अर्थव्यवस्था

कितना मुश्किल है गुजरात से लौट रहे प्रवासियों को श्रमिक ट्रेन तक पहुंचना

गुजरात के सूरत और अहमदाबाद में फंसे प्रवासियों ने बताया कि उन्हें श्रमिक ट्रेनों तक पहुंचने के लिए क्या-क्या करना पड़ रहा है

DTE Staff

कलीम सिद्धिकी

सूरत / अहमदाबाद : अखिलेश कुमार माथुर सूरत की एक कपड़ा फैक्टरी में प्रवासी मजदूर हैं। आज मैंने उनसे टेलीफोन पर बात की तो उन्हें लगा तहसीलदार के दफ्तर से फोन है। क्योंकि उन्होंने गांव लौटने के लिए तहसीलदार के दफ्तर में अर्जी दी थी। जब मैंने बताया कि एक स्वतंत्र पत्रकार हूं। तो वह फफक पड़े। बोले, “4 - 5 मई को हमने मेडिकल चेकअप के बाद मामलतदार ( तहसीलदार ) के कार्यालय में अर्जी दी थी। 14 मई तक श्रमिक एक्स्प्रेस से बिहार जाने की उम्मीद में मामलतदार के दफ्तर रोजाना आता-जाता रहा, लेकिन वहां से कभी भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो 14 मई को ही हम चार लोग सूरत से पैदल अपने गांव लोहारी, जिला छपरा, बिहार के लिए निकल गए। रास्ते में कहीं-कहीं ट्रक वाले बिठा लेते थे। ऐसे करते-करते 21 मई  को गांव पहुंच गए।"

अखिलेश जैसी कहानी बहुत से प्रवासी मजदूरों की है। सूरत से समुद्रीय तट और तापी नदी होते हुए हजीरा और मोरा इंडस्ट्रियल जोन है। यहां एलएंडी, रिलायंस, एस्सार जैसी बड़ी कंपनियां हैं। फंसे हुए मजदूरों के लिए काम कर एक संगठन स्ट्रैंडड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) के अनुसार इन्हीं कंपनियों ने पीएम केयर फंड में लगभग 400 करोड़ रुपए का चंदा भी दिया है। स्वान के अलावा पीयूसीएल और गुजरात सर्वोदय जैसी संस्थाएं इन प्रवासी मजदूरों को छुड़ा उनके गांव भेजने के प्रयत्न में लगी हुई हैं।

उनका साथ दे रहे विधायक जिग्नेश मेवाणी ने मुख्यमंत्री विजय रूपानी को पत्र लिख कर कहा कि सस्ती मजदूरी के कारण इन कंपनियों ने प्रवासी मजदूरों को बंधक बनाया और अब उन्हें अपने गांव जाने नहीं दिया जा रहा है।

स्वान के अनुसार इस उद्योग विस्तार में 50,000 से 70,000 प्रवासी मजदूरों को ठेकेदारों और मालिकों ने रोका हुआ है। जबकि उनके लिए खाने तक का इंतजाम नहीं किया गया है। पहले एक एनजीओ खाना दे रहा था, लेकिन दो सप्ताह से उन लोगों ने भी आना बंद कर दिया है। अब भूख से संघर्ष करना पड़ रहा है।

कुछ लोकल संस्थाएं प्रवासी मजदूरों के अपने गृह प्रदेश भेजने के लिए गुजरात सरकार की जिस प्रक्रिया की जगरूकता फैला रहे थे। उससे सभी को धोखा हुआ। जो प्रक्रिया गुजरात सरकार ने श्रमिक एक्सप्रेस के लिए बनाई थी। उस प्रक्रिया से गुजरात सरकार श्रमिकों को भेजने में असफल रही है। नई प्रक्रिया में राजनैतिक लोगों का अधिक दखल है। जो बिल्कुल भी पारदर्शी नहीं है।

संदीप जौनपुर जिला उत्तर प्रदेश के रहने वाले हैं। मोरी इंडस्ट्रियल जोन में वेल्डिंग का काम करते हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया, "5 मई को मोरा गांव नगर पंचायत में श्रमिक ट्रेन से गांव जाने के लिए फॉर्म भरा था। आधार कार्ड सहित सभी जानकारी दी थी, परंतु अभी तक नंबर नहीं आया।

उनके जैसे लाखों हैं, जो फॉर्म भर कर अब भी इंतजार कर रहे हैं। दरअसल, अहमदाबाद के कलेक्टर केके निराला ने कुछ दिन पहले अपने ट्वीटर हैंडल से ट्रेवल परमिट के लिए टोल फ्री नंबर, व्हाट्स अप नंबर और लैंडलाइन नंबर जारी किए थे। लेकिन यह सभी नंबर अहमदाबाद स्थित अक्षर ट्रेवल के हैं। डाउन टू अर्थ ने अक्षर ट्रेवल के डायरेक्टर सुहाग मोदी से बात की तो उन्होंने बताया " वह केवल काल सेंटर की तरह काम कर रहा है। हम डाटा एकत्र कर कलेक्टर ऑफिस को दे देते हैं। इससे अधिक हमारी कोई भूमिका नहीं है।"

इन नंबरों पर आवेदन करने वाले ज्यादातर श्रमिक, श्रमिक एक्सप्रेस नहीं पहुंच पाए हैं। दरअसल, ज्यादातर श्रमिक ट्रेनों में कौन जाएगा, यह स्थानीय नेता तय कर रहे हैं। रेलवे पहले 1200 यात्रियों की ट्रेन देता था, बाद में बढ़ाकर 1620 यात्रियों की ट्रेन कर दी। स्थानीय प्रशासन पूरी ट्रेन एक ही व्यक्ति के जिम्मे कर दे रहे हैं। यह व्यक्ति राजनीतिक पहुंच वाला होता है, जो तय करता है कि कौन-कौन जाएगा। किराया वसूलना भी इसी व्यक्ति के जिम्मे है। डाउन टू अर्थ  ने बहुत से यात्रियों से बात की तो पता चला कि उनसे तय किराये के अलावा 300 रुपए अतिरिक्त लिया गया।

कुतुबुद्दीन, साजिद और अब्दुल्ला गाजीपुर के तारी घाट के रहने वाले हैं। तीनों अहमदाबाद में गुब्बारा बेचने का काम करते हैं। हज हाउस के गेस्ट हाउस में 60 रु. प्रति दिन के किराये पर रहते थे। लॉक डाउन में फंस गए थे। बताते हैं " श्रमिक एक्सप्रेस की घोषणा हुई तो हमने भी कंप्यूटर से फॉर्म भरवाए, लेकिन 15 दिन बीत जाने के बाद भी नंबर नही आया तो गांव के एक नेता से संपर्क किया उनकी यहां जान पहचान थी तो 20 मई को जान पहचान से लखनऊ तक की ट्रेन का कूपन मिल गया। कूपन से हमें बस से रेलवे स्टेशन लाया गया और लखनऊ की ट्रेन में बिठा दिया गया।"

उधर, डाउन टू अर्थ ने अहमदाबाद के कलेक्टर केके निराला से जब अक्षर ट्रेवल और मजदूरों को गुमराह करने वाली हेल्पलाइन के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि ये सभी नंबर अब बंद किये जा चुके हैं। डाउन टू अर्थ ने जब अहमदाबाद जिला मजिस्ट्रेट से कंस्ट्रक्शन साइट पर काम कर रहे बिहार के मजदूरों को ट्रेवल परमिट तथा श्रमिक एक्सप्रेस के कूपन न मिल पाने की दिक्कतों से अवगत कराया। तो उन्होंने बताया कि बिहार के लिए अब अब अलग ट्रेनें लगाई गई हैं।

लॉकडाउन के समय प्रवासी मजदूरों से लिए जा रहे किराये के विरोध में गुजरात हाई कोर्ट में एडवोकेट आनंद याग्निक के माध्यम से याचिका डाली गई। जिस पर सुनवाई के बाद कोर्ट ने किराया राज्य सरकार को वहन करने तथा रेलवे द्वारा छूट दिए जाने के निर्देश दिए हैं।