अर्थव्यवस्था

तीन-चौथाई जरूरतमंद परिवारों को सितम्बर 2020 में नहीं मिला मुफ्त राशन: सर्वे

लॉकडाउन के दौरान फरवरी में करीब दो तिहाई (69 फीसदी) ने अपना काम खो दिया था, इनमें से 20 फीसदी को अभी भी काम नहीं मिला है

Lalit Maurya

सितम्बर 2020 में तीन-चौथाई जरूरतमंद गरीब परिवारों को मुफ्त राशन नहीं मिला था, जबकि वो उसके पात्र थे। यह जानकारी अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी द्वारा किए सर्वेक्षण में सामने आई है। यही नहीं सर्वे के मुताबिक जन धन खाताधारकों में से 30 फीसदी पात्र खाताधारकों को उनके खाते में सहायता राशि नहीं मिली है।

लॉकडाउन के बाद देश में रोजगार की स्थिति को समझने के लिए अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी ने अक्टूबर, नवंबर और दिसम्बर के दौरान दूसरे राउंड का सर्वे किया था। गौरतलब है कि सर्वेक्षण के पहले राउंड में 5,000 लोगों को शामिल किया गया था जोकि गरीब तबके से सम्बन्ध रखते थे, जबकि दूसरे राउंड में इन्हीं में से 2,778 लोगों से पुनः स्थिति का जायजा लिया गया था। जिससे स्थिति में कितना बदलाव आया है इस बात का पता लग सके। यह लोग 12 अलग-अलग राज्यों से सम्बन्ध रखते हैं।

जानकारी मिली है कि लॉकडाउन के दौरान फरवरी में इनमें से करीब दो तिहाई (69 फीसदी) ने अपना काम खो दिया था। इनमें से 20 फीसदी को अभी भी काम नहीं मिला है। हालांकि जिन कामगारों को उनका काम वापस मिल गया है, उनकी पहले जितनी कमाई होने लगी है। चूंकि श्रमिकों का एक बड़ा हिस्सा अभी भी काम से बाहर है, इसलिए यदि कुल कमाई को देखें तो वो अभी पहले की तुलना में करीब आधी है।

28 फीसदी शहरी परिवार अभी भी कर रहे हैं अपने भोजन में कटौती

यदि 100 श्रमिकों के आधार पर देखें तो उनमे से केवल 26 फीसदी पर लॉकडाउन का कोई असर नहीं पड़ा था। जबकि 55 को अपनी नौकरी दोबारा मिल गई है। लेकिन 15 फीसदी को अभी भी अपना काम वापस नहीं मिला है, वहीं 5 फीसदी श्रमिकों ने लॉकडाउन के बाद अपनी नौकरियों को गंवा दिया है। यदि महिला श्रमिकों की तुलना पुरुष श्रमिकों से करें तो उनकी स्थिति ज्यादा बदतर है। जहां 57 फीसदी पुरुषों को उनका काम वापस मिल चुका है, लेकिन इसकी तुलना में केवल 53 फीसदी महिला श्रमिक ही काम पर वापस लौट पाई हैं। क्षेत्रीय स्तर पर देखें तो शहरी क्षेत्रों पर इसका ज्यादा असर पड़ा है। 

जानकारी मिली है कि 10 में से 9 घरों में लॉकडाउन के दौरान अपने भोजन में कटौती करनी पड़ी थी। लेकिन छह महीने के बाद भी केवल एक तिहाई घरो की स्थिति पहले जैसी हो पाई है। इसमें भी शहरी परिवारों की स्थिति ज्यादा बदतर है। 15 फीसदी ग्रामीण घरों की तुलना में अभी भी 28 फीसदी शहरी घरों में खाने की खपत अभी भी लॉकडाउन के जितनी ही है, जिसका मतलब है कि वो सामान्य से कम है।

लॉकडाउन के 6 महीनों के बाद भी अर्थव्यवस्था कोविड-19 के सदमे से पूरी तरह नहीं उबर पाई है। अभी भी 20 फीसदी को अपना काम वापस नहीं मिला है। उसमें महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में ज्यादा खराब है। जिन्हें काम मिला उनकी स्थिति में तो सुधार आ रहा है पर जो अभी भी बेरोजगार हैं उनका क्या, उनके परिवारों का क्या होगा? ग्रामीण जीवन तो ढर्रे पर लौट आया है, पर शहरी परिवार अभी भी आस लगाए बैठे हैं, कि शायद कभी सरकार की नजरें उन पर भी इनायत होंगी। ऐसे में आगामी बजट पर सबकी नजरे टिकी हैं।

करीब दो-तिहाई शहरी श्रमिकों ने मांग की है कि उन्हें भी नरेगा की तरह शहरी रोजगार गारंटी दी जाए। तो क्या बजट से इसकी उम्मीद की जा सकती है। ग्रामीण विकास जरुरी है पर इसका मतलब यह नहीं की शहरी गरीब तबके को पूरी तरह भुला ही दिया जाए। यह भी उसी ग्रामीण आबादी का एक हिस्सा है। क्या आज पीडीएस के दायरे में विस्तार करने की जरुरत नहीं है जिससे पीड़ित परिवारों को पर्याप्त सामाजिक सुरक्षा दी जा सके।