संयुक्त राष्ट्र ने नई रिपोर्ट में चेताया है कि शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं द्वारा एक दूसरे पर लगाए भारी टैरिफ्स की आग ने व्यापारिक तनाव को बढ़ा दिया है। आशंका है कि इस आग से कमजोर अर्थव्यवस्थाएं झुलस सकती हैं। देखा जाए तो पहले ही विकास को लेकर संघर्ष करते यह देश बढ़ती अनिश्चितता से जूझ रहे हैं।
इनकी गतिविधियों का व्यापारिक घाटे में न के बराबर असर पड़ते है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्रे ने इन देशों को रेसिप्रोकल टैरिफ में छूट देने का आग्रह किया है।
'एस्केलेटिंग टैरिफ्स: द इम्पैक्ट ऑन स्मॉल एंड वल्नरेबल इकोनॉमीज' नामक इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्षों से वैश्विक व्यापार प्रणाली में नियमों के आधार पर काम होने से अंतराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ावा मिला है। इसकी वजह से आयातित वस्तुओं पर लगने वाले टैरिफ (शुल्क) में लगातार गिरावट आई है। आंकड़ों पर नजर डालें तो 2023 में, दुनिया का करीब दो-तिहाई व्यापार बिना टैरिफ के हुआ था।
लेकिन हाल में दुनिया की शक्तिशाली अर्थव्यवस्थाओं द्वारा एक दूसरे पर लगाए भारी भरकम शुल्कों (टैरिफ्स) ने व्यापारिक तनाव को बढ़ा दिया है। ऐसे में व्यापारिक तनाव और बढ़ते टैरिफ्स ने कमजोर विकासशील देशों की चिंताएं बढ़ा दी हैं।
ऐसे में संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास संगठन (यूएनसीटीएडी) ने 14 अप्रैल 2025 को जारी अपनी रिपोर्ट में अपील की है कि कमजोर, संवेदनशील अर्थव्यवस्थाओं को ‘रेसिप्रोकल टैरिफ्स’ में छूट दी जानी चाहिए।
क्या है रेसिप्रोकल टैरिफ
अमेरिका ने भारत पर भी 26 फीसदी रेसिप्रोकल टैरिफ का ऐलान किया है। हालांकि उसे फिलहाल 90 दिनों के लिए टाल दिया गया है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि टैरिफ एक प्रकार का कर (टैक्स) होता है, जो किसी देश द्वारा आयातित वस्तुओं पर लगाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य जहां एक तरफ सरकार के लिए राजस्व को बढ़ाना, वहीं साथ ही घरेलू कंपनियों को विदेशी प्रतिस्पर्धा से बचाना होता है।
इससे विदेश सामान महंगे हो जाते हैं। नतीजन लोग स्वदेशों उत्पादों को खरीदने के लिए प्रेरित होते हैं। आसान भाषा में समझें तो एक अमेरिकी नागरिक जो भारत से आने वाली दवाएं खरीदता है, उसे यदि पहले उस दवाई के लिए 100 डॉलर चुकाने पड़ते थे तो 26 फीसदी टैरिफ के बाद इसके लिए 126 डॉलर चुकाने होंगें। इससे भारतीय उत्पादों की मांग घट जाएगी और अमेरिकी अपने देश में बनी दवाओं को खरीदने के लिए प्रेरित होंगे।
यहां एक और शब्द है जिसे समझने की जरूरत है और वो है 'रेसिप्रोकल टैरिफ'। इसका सीधा सा अर्थ है जैसे को तैसा। मतलब कि जब एक देश किसी दूसरे देश से आयात होने वाले उत्पादों पर टैरिफ लगाता है और दूसरा देश जवाब कार्रवाई में उसी अनुपात या कम-ज्यादा दर पर टैरिफ लगा देता है, तो उसे 'रेसिप्रोकल टैरिफ' कहते हैं।
गरीब देशों का नुकसान, अमेरिका को नहीं होगा फायदा
बता दें कि अमेरिका द्वारा हाल ही में लगाए इन रेसिप्रोकल टैरिफ पर फिलहाल 90 दिनों के लिए रोक लगा दी गई है। बता दें कि इन टैरिफ्स को अमेरिका और उसके 57 साझेदारों के बीच व्यापारिक घाटा संतुलित करने के लिए तय किया गया था। इसमें कैमरून पर लगाए 11 फीसदी से लेकर लेसोथो के लिए 50 फीसदी तक टैक्स शामिल थे।
संयुक्त राष्ट्र ने अपनी रिपोर्ट में इस बात की भी पुष्टि की है कि इन टैरिफ्स से अमेरिका को न के बराबर फायदा मिलेगा, लेकिन इससे छोटी कमजोर अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर नुकसान हो सकता है और वो आर्थिक रूप से तबाह हो सकती हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका के इन 57 व्यापारिक साझेदारों में से 11 सबसे कम कमजोर देश शामिल हैं, जो अमेरिका के व्यापारिक घाटे में बेहद कम योगदान दे रहे हैं। इनमें 28 देश ऐसे हैं जिनका अमेरिका के व्यापारिक घाटे में योगदान 0.1 फीसदी से भी कम है, फिर भी उन्हें इन टैरिफ्स का सामना करना पड़ सकता है।
इनमें से कई अर्थव्यवस्थाएं आकार में छोटी और आर्थिक रूप से कमजोर हैं। ये संरचनात्मक रूप से कमजोर हैं और इनकी क्रय शक्ति सीमित हैं। ऐसे में यह देश अमेरिकी निर्यात के लिए सीमित बाजार प्रदान करती हैं। ऐसे में रिपोर्ट के अनुसार यदि यह देश अमेरिका को व्यापारिक रियायतें भी दें, तो इसका कोई खास असर नहीं पड़ेगा, उल्टा इन देशों के खुद के राजस्व और आय में गिरावट आ सकती है।
अपने टैरिफ की आग में खुद भी झुलस सकता है अमेरिका
अगर ये 'रेसिप्रोकल टैरिफ्स' दोबारा लागू होते हैं, तो बढ़ती कीमतों की वजह से कई आयातित वस्तुओं की मांग घट सकती है। मान लें कि यदि अमेरिका का आयात स्तर 2024 जितना ही बना रहता है, तब भी उसे छोटे और कमजोर देशों से मिलने वाला अतिरिक्त राजस्व बेहद कम होगा। अमेरिका को इन 57 में से 36 देशों पर रेसिप्रोकल टैरिफ लगाकर जितना पैसा मिलेगा, वह उसकी टैक्स से होने वाली कुल मौजूदा कमाई का एक फीसदी से भी कम होगा।
रिपोर्ट में इस बात का भी खुलासा किया है कि इसका असर अमेरिकी उपभोक्ताओं पर भी पड़ेगा। संभावित रेसिप्रोकल टैरिफ का सामना कर रहे कई देश ऐसे भी हैं जो अमेरिका को ऐसे कृषि उत्पाद निर्यात करते हैं जिनका उत्पादन अमेरिका में नहीं होता और उनके बेहद कम विकल्प मौजूद हैं। उदाहरण के लिए मेडागास्कर से वनीला, या घाना और कोटे डी आइवर से होने वाला कोको निर्यात।
आंकड़ों पर नजर डालें तो 2024 में अमेरिका ने अकेले मेडागास्कर से 15 करोड़ डॉलर की वनीला और कोटे डी आइवर से करीब 80 करोड़ डॉलर की कोको आयात की थी। ऐसे में अगर इन पर टैरिफ बढ़ा दिए जाते हैं, तो उपभोक्ताओं को ये उत्पाद महंगे दामों पर खरीदने पड़ सकते हैं।
ऐसे में टैरिफ बढ़ने से भले ही अमेरिकी सरकार के खजाने में थोड़ी बहुत वृद्धि हो जाए, लेकिन बढ़ती कीमतें अमेरिका में आम लोगों की जेब पर भारी पड़ सकती है।