कलीम सिद्दिकी
गुजरात के बारे में कहा जाता है कि इस राज्य के मॉडल को देश के हर राज्य को अपनाना चाहिए। लेकिन इस मॉडल की असलियत तब सामने आती है जब मॉडल के अंदर काम करने वाले अमीर किसान हों या गरीब आदिवासी। हर कोई अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं कर पा रहा है। ऐसे में कोरोनावायरस का कहर ने इस माॅडल की असलियत बाहर ला खड़ी की है। डाउन टू अर्थ ने उत्तर और दक्षिण गुजरात के कुछ गांवों के अमीर कहे जाने वाले किसानों और आदिवासियों की वर्तमान स्थिति का जायजा लिया।
उत्तर गुजरात स्थित उंझा जीरे का बड़ा बाज़ार है। जीरे का 70 प्रतिशत उत्पादन भारत में होता है। जीरे की खेती गुजरात और राजस्थान में होती है। 99 प्रतिशत जीरे की खेती इन्हीं दो राज्यों में होती है। वर्ष 2019 में गुजरात में जीरे की खेती 2 लाख 16 हजार हेक्टेयर में की गई। ज़ीरे की खेती अकेले बनासकांठा जिले में 39,897 हेक्टेयर में हुई है। भारत में 2019 में जीरे का कुल उत्पादन 6 लाख मैट्रिक टन हुआ था, जिसमें गुजरात से 3,20,000 और 2,86,000 मैट्रिक टन राजस्थान से हुआ। उत्तर गुजरात के राधनपुर तहसील के अर्जणसर गाव के किसान महेश भाई चौधरी के पास लगभग 50 बीघा खेत है।
महेश भाई कपास, रेड़ी, तंबाकू के अलावा जीरे की खेती करते हैं। महेश भाई ने डाउन टू अर्थ को बताया कि नवंबर, 2019 में 8 बीघा खेत में ज़ीरे की बोआई की थी। 3-4 महीने बाद फसल तैयार हो गई, जिसकी कटाई भी हो गई। लगभग 90-95 मन ज़ीरे की पैदावार हुई। लॉकडाउन से पहले 3200 का भाव चल रहा था। अब भाव गिरकर 2200 पर आ गया है। मेरी तरह अधिकतर किसानों का ज़ीरा किसानों के घर पर ही पड़ा है। लॉकडाउन के कारण लोकल व्यापारियों के धंधे की चैन टूट गई है। वे कहते हैं कि देश-विदेश का मार्केट बंद है। किसी को पता नहीं व्यापार का संतुलन कब बनेगा।
किसानों के पास अपनी फसल औनेपौने भाव में बेचने के अलावा कोई रास्ता नहीं है। क्योंकि उसे अगली फसल भी लगानी है। महेश भाई आगे बताते हैं कि अगले तीन महीने में हरी मिर्च, सब्जियों के अलावा गाय-भैंस के हरे चारे भी तैयार करना है। वह बताते हैं कि बाजरा और ज्वार की बोआई के लिए नमर्दा का पानी तो उपलब्ध है परंतु लॉकडाउन के चलते नर्सर्री तक बीज लेने नहीं जा सकते। हमें सबसे अधिक अपने पशुओं की चिंता है। जिनसे हमें अच्छी आवक होती है। इस गांव के अधिकतर किसान खेती के अलावा पशुपालन भी करते हैं। उनकी वार्षिक आवक खेती से ढाई से तीन लाख रुपए है। लगभग इतनी ही या इससे थोड़ी कम आवक पशु पालन हो जाती है।
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गुजरात राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समझने के लिए राज्य की 15 प्रतिशत आदिवासी जनसंख्या पर भी ध्यान देना होगा। यह जनसंख्या राजय के अधिकांशत: दक्षिण और मध्य गुजरात में बसते हैं। इनकी अर्थव्यवस्था खेती, पशु पालन और मजदूरी पर निर्भर है। आदिवासियों के गांव मुख्य धारा की सड़कों से आज भी कटे हुए हैं। नमर्दा कैनाल पूरे राज्य में फैली हुई है। यह सिंचाइ का मुख्य स्रोत है परंतु नमर्दा कैनाल नेटवर्क का फायदा आदिवासी गावों को नहीं मिलता।
ऐसे ही राज्य के आदिवासी बाहुल तापी जिले के सोनगढ़ ब्लॉक से 29 किलो मीटर दूरी पर कांटी गांव है। 2011 की जनगणना के अनुसार गांव की जनसंख्या 394 है और लगभग 100 घर हैं। गांव से 29 किलोमीटर दूर सोनगढ़ में बैंक और अस्पताल है। इस तहसील के बहुत से गांव में सड़कें भी नहीं हैं। रोजाना एक जीप जो सुबह कांटी से निकलती है शाम को सोनगढ़ से वापस आती है। यही जीप गांव को शहर से जोड़ती है। और अब लाकडाउन ने गांव की इस जीवन रेखा पर ग्रहण लगा दिया है। गांव के डैनियल गामित पढ़ेलिखे युवा हैं जिन्होंने अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ से पढ़ाई की है। गामित बताते हैं कि कांटी गांव में किसी आदिवासी किसान के पास चार एकड़ से अधिक खेती नहीं है।
यहां के किसान मुख्यत: गन्ना, मकाई, भिंडी की खेती करते हैं। नमर्दा के पानी को सूरत और सूरत से सौराष्टÑ मोड़ दिया गया है, जिसके कारण सोनगढ़ के गांवों के किसान बरसात पर निर्भर रहने पर मजबूर हैं। अपे्रल-मई में सभी लोग दिहाड़ी मजूरी करते हैं। पशुपालन करने वाले आदिवासी मुख्यत: बकरे का पालन करने के अलावा गाय और भैंस भी रखते हैं। हालांकि सुमुल डेरी द्वारा मंडली बनी हुई है। इस गांव से भी दूध मंडली के माध्यम से डेरी तक पहुंचता है। लेकिन आय का यह साधन भी अब बंद है। कांटी का कोई भी किसान इतना नहीं कमा पाता है कि वह बचत कर सके और इस विपत्ति में अपना धर चला सके।
इस तहसील में कांटी के अलावा ओटा, रास मोती, सिनोद, बोरसोवा, मलंगदेव आदि ऐसे ही गांव हैं, जिनकी हालत भी कांटी जैसी ही है। उज्जवला या अन्य आदिवासी के कल्याण के लिए चलाई जा रही किसी योजना के बारे में अधिकतर आदिवासी नहीं जानते हैं। इन गावों में मोबाइल नेटवर्क तक की दिक्कत है। लॉकडाउन के कारण मज़दूरी करने वाले आदिवासियों के पास पिछल्ले एक माह से काम नहीं है और अब तक इन गांवों की सुध जिला प्रशासन ने नहीं ली है, दिनबदिन इन गावों की आर्थिक हालत बिगड़ते जा रही है।
दक्षिण गुजरात की मुख्य खेती चीकू है। कर्नाटक के बाद गुजरात चीकू की पैदावार में दूसरे नंबर पर है। दक्षिण गुजरात का नवसारी मात्र ऐसा जिला है जहां पूरे साल चीकू की खेती होती है। गुजरात के डायरेक्टरेट जनरल आॅफ कामर्स इंटेलिजेंस एंड स्टेटिक्स के अनुसार वर्ष 2018-19 में 854.77 लाख रुपए का भारत से चीकू निर्यात हुआ था। खाड़ी के देशों और यूरोप के देशों में भारत चीकू और चीकू से बने चिप्स का निर्यात करता है। परंतु लॉकडाउन के कारण चीकू पेड़ पर ही खराब हो रहा है। खेडूत समाज संगठन के सक्रीय सदस्य जयेश पटेल कहते हैं कि लॉकडाउन के चलते आयात निर्यात बंद है। किसानों की पैदावार को मंडी नहीं मिल रही है। फसलें अभी हार्वेस्टिंग स्टेज पर हंै। सरकार को चाहिए छोटे किसानों की फसल खरीद कर स्टोर कर ले क्योंकि लॉकडाउन के बाद भी तीन चार महीने तक अर्थ व्यवस्था पटरी पर नहीं आएगी। किसानों को आगे भी फसल बोना है।
इसके अलावा इस इलाके में सागसब्जी और फल को परिवहन न मिलने के कारण बिक्री नहीं हो पा रही है। इसके कारण किसानों को भारी आर्थिक नुक्सान उठाना पड़ हो रहा है। स्थानीय किसानों की मांग की है कि सरकार संबंधित विभाग से सर्वे कारए और नुक्सान की भरपाई करे। ध्यान रहे कि देश की अर्थव्यवस्था में निर्यात का बड़ा योगदान होता है। कैस्टर आॅयल, कपास, जीरा के निर्यात में भारत शीर्ष पर है। गुजरात के किसान खेती से गुजरात और देश के अथर्तंत्र में बड़ा योगदान है। लॉकडाउन के कारण देश की बिगड़ी अर्थ व्यवस्था तभी बनी रहेगी जब किसान की अर्थ व्यवस्था ठीक होगी। गुजरात खड़ूत समाज संगठन ने राज्य के मुख्यमंत्री ओर प्रघानमंत्री को पत्र लिख यहां की अपने इलाकों की हालत से अवगत कराया है और मांग की है कि हर हाल में इस इलाकों को सुधारें अन्यथा हालात ओर बदतर हो जाएगी।