अर्थव्यवस्था

कोरोना से लड़ाई में आदिवासियों का साथ दे रहा है यह स्वयंसेवी संगठन

Purushottam Thakur

“हम कोरापुट के जिन आदिवासी गांवों में काम करते हैं वहां कोरोना वायरस से बचाव के लिए जागरूकता अभियान चला रहे हैं. इसके साथ ही हर परिवार के एक आदमी को मास्क और साबुन दे रहे हैं और किस तरह से हाथ धोना है और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें, यह बता रहे हैं.” यह कहना है ओडिशा के कोरापुट जिले में कार्यरत गैरसरकारी संगठन प्रगति के सेक्रेटरी प्रभाकर अधिकारी का।

कोरापुट देश के उन जिलों में से है जहां 50 प्रतिशत से ज्यादा आबादी आदिवासियों की है। यहां प्रगति नामक यह संगठन लोगों के आजीविका के मुद्दे पर काम करता है, लेकिन अभी लॉकडाउन के चलते कोरोना के खिलाफ इस जंग में संगठन ने महिला स्वयं सहायिका ग्रुप आदि के जरिये मास्क बनवा रहा है।

“अभी तक हमने कोरापुट शहर समेत गाँवों में करीब 19 हजार मास्क बांटे हैं। हमारे कई गांव में हमने फार्मर्स प्रोड्यूसर्स ग्रुप बनाए हैं जो इस काम में हाथ बंटा रहे हैं। जब हम गांव जाते हैं तो कोरोना वायरस के बारे में जानकारी देते हैं, फिर मास्क और साबुन देते हैं। और यह भी कहते हैं की इसके लिए जो जितना योगदान करना चाहे तो वह कर सकता है। गांव के लोग अपने शक्ति और सामर्थ्य के मुताबक पांच रुपये से लेकर बीस-तीस रुपये तक दे रहे हैं। यह पैसा गांव के ही कम्युनिटी फण्ड में जमा हो जाता है.” प्रभाकर ने जानकारी देते हुए कहा। अभी तक इस तरह के जागरूकता अभियान 316 जगह किया जा चूका है.

कोरापुट जिले में कोरापुट शहर के अलावा कोटपाड, नंदपुर और बोरीगुमा में करीब एक हज़ार लोग क्वारेनटाईन में हैं इनमें कोरापुट के लोगों के आलावा पडोशी जिला नबरंगपुर के अलावा छत्तीसगढ़ से लेकर दुसरे राज्यों के लोग हैं जो अपने राज्य वापस जाते समय लॉकडाउन में फंस गए और यहाँ हैं. यहाँ जिला प्रशासन की ओर से उन्हें दिन में 60 रुपये में दो समय का भोजन दिया जा रहा है।

कोरापुट से लोग देश के अलग-अलग राज्यों में काम किए जाते हैं जिनमें केरला, तमिलनाडु, तेलेंगाना के अलावा मुंबई और हैदराबाद जैसे शहर शामिल हैं. ये लोग मानसून से पहले लौटते तो हाथ में कुछ पैसे लेकर आते और खरीफ फसल में लग जाते लेकिन अब वह खली हाथ लौटे हैं इसलिए हमने बीस से तिस हजार किसानो को बीज की सहायता करने की भी योजना बनाई है।

जाहिर है संकट के इस घड़ी में इस तरह के छोटे छोटे सहायता से भी लोगों को राहत मिल सकती है।

गौरतलब है कि आदिवासी इलाकों में सोशल डिसटेंनसिंग को अच्छे तरीके से पालन किया जा रहा है। यह इसलिए भी क्योंकि इस समाज को इसका पहले से अनुभव है जब इस तरह के महामारी फैलता था तब लोग गाँव गाँव के बीच आना जाना बंद कर देते थे।