भारत में श्रम कानूनों के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण अध्याय है - 1926 का ट्रेड यूनियन एक्ट, जिसके तहत उद्योगों में ट्रेड यूनियन के महत्वपूर्ण प्रावधान हैं। इसका अर्थ यह भी है कि श्रम कानूनों, नीतियों और प्रावधानों को कर्मचारियों के हितों में लागू करवाने वाला एक स्वायत्त निकाय अर्थात ट्रेड यूनियन होनी चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि निजीकरण और उदारीकरण के दौर से ही ऐसे निकाय कमतर होते रहे हैं। फ़िर श्रम प्रबंधन की नई शिक्षा और श्रम न्यायालयों की निरपेक्षता नें वास्तव में मज़दूरों और श्रमिकों के अधिकारों के सवाल को लगातार खारिज ही किया है।
महामारी के बाद अर्थतंत्र को मजबूत करने हेतु जिन नए श्रम सुधारों की घोषणा उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों ने की है, उसका एक महत्वपूर्ण नया संस्करण है वर्ष 1926 के ट्रेड यूनियन एक्ट की बाध्यता से उद्योगों को मुक्ति। कार्य की अवधि और कार्यदिवस में बढ़ोत्तरी भी नए घोषणाओं का अहम अंश है। असंगठित क्षेत्र में कार्य के अवधि और कार्यदिवस में बढ़ोत्तरी में कोई नयापन नहीं है, बल्कि इसका खास पक्ष है कि यह मान लिया गया है न्यूनतम मज़दूरी का नया ख़ाका सभी विषमताओं का अंतिम समाधान है। मान तो यह भी लिया गया है कि श्रमिकों के अधिकारों का रक्षक ट्रेड यूनियन नहीं वरन खुद कंपनियां और निजी उद्यम हैं।
भारत सहित दुनिया के अधिकांश मुल्क़ों में कार्य की अवधि और कार्यदिवस के संबंध में बने कानूनों का सारांश यही है कि 'किसी मजदूर अथवा श्रमिक' के लिये निर्धारित कानूनों और नीतियों का अनुपालन, ट्रेड यूनियन ही अधिक प्रभावी रूप से करवा सकते हैं। यह काल्पनिक प्रश्न हो सकता है कि यदि ट्रेड यूनियन ना हों तो श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा कौन करेगा। और इस यथार्थपरक प्रश्न का काल्पनिक उत्तर हो सकता है कि स्वयं संबंधित उद्योग, लेकिन इस यथार्थपरक प्रश्न का यथार्थपरक उत्तर है - स्वयं सरकार।
बकुल दास कोलकात्ता के एक दवा उत्पादन कंपनी में बरसों दिहाड़ी मजदूर रहे। बकुल बताते हैं कि साल में दो तीन दफा वे सब यूनियन की रैलियों में जाते थे। इस बात की तसल्ली लेकर लौटते थे कि अगले बरस तक सब कुछ ठीक हो जाएगा। समान मजदूरी और हकों के नारे कंपनी के गेट के बाहर ही रह गए। बिना जीते हम सब लड़ते रहे और फिर लड़ते-लड़ते बूढ़े हो गए। और फिर एक दिन दीवारों के नारे और रंग दोनों बदल गए।
छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक स्टील फैक्ट्री में काम करने वाला शीतल केरकेट्टा शायद थोड़ा अधिक दुर्भाग्यशाली रहा। ट्रेड यूनियन बने कुछ ही महीने हुए थे कि लीडर एक दिन संदिग्ध रूप से मारा गया। कंपनी में यूनियन के नेता लोगों की छंटनी कर दी गई। हमें समझ आ गया कि जो मजदूरी नसीब हो रही हमारा अधिकार बस उतना ही है।
भारत में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम बने लगभग 70 बरस हो गए। जब तक न्यूनतम मजदूरी के लिए संगठित संघर्ष की कमान नई पीढ़ी सम्हालती, तब तक 8 अगस्त 2019 को भारत सरकार द्वारा 'श्रम कानूनों में सुधार' का फरमान आ गया। वर्ष 2019 का नया 'मजदूरी कोड' एक ऐसी अबूझ पहेली है जिसके समर्थन और विरोध करने वाले दोनों ही भौंचक हैं। दरअसल न्यूनतम मजदूरी की बढ़ी हुई दर पहली नजर में आश्वस्त तो करती है, लेकिन 'मजदूरी कोड' के नए आवरण में - पेमेंट ऑफ वेजेस एक्ट 1936, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948, पेमेंट ऑफ बोनस एक्ट 1965 और इक्वल रेनुमेरशन एक्ट 1976 के महत्वपूर्ण प्रावधानों का पूरी तरह समावेश किए बिना समाप्त कर दिए गए। विशेषज्ञों के अनुसार 'मज़दूरी कोड' की असल परीक्षा लॉकडाउन और उसके बाद ही होना है।
बहरहाल श्रम मामलों की संसदीय समिति नें श्रम सुधारों के जिन नये पैमानों का निर्धारण किया है उनमें न्यूनतम मज़दूरी तो निःसंदेह बढ़ी है, किन्तु नई अनिश्चितताओं के साथ। वर्ष 2020 के प्रारंभ में लोकसभा को सौंपे अपने रिपोर्ट में समिति का मत है कि - भारत जैसे देश में प्राकृतिक आपदा की वज़ह से प्रभावित क्षेत्र में कंपनियों को अनिश्चित रूप से लंबे समय तक बंद रखना होता है; चूंकि इस दौरान कामबंदी होती है, इसीलिए कंपनी को अपने श्रमिकों को वेतन देने की बाध्यता नहीं होनी चाहिए। समिति का यह भी मानना है कि वर्तमान महामारी के आशंका से घोषित लॉक डाउन में कंपनियों को अपनें श्रमिकों को वेतन देने के लिये बाध्य न किया जाए।
झारखण्ड का सरयू विगत एक माह से औरंगाबाद में अपने 21 अन्य साथियों के साथ प्रतीक्षा कर रहा है कि काम कब शुरू होगा ताकि कुछ कमा-खा सकें। मध्यप्रदेश का छप्पनसिंह लोधी अपने 32 साथियों के साथ पुणे किसी कंपनी में मजदूरी के लिए गया, लेकिन काम और पैसे के अभाव में अब उसकी हिम्मत जवाब दे रही है। बिहार के चंदन राजबंसी अपने जिले के 10 श्रमिकों के साथ बैंगलोर के एक कारखानें में तथा असम के तिलक गोगोई भी चेन्नई के फैक्ट्री में विगत 45 दिनों से घर वापसी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। संयोग ही है कि इनमें से कोई भी नये 'मज़दूरी कोड' अथवा श्रम मामलों की 'संसदीय समिति' की रिपोर्ट के बारे में नहीं जानते हैं। उनकी आशंकायें केवल इतनी हैं कि आने वाली अनिश्चितताओं के नये दौर में उनके पक्ष में कौन खड़ा होगा।
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नये 'मजदूरी कोड' में जिस 'संतुलित भोजन' को न्यूनतम मजदूरी का मानक बनाया गया है उसका मानवीय विश्लेषण अभी शेष है। यदि न्यूनतम मजदूरी को संतुलित भोजन के लिए पर्याप्त मान भी लिया जाए तो इसका तार्किक अर्थ यही निकलता है कि - बिना इतनी मजदूरी हासिल किए बिना मजदूर परिवार के नसीब में संतुलित भोजन नहीं है। इसका अर्थ यह भी है कि उस तथाकथित संतुलित भोजन के लिये मजदूर को लगातार मजदूरी करनी ही पड़ेगी और इसका अर्थ यह भी होगा कि अब मजदूर की तलाश संतुलित भोजन होना चाहिए।
संतुलित भोजन का यह नया नारा अधिकारों की कई वास्तविकताओं को बदलने जा रहा है। छप्पन सिंह लोधी कहते हैं कि मजदूर, वास्तव में भरपेट भोजन इसलिए चाहता है ताकि वह कल की मजदूरी के लिए अपने शरीर को तैयार कर सके। फिलहाल तो लाखों श्रमिक इस बात से बेखबर हैं कि आने वाले महीनों में नये श्रम कानूनों का प्रभाव क्या होगा? क्या नये 'मजदूरी कोड' का सम्मान मंदी की मार से ग्रस्त उद्योग कर पायेंगे ? क्या खुलने वाले कंपनियों में ट्रेड यूनियन का अभाव उनकी आवाज को कमजोर कर देगा? और फिर महामारी से पनपी असुरक्षा के मध्य श्रमिकों अधिकारों के लिये आखिर कौन खड़ा होगा?
फिलहाल उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना लाखों श्रमिक अपने अपनें घरों की ओर पैदल चल पड़े हैं, ऐसे अनगिनत सवाल पीछे छोड़ते हुए।
(लेखक रमेश शर्मा एकता परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक हैं)