अर्थव्यवस्था

फ्री ट्रेड एग्रीमेंट: कृषि व उद्योग क्षेत्र को तैयार किए बिना नहीं मिलेगी सफलता

फ्री ट्रेड एग्रीमेंट यानी मुक्त व्यापार समझौतों को लेकर तब तक बात करनी बेमानी है, जब तक सरकार देश के कृषि व उद्योग क्षेत्र को मजबूत न कर ले

Anil Ashwani Sharma, Raju Sajwan

 भारत सरकार का दावा है कि वह अब तक हुए सभी मुक्त व्यापार समझौतों (फ्री ट्रेड एग्रीमेंट, एफटीए) की समीक्षा कर रही है। यह तो आने वाले वक्त बताएगा कि समीक्षा में क्या निकलेगा, लेकिन डाउन टू अर्थ ने एफटीए के असर की पड़ताल की और रिपोर्ट्स की एक सीरीज तैयार की। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट क्या है। पढ़ें, दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा कि आखिर केंद्र सरकार को आरसीईपी से पीछे क्यों हटना पड़ा। तीसरी कड़ी में अपना पढ़ा कि फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स की वजह से पुश्तैनी काम धंधे बंद होने शुरू हो गए और सस्ती रबड़ की वजह से रबड़ किसानों को खेती प्रभावित हो गई। चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, फ्री ट्रेड एग्रीमेंट्स ने चौपट किया कपड़ा उद्योग ।पांचवीं कड़ी में अपना पढ़ा, सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद दाल क्यों आयात करता है भारत । छठी कड़ी में पढ़ा कि लहसुन तक चीन से आना लगा तो क्या करे किसान? । अगली कड़ी में आपने पढ़ा, दूसरे देशों से कारोबार में भारत ने खाई मात, बढ़ा व्यापार घाटा । इससे आगे आपने पढ़ा, भारतीय वैश्विक संबंध परिषद गेटवे हाउस में फॉरेन पॉलिसी स्टडीज प्रोग्राम शोधार्थी राजीव भाटिया ने एक लेख । अंतिम कड़ी में पढ़ें, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर विश्वजीत धर का लेख-  

‘कृषि व उद्योगों को तैयार करने से पहले मुक्त व्यापार समझौते न करे भारत’

विश्वजीत धर

जिन शर्तों पर भारत क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) में शामिल हुआ है, वे अर्थव्यवस्था के लिए बेहद हानिकारक थी। व्यापारिक गुट में शामिल न होकर सरकार ने एक समझदारी भरा कदम उठाया है। बातचीत के दौरान यह देखने के बाद कि इसकी प्रतिक्रिया भारत के हितों के अनुकूल नहीं है सरकार को पहले ही इससे बाहर हो जाना चाहिए था। अंतिम क्षणों में बाहर निकलने से वैश्विक समुदाय को एक नकारात्मक संदेश मिलता है। आरसीईपी हमारी अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों को मौलिक रूप से प्रभावित कर सकता है। मेरा शोध बताता है कि भारत के विनिर्माण और कृषि क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा की कमी है। हमारे कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर छोटे किसान शामिल हैं, जिनके लिए आजीविका और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना प्राथमिक चिंता है। सरकार किसी तरह सब्सिडी देकर और आयातित वस्तुओं पर उच्च शुल्क लगाकर उनका समर्थन कर रही है। 

विनिर्माण क्षेत्र के लिए परिदृश्य बहुत अलग नहीं है। इसके घरेलू उद्यमों को बाहरी प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता है, जो भारत के लिए अच्छा नहीं है। इसलिए, सरकार के लिए उचित नीतियां अपनाना अनिवार्य है जो भारतीय उद्यमों की प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने में मदद कर सके। सरकार को तुरंत एक औद्योगिक नीति पर काम करने की आवश्यकता है जो विनिर्माण क्षेत्र में व्यापकता प्रदान कर उसका पुनरुद्धार कर सके। प्रौद्योगिकियों के उपयोग से भी छोटे किसानों की कार्यक्षमता बढ़ाई जा सकती है और कृषि क्षेत्र को अधिक व्यवहार्य बनाया जा सकता है। पांच साल पहले, सरकार “मेक इन इंडिया”अभियान के तहत विनिर्माण क्षेत्र को पुनर्जीवित करने की बात कर रही थी। लेकिन यह पहल अब लगभग खत्म हो चुकी है। भारत को कृषि और विनिर्माण को पर्याप्त रूप से तैयार किए बिना मुक्त व्यापार समझौतों के बारे में बात नहीं करनी चाहिए। 

सभी सफल देशों, विशेष रूप से हमारे पूर्वी एशियाई पड़ोसियों, ने अपने उद्यमों को वैश्विक बना दिया है। इन देशों ने उन नीतियों का सही मिश्रण अपनाया है जिससे लाभ अधिक हुआ है। कई देश अब वैश्वीकरण से एक कदम पीछे हटकर अपनी घरेलू अर्थव्यवस्थाओं को लचीला बना रहे हैं। ब्रिटेन एकल यूरोपीय बाजार से बाहर निकलने की मांग कर रहा है। डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिकी राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद ही ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप, जो कि एक व्यापक मुक्त व्यापार समझौता था को अस्वीकार कर दिया। इसलिए, अब मुक्त व्यापार के मॉडल की व्यवहार्यता के बारे में प्रश्न पूछे जा रहे हैं। इस बात की प्रबल संभावना है कि दुनिया उस मॉडल की ओर अधिक बढ़ेगी, जिसे चीन ने विकसित किया है, जो उसकी घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत कर रहा है। वैश्विक अर्थव्यवस्था धीमी हो रही है। इस स्थिति में, अधिकतर देश भारत से महत्वपूर्ण लाभ उठा सकते हैं, क्योंकि यहां एक बड़ा बाजार है।

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)