‘आपका’ यह मान लेना कि पैदल सैकड़ों किलोमीटर अपने गांवों के लिए निकल पड़ना उन लाखों श्रमिकों के संयम टूटने का परिणाम था, एक अधूरा अर्धसत्य है। अधूरा इसलिए कि महामारी की आशंका और आर्थिक अनिश्चितताओं के बीच संयम रखने लायक परिस्थितियां धीरे-धीरे चुक रही थीं और अर्धसत्य इसलिए कि अपने गांवो के लिये निहत्थे निकल पड़ना उनका मनमाफिक चुनाव नहीं बल्कि, एक लगभग अक्षम व्यवस्था के मद्देनजर लिया गया स्वाभाविक निर्णय था। यह जानते हुए उन्होंने यह वांछित-अवांछित निर्णय लिया कि राह में कोई तो भोजन-पानी देगा ही- और यदि ये नसीब नहीं हुआ तो भी कोई बात नहीं, क्योंकि वैसे भी लगभग यही स्थिति तो तालाबंदी (लॉकडाउन) में भी रही।
तालाबंदी के दौरान एकता परिषद द्वारा लगभग 20 राज्यों में फैले प्रवासी मजदूरों के मध्य किया गया सर्वेक्षण स्पष्ट करता है कि-श्रमिकों के पास औसतन केवल 4 से 5 दिन की भोजन सामग्री थी। वास्तव में तालाबंदी के प्रथम चरण में मजदूरों का यह संयम सर्वोच्च स्तर पर था। या, यह कहना ज्यादा उचित होगा कि अमूमन सभी लोग व्यवस्था के साथ खड़े रहे। खाद्य सामग्री के वितरण और परिवहन के संबंध में उपलब्ध सरकारी व्यवस्था को लेकर थोड़ी सूचनागत चूक भी हुई। हालांकि कुछ जगहों पर स्थानीय प्रशासन ने सफलतापूर्वक सहायता की पहल अवश्य की, लेकिन राज्य स्तर पर इसमें नीतिगत समग्रता और समन्वयन का अभाव रहा। अच्छा होता, यदि तालाबंदी के प्रथम चरण में ही श्रमिकों और उनके गृह राज्यों तथा जिलों से संबंधित अधिकारियों के मध्य संवाद होता और उन्हें तमाम व्यवस्थाओं के बारे में समग्र जानकारी दी जाती। बहरहाल अब वो इतिहास है।
ओडिशा के सुरेश नायक का वर्तमान यह है कि घर वापस आने के एक हफ्ते बाद भी पेट भरने लायक भोजन जुटा पाने में वह असमर्थ है। बिहार के वीरेश्वर मांझी घर के दहलीज पर पहुंचकर भी, अस्थायी आइसोलेशन सेंटर में अपने स्वास्थ्य की परीक्षाएं दे रहा है। झारखंड की सविता देवी अपने पूरे परिवार के साथ सरकार से मिलने वाले चावल-दाल की प्रतीक्षा कर रही है। और मध्यप्रदेश की कांति बाई अपना जॉब कार्ड लिए मजदूरी मिलने के इंतजार में एक हफ्ते से बैठी है।
इन सबमें एक महत्वपूर्ण समानता है कि हर कोई गहरे संयम के साथ अपने गुरबत का इम्तेहां दे रहे हैं, लेकिन एक और कड़वी समानता भी है कि अब इनमें से कोई भी उन जगहों मे कतई लौटना नहीं चाहते जहां से धक्के खाते हुए अपने गांवों की ओर लौटे थे। आप इसे असंयम भी कह सकते हैं, लेकिन मनोवैज्ञानिक इसे मोहभंग कहना पसंद करेंगे।
व्यवस्था के प्रति मोहभंग के कारण जानने की यदि इच्छा हो तो आपको उन लोगों के परिवारों से बात करने का साहस जुटाना होगा जिन्होंने अपना बेटा, बेटी, पति, भाई या पत्नी अथवा सगे संबंधियों को रेल पटरियों और सड़कों पर बेमौत गवां दिया और उनके भी संयम की थाह, समाज और सरकार को लेनी चाहिए।
दुर्भाग्य से यह ऐसा विषय है, जहां मनमाफिक निष्कर्ष निकालने और उसकी व्यक्तिगत व्याख्या के लिए आप भी स्वघोषित अधिकार संपन्न हो सकते हैं। आप उनके आकस्मिक मौतों को 'संयम अथवा असंयम' के वर्गीकरणों और विश्लेषणों में डालने के लिए स्वतंत्र हैं। लेकिन समाधान तो उस पूरे श्रमिक समाज को चाहिए कि आखिर दशकों पहले उनके हिस्से के कहे और लिखे हुये संवैधानिक हक उसे कब मिलेंगे।
सरकार और समाज को यह स्वीकारना ही होगा कि 'संयम' वास्तव में जवाबदेही के बाद का विषय है। एक ऐसा तंत्र जो श्रमिकों के अधिकारों और सुरक्षा के लिए लगभग नाकाम हो चुका हो, के प्रति संयम का आचरण आदर्श स्थिति में ही संभव है। दुर्भाग्य से महामारी और उससे उपजी अनिश्चितता ने इस आदर्श स्थिति की संभावना को ही लगभग समाप्त कर दिया।
बहरहाल एकता परिषद द्वारा किया गया सर्वेक्षण यह भी बताता है कि ज्यादातर सहयोगी एजेंसियां तालाबंदी के दूसरे चरण में ही सक्रिय हुईं। लगभग 28 फीसदी लोगों तक राहत सामग्री तो पहुंचाई गई, लेकिन सरकारी सहयोग केवल 12 फीसदी लोगों को ही मयस्सर हुआ।
श्रमिकों की वास्तविक संख्या और स्थिति तब तक, सरकारी शोध का विषय नहीं हुआ था। रवि कुमार जो दिल्ली की गुमनाम झुग्गी बस्ती में अपना संयम चुकने तक की जो कहानी बताते हैं, वो हैदराबाद में तालाबंद किशन से कोई खास अलग नहीं। फर्क केवल इतना ही है कि रवि में संयम कम था, इसलिए वो तालाबंदी के 17 वें दिन निकल गया और किशन तालाबंदी के 20वें दिन अपना धैर्य तोड़ते हुए पैदल गांवों के लिये चल पड़ा।
भारत जैसे करोड़ों श्रमिकों के देश में उनकी मुट्ठीभर कमाई ही उनके संयम और सम्मान का छोटा-बड़ा सूचक है। बावजूद इसके अपनी मिट्टी और अपने गांव के लिये उसका सांस्कृतिक संबंध अब तक तो अटूट ही रहा है। मजदूरी के लिए दर-दर भटकना उनकी नियति नहीं, बल्कि एक ऐसी मजबूरी है, जिसकी बदौलत, समाज और सरकार ने अब तक केवल अपने विकास के सपने को साकार किया है।
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महामारी के संक्रमण ने जाने-अनजाने उन निर्दोष श्रमिकों की मज़बूरी और तथाकथित सभ्य समाज और जवाबदेह सरकार के आचरण के बीच एक ऐसी रेखा खींच दी, जिसे कम से कम इस वक्त तो संयम की कसौटी पर नहीं परखा जाना चाहिए।
वैसे संयम चूकने के कुछ वास्तविक कारण भी हैं। तालाबंदी के प्रथम चरण में भारत सरकार की ओर से जारी आदेश में पूरी तरह स्पष्टता के साथ कहा गया कि तालाबंदी के दौरान श्रमिकों के मजदूरी भुगतान करने की जवाबदेही संबंधित उद्यम की है, जिसका पालन किया जाना आवश्यक है। लेकिन उद्यमों के आचरण की निगरानी करने वाला पूरा तंत्र तालाबंदी का शिकार बना रहा, इसलिए अधिकांश श्रमिकों के समक्ष संकट यह भी था कि न्याय के लिये किसका दरवाजा खटखटाना चाहिए।
दुर्भाग्य से न्याय की खातिर अदालतों के द्वार पर श्रमिकों से पहले ही और कोई खड़े हो गए। यह अप्रत्याशित कतई नहीं था, लेकिन श्रमिकों के अदालतों की चौखट पर पहुंचने से पहले ही तय कर दिया गया कि, कोई भी कंपनी अथवा उद्यम तालाबंदी के दौरान श्रमिकों को मजदूरी देने के लिये बाध्य नहीं है। यह उम्मीदों के समाप्त होने का संकेत भर नहीं, बल्कि बचे-खुचे संयम के पूरी तरह चुकने का अंतिम अध्याय था।
संभव है कि तालाबंदी की अनिश्चितता में अधिकांश श्रमिकों को सरकार के इस निर्णय का कोई ज्ञान न रहा हो- लेकिन उनके मालिकों का उपेक्षापूर्ण व्यवहार उनके संयम चुक जाने का पूर्ण परिणाम था। अच्छा होता इसके लिए हम किसी को भी दोषी न ठहरा पाते। लाखों श्रमिकों ने देश के एक जवाबदेह जनता के रूप में किया भी ठीक यही। बिना किसी असामाजिक प्रतिक्रिया के, अपने गावों की ओर आत्मनिर्वासन में निकल पड़े। और अपने प्रस्थान के पीछे कई अनुत्तरित सवाल भी छोड़ गए। आप अपने संक्षिप्त उत्तर में इसे अधीरता या असंयम जो भी कहना चाहें कह सकते हैं - लेकिन उन तक शायद अब आपकी आवाज पहुंचेगी नहीं।
सत्य यह है कि अधिकांश वंचित श्रमिकों ने, सरकार के कारण नहीं, बल्कि सरकार के बिना अपने जिंदा रहने का साधन जुटाया। आप चाहें तो इसे भी संयम के समीकरण से जोड़ अथवा तोड़ सकते हैं। सत्य यह भी है कि एक जवाबदेह जनतंत्र में संयम, परीक्षा नहीं, बल्कि परिणाम का विषय होना चाहिए। उसी ‘न्याय, अधिकार और सम्मान’ के दशकों पुराने सवालों के परिणामों के लिए, संयम के साथ लाखों-करोड़ों वंचित आज भी प्रतीक्षारत हैं।
(लेखक रमेश शर्मा - एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)