलटा मुझसे ही प्रश्न कर बैठीं-हम ठेकेदार कसां बन सकां? (हम मतलब महिलाएं ठेकदार कैसे बन सकती हैं)? और इतना कहकर वे फिर माल ढोने में लग गईं। कुछ ही दूरी पर एक बार में करीब 10 ईंटें सिर पर लादकर दूसरी मंजिल तक ले जाती मंगू बाई भी मेरे इस प्रश्न पर मुंह छुपाते हुए हंस दीं, कि ये भी कोई प्रश्न हुआ भला! 

करीब 10 साल से मजदूरी, खेती की बुआई और मलबा उठाने का काम कर रहीं धार जिले के जीराबाद की केलबाई मेरे सवाल का जवाब देने के लिए जैसे ही कुछ सेकंड्स के लिए रूकती हैं, उनके ठेकेदार पीछे से चिल्लाते हुए कहते हैं-'चलो भरो-भरो, हाथ मत रोको।' केलबाई को एक दिन का करीब 200-300 रूपये मेहनताना मिलता है। उनके दोनों बच्चे भरी दुपहरी में आस-पास ही खेल रहे हैं। केलबाई का मानना है कि ठेकेदारी जैसे काम उनके लिए (महिलाओं के लिए) नहीं हैं। उसमें मेहनत ज्यादा लगती है। जब मैं उनको पीछे खड़े होकर सिर्फ काम करने के लिए चिल्ला रहे ठेकेदार की ओर इशारा करके पूछती हूँ- लेकिन उनसे ज्यादा मेहनत तो आप कर ही रही हो! तो उनका जवाब होता है, नी बई, हम यो थोड़ी कारण सकां! (नहीं, हम यह थोड़े ही कर सकते हैं)। 

महिला ठेकेदार छोड़िये, महिला सिविल इंजीनियर ही कहाँ हैं?

इंदौर शहर में कई बड़े कंस्ट्रक्शन प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे, निकेत मंगल (मैनेजिंग डायरेक्टर, द एन एम ग्रुप) कहते हैं- केवल ठेकेदारी के क्षेत्र में ही क्यों आप सिविल इंजीनियरिंग के क्षेत्र में भी देखें तो महिलाएं कम हैं। ऐसा नहीं है कि महिलाएं नहीं कर सकतीं लेकिन वे खुद ही इस क्षेत्र से दूर रहना पसंद करती हैं। मैं पिछले डेढ़ दशक से इस फील्ड में हूँ, मैंने तो अब तक एक भी महिला ठेकेदार नहीं देखी। अगर सिविल इंजीनियर्स की बात करें तो मुझे लगता है फील्ड वर्क व पुरुष लेबर्स से डील करने का प्रेशर और सैलेरी पैकेज में कमी होने जैसी स्थितियों की वजह से भी महिलाएं इस क्षेत्र में नहीं आतीं। हमारे यहाँ ज्यादातर मजदूर धार, झाबुआ आदि जगहों से आते हैं। ये साल में कुछ महीने काम करने के बाद बारिश के समय वापस अपने गावों को लौट जाते हैं क्योंकि बारिश में कंस्ट्रक्शन का काम कम मिलता है। इनमें ज्यादातर महिलाएं अपने परिवारों के साथ ही मजदूरी करने के लिए आती हैं।  

रजिस्टर्ड नहीं हैं अब भी सारे मजदूर

कुछ साल पहले देशभर में मजदूरों के लिए मनरेगा के अंतर्गत रजिस्ट्रेशन करवाना आवश्यक कर दिया गया। कोरोना काल की शुरुआत में मध्यप्रदेश में भी यह नियम लागू किया गया। लेकिन अब भी सभी मजदूर रजिस्टर्ड नहीं हैं। जबकि बकायदा सरकार द्वारा इसके लिए गांव गांव में शिविर लगाकर रजिस्ट्रेशन करवाने की सुविधा दी गई है। इसके बावजूद मजदूरों की पहली समस्या है रजिस्ट्रेशन के लिए दिहाड़ी न छोड़ने का मोह। न ही इन्हें इसके अंतर्गत मिलने वाली सुविधाओं की पूरी जानकारी होती है। इसलिए जैसे फैक्ट्री या अन्य कई जगहों पर मजदूर यूनियन के तहत एक संगठन और प्रक्रिया होती है, ऐसा कुछ भी इन मजदूरों को नहीं मिल पाता। यही कारण है कि रोज मजदूर चौक पर खड़े होकर ये दिनभर काम मिलने का इन्तजार करते हैं। जिस दिन काम मिला उस दिन ठीक, वरना उस दिन पेट भरने को भी कुछ नहीं मिलता। 

ज्यादातर मजदूर महिलाएं मानतीं हैं कि ठेकेदारी या मिस्त्री आदि के काम में मेहनत ज्यादा है और यह आदमियों के लिए ही बने हैं। लिहाजा वे मशीन की तरह बोझा ढोने का काम करती जाती हैं लेकिन ये समझने को तैयार नहीं कि ठेकेदारी का काम उनके लिए अधिक मेहनताने और कम मेहनत का विकल्प हो सकता है। चूंकि मन में यह धारणा है कि आदमी अधिक मेहनत का काम करते हैं, इसलिए अधिकांशतः परिवार नियोजन के ऑपरेशन भी महिलाएं ही करवाती हैं क्योंकि पुरुष करवाएंगे तो उनको कमजोरी आ जाएगी और फिर वे काम कैसे कर पाएंगे? कड़ी धूप में जितनी भी जगह मैं काम कर रही, पसीना पसीना होती महिलाओं से मिली सबने मेरे प्रश्न को पहले तो अजीब समझकर नजरअंदाज कर दिया। फिर 90 प्रतिशत महिलाओं का जवाब यही मिला कि जो काम वह कर रही हैं, वही उनके लिए सही है। 10 प्रतिशत महिलाएं कुछ सेकेंड्स के लिए विचारों में खो गईं लेकिन फिर उन विचारों को फिजूल मान, झटकते हुए बोझा उठाने चल दीं। मन में एक ख्याल यह भी आया कि यदि एमएसएमई के लिए तरह महिलाओं को मिस्त्री, कारीगर और ठेकेदारी जैसे कामों के लिए भी थोड़ी सुविधा और उत्साहवर्धन मिल जाए तो शायद यह तस्वीर भी बदली सी दिखे। 

धूप में तपते, स्याह होते उनके चेहरे से ज़मीन पर टपकती पसीने की बूँदें को स्नेह और सांत्वना भरे आलिंगन में सहेज लेने को धरती आतुर थी क्योंकि उन स्वेद कणों का मोल आखिर धरती से ज्यादा कौन जान सकता है। वह भी तो एक औरत ही है न?

(यह रिपोर्ट लाडली मीडिया फैलोशिप 2023 के तहत प्रकाशित की जा रही है)