कोरोनावायरस संकट के मद्देनजर केंद्र सरकार ने अंतरिम उपायों के अंतर्गत 21 दिन के राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और इसके साथ कुछ अन्य उपायों की घोषणा की है। इन उपायों का मकसद है कोरोनावायरस से लड़ना और बेरोजगार हो चुके लाखों लोगों को आर्थिक मदद, भोजन और रहने की व्यवस्था करना। क्या सरकार के इन उपायों को पर्याप्त माना जा सकता है? समाज के सबसे निचले तबके को किसकी दरकार है? डाउन टू अर्थ ने इन मुद्दों पर जाने-माने अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज से बात की। पेश के बातचीत के संपादित अंश:
लॉकडाउन की घोषणा के बाद लाखों प्रवासी श्रमिक शहरों से भाग गए। उनके सामने क्या स्थिति है?
इनमें से बहुत से परिवार सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस), सामाजिक सुरक्षा पेंशन और संबंधित योजनाओं के अंतर्गत आते हैं। कल्याणकारी योजनाओं द्वारा दिए जाने वाले अल्प लाभों पर जीवित रहना इनके लिए मुश्किल होगा। इसलिए लाभ का दायरा बढ़ाया जाना चाहिए और आपातकालीन कैश ट्रांसफर और सामुदायिक रसोई जैसे उपायों पर जोर देना चाहिए। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रवासी श्रमिक कुछ समय के लिए दोबारा अपने घरों को छोड़ने में संकोच करेंगे। इसके अलावा, घर पर उनके लिए काम के सीमित अवसर होंगे। खासकर तब जब उनके पास जमीन नहीं होगी। यदि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत अधिक मजदूरी प्रदान करने के लिए विश्वसनीय भुगतान प्रणाली को दोबारा अपनाया जाता है तो उन्हें पुन: सक्रिय किया जा सकता है।
केंद्र सरकार के राहत पैकेज पर आपकी क्या राय है?
क्रिएटिव अकाउंटिंग और और विंडो ड्रेसिंग को छोड़ दें तो पैकेज 1.7 लाख करोड़ रुपए के बजाय 1 लाख करोड़ रुपए के करीब है। यह पैकेज देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 0.5 प्रतिशत है। पिछले साल आर्थिक मंदी की आहट पर केंद्र द्वारा दी गई कॉरपोरेट टैक्स छूट से भी यह कम राशि है। राहत उपायों को लागू करने में वक्त लगेगा, लेकिन इस बीच भूख फैल रही है। राज्यों को चाहिए कि वे प्रवासी श्रमिकों के लिए सामुदायिक रसोई और आश्रय जैसे आपातकालीन राहत उपायों के लिए तत्काल कदम उठाएं। यह केंद्र के पैकेज में यह दिखाई नहीं देता।
प्रवासी श्रमिकों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अग्रणी भूमिका निभाई है। अब क्या इसमें बदलाव आएगा?
देर सवेर मौसमी प्रवास शुरू हो जाएगा। यह प्रवास श्रमिकों की मजबूरी है क्योंकि लाखों गरीबों का इसके बिना गुजारा नहीं चलेगा। लेकिन स्वास्थ्य के संकट को देखते हुए प्रवास की अवधि सीमित होगी और यह संकट जल्द खत्म भी नहीं होने वाला।
कोरोना की महामारी हमारी खाद्य आपूर्ति और अर्थव्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित करेगी?
पूरी संभावना है कि लॉकडाउन और आर्थिक मंदी से खाद्य प्रणाली बाधित होगी। इस समय हमारे सामने अजीब से हालात हैं, कमी और अधिकता (सरप्लस) दोनों स्थितियां हैं क्योंकि आपूर्ति श्रृंखला टूट रही है। खाद्य महंगाई नियंत्रित है क्योंकि अधिकांश लोग जरूरत से अधिक खरीदारी में असमर्थ हैं। लॉकडाउन में छूट मिलने के साथ इस स्थिति में बदलाव आ सकता है। इसके बाद जो लोग समक्ष हैं, वे खरीदारी के लिए निकल सकते हैं।
अगर आपूर्ति श्रृंखला की स्थिति तब भी खराब रहती है तो स्थानीय स्तर पर मूल्य वृद्धि देखने को मिल सकती है। आपूर्ति श्रृंखला से वे लोग अधिक प्रभावित होंगे जिनके पास काम नहीं है। अगर आने वाले कुछ महीनों तक लॉकडाउन जारी रहता है तो इस तरह की घटनाओं में बढ़ोतरी देखने को मिलेंगी। अगर लॉकडाउन समाप्त हो जाता है, तब भी अव्यवस्थित अर्थव्यवस्था के कारण आपूर्ति श्रृंखला कुछ समय के लिए बाधित हो सकती है।
संकट के इस दौर से भारत क्या सीख सकता है?
सबसे पहले तो भारत को स्वास्थ्य और सामाजिक सुरक्षा को उच्च प्राथमिकता देने की जरूरत है। पूंजीवाद के प्रबल समर्थक भी यह स्वीकार करते हैं कि बाजार की प्रतिस्पर्धा स्वास्थ्य सेवाओं, विशेष रूप से सार्वजनिक स्वास्थ्य को दुरुस्त करने का गलत तरीका है। अधिकांश समृद्ध इस तथ्य को मानने लगे हैं और उन्होंने स्वास्थ्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति की है। यही बात सामाजिक सुरक्षा पर भी लागू होती है। एक सबक यह हो सकता है कि हम एकजुटता के मूल्य को समझें जिसे जाति व्यवस्था और अन्य सामाजिक विभाजनों द्वारा लगातार क्षीण किया जा रहा है।