अर्थव्यवस्था

काश! न्याय की रक्षा स्वयं सरकारें करतीं...

Ramesh Sharma


न्याय मे विलंब का अर्थ अन्याय माना जाता है, लेकिन आज माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सभी प्रवासी मजदूरों को तयशुदा समयसीमा में सकुशल वापस घर भेजने के महत्वपूर्ण आदेश के माध्यम से सकारात्मक मिसाल कायम की है। तालाबंदी (लॉकडाउन) के लगभग 78 वें दिन आया यह आदेश उन लाखों श्रमिकों के लिए भी प्रासंगिक हो सकता था, जो तमाम अनिश्चितताओं के चलते अपने ही बूते  पैदल गावों की ओर निकल पड़े, बहरहाल अब वो बीता हुआ कल है।

आज हम सब गवाह हैं कि किस तरह विगत 70 सालों में श्रमिकों की सुरक्षा के लिये संसद और विधानसभाओं से पारित लगभग 250 से अधिक विधान मिलकर भी, पैदल घर लौटते श्रमिकों को कोई सुरक्षात्मक कवच दे पाने में लगभग असफल रहे। अच्छा होता इन कानूनों के दायरे में स्वयं राज्य सरकारें सामने आकर श्रमिकों के हितों की रक्षा करतीं।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय को आज इन राज्य सरकारों से यह पूछना ही चाहिए कि तालाबंदी के दौरान कितने श्रम कानूनों का अनुपालन राज्यों ने किया? क्यों किसी भी राज्य सरकार को श्रमिकों की आधी-अधूरी गिनती अब मजबूरन करनी पड़ रही है- जबकि श्रम विभाग का यह वैधानिक दायित्व था? क्यों किसी भी राज्य ने प्रवासी मजदूर अधिनियम (1978) के तहत श्रमिकों का पंजीयन नहीं किया? आखिर कितने राज्यों नें न्यूनतम मजदूरी अधिनियम अथवा मजदूरी कोड को पूरी ईमानदारी से लागू किया- यह भी सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से अब पूछने का वक्त आ गया है।

तालाबंदी के पहले -दूसरे और तीसरे चरण में जब लाखों श्रमिकों ने स्वेच्छा या मजबूरी से पैदल गांवों की ओर लौटने का निश्चय किया, तब राज्य सरकारों द्वारा स्थानीय प्रशासन को आपदा प्रबंधन अधिनियम (2005) के तहत वैधानिक कार्रवाई किए जाने का मार्ग बताया गया था। यही कारण था कि तालाबंदी तोड़कर निकले लाखों श्रमिकों को महामारी की आशंका और इस अधिनियम के सख्त अनुपालन के मद्देनजर रोका भी गया था। कुछ स्थानों पर कानून के उल्लंघन के मामले भी दर्ज किये गये। फिलहाल यदि आपदा प्रबंधन अधिनियम और उसके उल्लंघन के मामलों के गुण-दोष का विश्लेषण न भी किया जाये तो भी यह जानना ही चाहिए कि आखिर किस असुरक्षा के चलते लाखों श्रमिकों ने इस कानून की अवज्ञा की? और फिर राज्य क्या श्रमिकों के दिलो-दिमाग में गहरे बैठी असुरक्षा को दूर करने के लिये कोई ठोस पहल कर पाए? 

भारत के अधिकांश राज्यों में प्रवासी श्रमिकों की संख्या को लेकर कोई ठोस जानकारी अब तक नहीं है। भारत सरकार के अनुसार पूरे देश में प्रवासी श्रमिकों की संख्या लगभग 8 करोड़ है, जिसमें से 5.6 करोड़ अन्तर्राज्यीय प्रवासी श्रमिक हैं। हालांकि कुछ राज्य सरकारों के पास  इस संबंध में जानकारी तो है, किन्तु इन आंकड़ों में असमानताएं भी हैं।

वास्तव में राज्यों के स्तर पर अंतर्राज्यीय प्रवासी श्रमिकों की वास्तविक संख्या का आधार 'अंतर्राज्यीय प्रवासी मजदूर अधिनियम (1979)' के दायरे में होना चाहिए। इस कानून के दायरे में प्रवासी श्रमिकों और संबंधित ठेकेदारों दोनों का ही वैधानिक पंजीयन अनिवार्य है। दुर्भाग्य से अधिकांश राज्यों और उनके श्रम विभागों के पास इस कानून के संदर्भ में कोई भी प्रमाणित आंकड़े, रिकॉर्ड और रिपोर्ट है ही नहीं।

क्या इनकी गणना राज्यों का  नियमित दायित्व  नहीं होना चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय के प्रस्तावों और भारत सरकार के द्वारा जारी नए निर्देशों के अंतर्गत प्रवासी श्रमिकों की नए सिरे से गणना निश्चित ही किसी आधे-अधूरे परिणाम तक ही ले जाएगी। वास्तव में सवाल, प्रवासी श्रमिकों की गणना का भर नहीं होना चाहिए, बल्कि संस्थागत असफलता और वैधानिक लापरवाहियों का उत्तर मिलना आवश्यक है - जिसके समग्र अनदेखी के चलते आज निकम्मी व्यवस्था को पैबंद लगाने की शर्मनाक कोशिश की जा रही है। काश सर्वोच्च न्यायालय, तमाम श्रम कानूनों के सार्वजानिक उल्लंघन के कठघरे में राज्यों की जवाबदेही भी अब तय करती।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय के पहल के मद्देनजर, आज श्रमिकों की गणना के निहितार्थ भी समीक्षा का विषय है। यदि इस गणना का केंद्रीय पक्ष मात्र राहत सामग्री का वितरण और बनाये जाने वालों रिपोर्टों की औपचारिकता भर है, तो इसे श्रमिकों के घावों पर थोड़ा मरहम लगा देने तक का प्रशासनिक रिवाज मान लिया जाएगा। यदि इस गणना का अर्थ कोई नई-नवेली योजना के नए लाभार्थी तलाशना और तराशना है, तब भी इसका हश्र क्या होगा यह अनुमान लगाया जा सकता है।

वास्तव में जब तक इस गणना के दायरे में, श्रम विभाग की नाकामियों को उजागर करने और उसके नियमित दायित्वों को निर्धारित करने में नहीं होगा, तब तक लाखों करोड़ों श्रमिकों के वैधानिक अधिकारों के सवाल अनुत्तरित ही रहेंगे। सरकार और न्यायालय को यह समझना ही होगा कि आज श्रमिकों को योजनाओं के पात्रता की नहीं, बल्कि उनके उन सभी अधिकारों का संबल चाहिए, जिसे विगत 70 बरसों में संसद और विधानसभाओं नें श्रमिकों के सम्मान के लिये बनाया, किन्तु ईमानदारी से लागू करना लगभग भूल गए।

राजकुमार और उसके साथी 40 युवा श्रमिक यह जानते थे कि तालाबंदी तोड़कर सड़क के रास्ते चेन्नई से जबलपुर तक पैदल आने का अर्थ है कि पकड़े जाने पर प्रशासनिक कार्रवाई और  14 दिन आइसोलेशन सेंटर में भर्ती। बावजूद इसके वो सब निहत्थे पैदल निकल पड़े।

तमिलनाडु से आंध्रप्रदेश सीमा पार होने के लिए गुमनाम रास्तों पर घंटों पैदल चले - और फिर ट्रक चालकों से विनती करते हुए किसी तरह अपने गंतव्य अंततः पहुंच ही गये। इन सबके बाद समाज के एक जवाबदेह सदस्य के रूप में पहले स्थानीय प्रशासन को आने की सूचना दी और निर्धारित स्वास्थ्य जांच की प्रक्रिया पूरी की।

रामकुमार को नहीं मालूम कि उसने आपदा प्रबंधन अधिनियम का उल्लंघन किया है- वह तो बस इतना ही जानता है कि गांव वापस आकर स्वेच्छा से निर्धारित स्वास्थ्य जांच की प्रक्रिया पूरी करते हुए उसने एक जवाबदेह नागरिक होने का दायित्व निभाया है।

इसीलिए सर्वोच्च न्यायालय का मौजूदा आदेश रामकुमार और उसके साथियों जैसे हजारों लोगों के लिए एक आश्वस्ति है कि उनके मानवाधिकारों को अंततः न्यायालय ने स्थापित किया। कानून को मानने और सम्मान देने वाले बहुसंख्यक गरीबों, वंचितों और मजदूरों के देश में सर्वोच्च न्यायालय का आदेश एक नज़ीर बने तो शायद जनतंत्र को हम सब मिलकर साकार कर सकते हैं।

आदर्श स्थिति तो यह होती कि न्याय की रक्षा स्वयं राज्य सरकारें करती, ताकि सर्वोच्च न्यायालय को न्यायतंत्र स्थापित करने के लिये पूरे 78 दिन प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सत्य तो यह है कि विगत सात दशकों से माननीय न्यायालयों के तथ्यपूर्ण और सत्यपूर्ण आदेश अब तक राज्य व्यवस्थाओं द्वारा आधे-अधूरे  ही लागू किया जा सके हैं।

वास्तव में न्यायालयीन आदेश को जब तक व्यवस्था में सुधार का मानक नहीं बनाया जाएगा, तब तक अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करते बहुसंख्यक श्रमिकों को न्याय मिलेगा, इसकी संभावना धूमिल ही रहेगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय का आदेश, देश के लाखों-करोड़ों श्रमिकों के अधिकारों की तालाबंदी समाप्त कर सके तो उनका भी  विश्वास, सरकार और समाज के प्रति और अधिक सशक्त होगा, इस वक्त तो ऐसा मानना ही चाहिए।

लेखक रमेश शर्मा, एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं