अर्थव्यवस्था

आरसीईपी: क्यों सरकार को झुकना पड़ा?

आरसीईपी में शामिल होने से इनकार करने के बाद भारत लगातार फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स की समीक्षा करने की बात कर रहा है। आइए, समझते हैं कि सरकार ऐसा क्यों कह रही है?

Anil Ashwani Sharma, Raju Sajwan

भारत सरकार का दावा है कि वह अब तक हुए सभी मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की समीक्षा कर रही है। यह तो आने वाले वक्त बताएगा कि समीक्षा में क्या निकलेगा, लेकिन डाउन टू अर्थ ने एफटीए के असर की पड़ताल की और रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट क्या है। पढ़ें, दूसरी कड़ी-

ढाई दशक पहले भारत ने मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की राह पकड़ी थी। इससे देशी कारोबार को काफी नुकसान हुआ, लेकिन अब तक कोई बड़ा विरोध सरकार को नहीं झेलना पड़ा था। खासकर, किसान अब तक खुल कर सामने नहीं आए थे, लेकिन जब सरकार क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) करने जा रही थी तो पूरे देश में एक साथ विरोध शुरू हुए और सरकार सांसत में आ गई।

आइए, पूरा घटनाक्रम देखते हैं। दरअसल, आरसीईपी को विश्व व्यापार संगठन के बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी व्यापारिक साझेदारी बताया जा रहा था। इसमें 16 देश शामिल हैं, जिनकी विश्व के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एक तिहाई और वैश्विक व्यापार के एक चौथाई हिस्सेदारी है। इन 16 देशों में दुनिया की आधी आबादी रहती है। आरसीईपी को दुनिया का सबसे बड़ा मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने के लिए ही डिजाइन किया गया है। भारत पिछले सात वर्षों से इसके 28 दौरों की वार्तालाप प्रक्रिया में शामिल रहा। लेकिन 4 नवंबर को थाइलैंड के बैंकॉक में हुई इन राष्ट्रों के प्रमुखों की बैठक में भारत ने इसमें शामिल न होने की घोषणा कर दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब कहा, “न तो गांधीजी का कोई जंतर और न ही मेरी अंतरात्मा मुझे इसमें शामिल होने की अनुमति देती है।”

जब 2012 में आरसीईपी की शुरुआत हुई थी, तब इसमें 10 आसियान देश (ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, वियतनाम) शामिल थे। बाद में इसमें क्षेत्र की अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, ‍न्यूजीलैंड और भारत को शामिल करने की कवायद शुरू हुई। इसको लेकर जब दो नवंबर से शिखर सम्मेलन बुलाया गया, लेकिन इससे पहले ही भारत में इससे संबंधित कुछ चिंताएं व्यक्त की। विदेश मंत्रालय के सचिव विजय ठाकुर सिंह ने 31 अक्टूबर को मीडिया को बताया कि अब भी कुछ “महत्वपूर्ण” मुद्दों को हल किया जाना बाकी है, इससे इस समझौते में भारत के शामिल होने में थोड़ा वक्त लगने वाली अटकलों को हवा मिल गई। लेकिन भारत के रुख में अंतिम समय में हुए बदलाव ने सभी को हैरान कर दिया, क्योंकि इस प्रक्रिया में शामिल सभी देशों के लिए यह एक झटके की तरह था। 

दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और विश्व का तीसरा सबसे अधिक आयात करने वाले भारत को यह व्यापारिक साझेदारी आकर्षित नहीं कर पाई। हालांकि, जापान और इंडोनेशिया ने भारत को आरसीईपी में शामिल होने के लिए बहुत आग्रह भी किया। बाद में सभी 15 देशों ने चीन के आग्रह को मानते हुए इस समझौते को भारत के बिना ही आगे बढ़ाने का फैसला किया।
भारत का कहना है कि वह तब तक आरसीईपी में शामिल नहीं होगा जब तक उसकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं। 5 नवंबर को मीडिया से बात करते हुए केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा कि देश के किसानों, दुग्ध उत्पादकों और छोटे उद्योगों की सुरक्षा के लिए सख्त रुख अपनाना पड़ा। भारत की मांग थी कि आरसीईपी में एक ऐसे सुरक्षा गार्ड की व्यवस्था की जाए, जो देशों को या तो आयात बंद करने या अधिक शुल्क लगाने की अनुमति देगा। दूसरी मांग थी कि यदि घरेलू बाजार किसी एक विदेशी उत्पाद से भर जाता है तो सख्त नियम यह बनाए जाएं, ताकि दूसरे देश, भागीदार देशों के माध्यम से भारत में अपना माल न भेज सकें। 

और तीसरी मांग थी कि कुछ संवेदनशील क्षेत्र जैसे कृषि और डेयरी को आरसीईपी के दायरे से बाहर रखा जाए। भारत अपने व्यापार घाटे में संतुलन बनाना चाहता है। साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि आयात अधिक होने पर घरेलू उद्योग पर बुरा असर न पड़े। इसके अलावा भारत जानता है कि चीन जैसे देश दूसरे छोटे देशों जैसे बांग्लादेश के माध्यम से अपना सामान भारत में भेज रहे हैं। भारत इसे रोकना चाहता है। गोयल ने कहा, “बातचीत में हमने अपनी मांगों को रखा। हमारी कई मांगों को स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन अंत में जब हमने आरसीईपी की उपलब्धि को समग्र रूप से देखा तो महसूस किया कि भारत को आरसीईपी में शामिल नहीं होना चाहिए।”

जारी...