अर्थव्यवस्था

अमेरिका से व्यापार समझौता भारत के किसानों के लिए कितना फायदेमंद?

वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ कर दिया है कि भारत, अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले या ठीक बाद व्यापारिक समझौता करने को तैयार है

Raju Sajwan

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को यूएस-इंडिया स्ट्रेटेजिक पार्टनरशिप फोरम को संबोधित करेंगे। उससे पहले वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल ने साफ कर दिया है कि भारत, अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले या ठीक बाद व्यापारिक समझौता करने को तैयार है। ऐसे में, बहुत हद तक संभावना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अमेरिका के साथ होने वाले व्यापारिक समझौते पर अपनी राय रखेंगे। लेकिन इस व्यापारिक समझौते को लेकर किसान संगठन बहुत चितिंत हैं। किसान संगठनों का कहना है कि अगर भारत, अमेरिका के साथ होने वाले समझौते में कृषि और डेयरी व्यवसाय को भी शामिल करता है तो इसका भारत के किसानों और पशुपालकों पर बुरा असर पड़ेगा।

सात अगस्त 2020 को राष्ट्रीय किसान महासंघ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को एक पत्र लिखा था कि भारत-अमेरिका के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफटीए) की तैयारी कर रहा है। जो किसानों के साथ बहुत नुकसानदायक हो सकता है। इस बारे में संगठन ने 17 फरवरी 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय को एक पत्र लिखा था, 4 मार्च 2020 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने जवाब दिया कि वाणिज्य डिपार्टमेंट द्वारा इस संबंध में सभी पक्षों से राय ली जाएगी, लेकिन अब तक (7 अगस्त) संगठन से संपर्क तक नहीं किया गया।

किसान महासंघ का कहना है कि अगर अमेरिका के साथ समझौता होता है कि भारतीय किसान अमेरिका से आने वाले उत्पादों का सामना नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अमेरिका द्वारा अपने किसानों को बड़ी मात्रा में सब्सिडी दी जाती है। अमेरिका ने फार्म बिल 2014 में 956 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की थी, जो अब तक की सबसे बड़ी सब्सिडी थी, जब दूसरे देशों ने इसका विरोध किया तो अमेरिका ने कहा था कि यह केवल दस साल के लिए है, परंतु फार्म बिल 2019 में अमेरिका ने फिर से किसानों के लिए 867 बिलियन डॉलर सब्सिडी की घोषणा की है। ऐसे में इतनी ज्यादा सब्सिडी हासिल करने वाले किसानों के उत्पाद जब भारत में आएंगे तो भारत के किसान उनका मुकाबला नहीं कर पाएंगे। अमेरिका द्वारा किसानों को दी जा रही सब्सिडी के विरोध में विकासशील देशों के एक समूह (जी33) को भारत भी सहयोग करता है, ऐसे में यदि अमेरिका के सब्सिडी युक्त कृषि उत्पाद भारत आते हैं तो भारत को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) में अपने स्टैंड से पीछे हटना पड़ेगा।

अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट “भारतीय किसानों के लिए भारत-अमेरिा मुक्त व्यापार समझौते के खतरे” में कहा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों और डेयरी किसानों के दबाव में भारत ने नवबंर 2019 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आरसीईपी) में शामिल होने से इंकार कर दिया था, लेकिन अब अमेरिका के साथ जो समझौता भारत करने जा रहा है, वह आरसीईपी से भी ज्यादा खतरनाक है। क्योंकि भारत के करोड़ों किसानों जिनकी औसतन जोत 1 हेक्टयर या उससे कम है को अमेरिका के किसानों जिनकी औसतन जोन 176 हेक्टेयर या उससे अधिक है के साथ मुकाबला करना होगा। अमेरिका में करीबन 21 लाख खेत हैं, जिसमें वहां की 2 प्रतिशत से भी कम आबादी को रोजगार मिलता है। वहां की औसतन वार्षिक कृषि आय लगभग 18,637 डॉलर ( लगभग 14 लाख रुपए) प्रति परिवार है। यह भी केवल कृषि से होने वाली आय है। दूसरी तरफ, भारत की 130 करोड़ आबादी में आधी से ज्यादा आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। यहां एक किसान परिवार की सब कुछ मिलाकर आय 1000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 75 हजार रुपए) सालाना से अधिक नहीं है।

डेयरी किसानों पर खतरा

पत्र में कहा गया है कि अमेरिका के साथ हो रहे मुक्त व्यापार समझौते से कृषि के साथ-साथ डेयरी उत्पादों पर भी बुरा असर पड़ेगा। अभी भी अमेरिका से मिल्क पाउडर, प्रीमिट पाउडर और पनीर बड़ी मात्रा में आयात हो रहा है, जबकि इन पर 30 से 60 फीसदी आयात शुल्क लगता है। अगर आयात शुल्क हट जाता है तो डेयरी उत्पादों का आयात कई गुणा बढ़ जाएगा। इतना ही नहीं, अमेरिका से मांसाहारी पनीर का आयात भी एक बड़ा मुद्दा है, जबकि भारतीय कस्टम विभाग किसी तरह से यह जांच भी नहीं कर सकते कि पनीर मांसाहारी है या नहीं, क्योंकि अमेरिका इसके लिए भी तैयार नहीं है कि पनीर के लेबल पर शाकाहारी या मांसाहारी लिखा जाए।

वहीं, ग्रेन की रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका ने भारत के डेयरी बाजार में प्रवेश करने के लिए बड़े तिगड़म लगाए हैं और हमेशा उसे विरोध का सामना पड़ा। 2003 से भारत ने डेयरी आयात पर “सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी” मानक लगा रहा था, जिसके कारण भारत में अमेरिका उत्पादों का प्रवेश पूरी तरह से बंद था, लेकिन दिसंबर 2018 से कुछ कड़े व अनिवार्य प्रमाणीकरण की शर्तों के साथ अमेरिका को डेयरी उत्पादों के निर्यात की स्वीकृति दे दी गई। इस शर्त के अनुसार, अमेरिका के डेयरी उत्पादों का संबंध किसी भी ऐसे पशु से नहीं होना चाहिए, जिनके आहार में रक्त, अतरिक्त अंग या जुगाली करने वाले पशुओं के अधिशेष नहीं हों, क्योंकि ये भारतीयों के लिए सांस्कृतिक एवं धार्मिंक आधार पर अस्वीकार्य है। अभी तक अमेरिका इन शर्तों को मानने के लिए आनाकानी कर रह है। वह इसे वैज्ञानिक रूप से अनुचित ठहरा रहा है।

ग्रेन की रिपोर्ट बताती है कि भारत में करीब 15 करोड़ डेयरी किसान हैं, जो किसी भ दूसरे देश से ज्यादा दूध का उत्पादन करते हैं।  इनमें से अधिकांश किसान छोटे हैं, जिनके पास दो या तीन गाय या भैंस हैं। इसलिए डेयरी क्षेत्र को ग्रामीण भारत की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है। ये लोग जो भी दुग्ध उत्पादन करते हैं, वह या तो खुद ही इस्तेमाल करते हैं या ग्रामीण क्षेत्रों में दूसरे लोगों, शहरी घरों या सहकारी समितियों के नेटवर्क की मदद से बेचा जाता है। उपभोक्ताओं द्वारा किए गए भुगतान का करीब 70 प्रतिशत उत्पादकों (डेयरी किसानों) को मिल जाता है। लेकिन अमेरिका में इसका बिलकुल उल्टा है। वहां का डेयरी उद्योग कुछ बड़ी कंपनियों के हाथों में है। डेयरी फार्म की संख्या कम हो रही है, लेकिन प्रत्येक फार्म में गायों की औसत संख्या लगातार बढ़ रही है। रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका में करीब 35 प्रतिशत दूध उन डेयरी फाम से आता है, जहां 2,500 से ज्यादा गायें हैं और 45 प्रतिशत उन डेयरी फार्म से आता है, जहां 1,000 से कम गायें हैं। कुछ बड़ी डेयरी फार्म के पास 30,000 से भी अधिक गायें हैं।  इसके बावजूद वहां कीमत कम है और अमेरिकी सरकार द्वारा डेयरी फार्म मालिकों को भारी सब्सिडी दी जाती है। 2015 में अमेरिकी सरकार ने डेयरी क्षेत्र को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 2,220 करोड़ अमेरिकी डॉलर (लगभग 1.66 लाख करोड़ रुपए) दिए।

इसके अलावा सोयाबीन, चिकन (मुर्गी), मक्का और गेहूं, बादाम और अखरोट, सेब, दाल, चीनी और सिंथेटिक रबर आदि का आयात भी बढ़ने की संभावनाएं हैं। इस तरह और भी कई उत्पाद भी अमेरिका के साथ होने वाले फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स में शामिल हैं।

अमेरिका से होने जा रहे व्यापार समझौते के चलते बीज पर अधिकार को लेकर भी शंका जताई जा रही है। ग्रेन की रिपोर्ट में कहा गया है कि अमेरिका के साथ समझौता करने वाले देशों को यूपोव 1991 यानी पौधों की नई किस्मों के संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय यूनियन की संधि में शामिल होना अनिवार्य है। यूपोव के अंतर्गत बीजों के ऊपर पेटेंट का अधिकार दिया जाता है। हालांकि भारत हमेशा से यूपोव में शामिल होने से इंकार करता रहा है, जिससे वह लाखों छोटे किसानों और गैर कॉरपोरेट पौध प्रजनकों के हितों को सुरक्षित रख सके, लेकिन 2019 में पेप्सिको कंपनी द्वारा अपनी आलू की एक किस्म के बौद्धिक संपदा अधिकार का उल्लंघन करने के आरोप गुजरात के किसानों पर लगाया था और उस मामले में पेप्सिको को दबाव झेलना पड़ा था। ऐसे में, यह पूरी तरह संभव है कि अमेरिकी बीज उद्योग इस प्रस्तावित समझौते के माध्यम से भारत में एक मजबूत बीज एकाधिकार की बात करेंगे और किसानों द्वारा बीज बचाने की संभावनाओं को खत्म करना चाहेंगे।

किसानों की इन शंकाओं को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 3 सितंबर को क्या कहते हैं, यह देखना बेहद अहम होगा।