अर्थव्यवस्था

जल-जंगल-जमीन हमारा, नहीं चलेगा राज तुम्हारा, यहां गूंज रहे हैं ये नारे

ओडिशा के पुरी में चल रहे नेशनल अलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) के 12वें राष्ट्रीय सम्मेलन में जल-जंगल-जमीन के मुद्दे गूंज रहे हैं

DTE Staff

ओडिशा के पुरी में चल रहे नेशनल अलायंस फॉर पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम)के 12वें राष्ट्रीय सम्मेलन के दूसरे दिन (24 नवंबर) जल-जंगल-जमीन के मुद्दे गूंजे। पर्यावरण सुरक्षा समिति से लखन मुसाफिर ने कहा कि आज हमारी पहचान बदल गई है। दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति आज हमारी पहचान बन चुकी है। हमारी पूरी जमीन डुबोई जा चुकी है। हमारे पास रहने के लिए जगह नहीं है। हमारी गायों के पास चरने के लिए जगह नहीं बची है। हम बंधुआ मजदूर की स्थिति में पहुंच चुके हैं। हम गांव से बाहर नहीं निकल सकते। अब वह हमसे कह रहे हैं कि नर्मदा किनारा छोड़ दो क्योंकि उनको वहां कोई कॉलोनी बनानी है। हमारा इलाका जो बेहद शांत और सुंदर था अब हमारा नहीं लगता। सरदार सरोवर बांध में आमदनी और व्यय का कोई ब्यौरा नहीं है। पूरी परियोजना में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार चल रहा है। इस पर जब लोग विरोध करते हैं तो उन पर तमाम फर्जी केस लगाकर उन्हें जेल में डाला जा रहा है। 

आदिवासी सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश मीणा ने कहा कि राजस्थान के अरावली इलाके में हवा, पानी और हमारे प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा की लड़ाई चल रही है। ऐसी ही लड़ाइयां देश के हर कोने में चल रही हैं। हमारे पुरखों की लड़ाई के बाद जिस संविधान का निर्माण हुआ था आज पूरे देश में उसी संविधान का उल्लंघन किया जा रहा है। लेकिन इसके खिलाफ लड़ाई चल रही है। इसमें महिलाओं की एक बहुत बड़ी भूमिका है। हम पिछले सात सालों से सिर्फ महिलाओं के दम पर दो गांवों की जमीन को अधिग्रहण से बचा रखा है। उन्होंने कहा कि हमें सभी संघर्षों में भागीदारी निभानी होगी। चाहे वह कश्मीर की समस्या हो या पूर्वोत्तर की या सरदार सरोवर की, हमें हर लड़ाई में अपनी भूमिका निभानी होगी।

झारखंड से आलोका कुजूर ने कहा कि झारखंड पांचवी अनुसूची का इलाका है। यहां पिछले कई वर्षों से जल-जंगल-जमीन का कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ संघर्ष चल रहा है। इन संघर्षों पर भीषण दमन किया जाता रहा है। लेकिन अब दमन की रणनीति भी बदल रही है। अब सरकार लाठी गोली की नहीं रह गई है। अब यह सरकार सीधे संविधान का दुरुपयोग करते हुए संघर्षों को दबाने का प्रयास कर रही है। उन्होंने बताया कि झारखंड में चल रहे पत्थलगढ़ी के आंदोलन में लगभग 3,000 लोगों पर फर्जी मुकदमे लगाए जा रहे हैं। सरकार सभी पर देशद्रोह का आरोप लगा रही है। यह सब एक पांचवी अनुसूची के संवैधानिक अधिकार की मांग के बदले हो रहा है। आज झारखंड मॉब लिंचिग का गढ़ बन चुका है। लगभग 21 मामले अब तक लिंचिग के सामने आ चुके हैं। यह फासीवादी सरकार झारखंड में पूरी तरह से फैल चुकी है। आज सरकार न्यायालयों का इस्तेमाल कर रही है। हमारी सड़क से संसद तक की लड़ाई अब सड़क से न्यायालय तक हो चुकी है।

नियामगिरी संघर्ष समिति से सत्या महार ने कहा कि नियामगिरी का आंदोलन शुरू से ही शांतिपूर्वक व अहिंसा के साथ चल रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी नियामगिरी में खनन को रोक रखा है। लेकिन 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही हर रोज नियामगिरी आंदोलन के जुड़े लोगों पर झूठे केस लगाकर जेलों में डाला जा रहा है। सड़क चलते लोग उठाकर जेल में डाल दिए जाते हैं और बहुत दिनों तक उनके परिजनों को उनकी कोई खबर नहीं लगती। आंदोलन को जब भी कोई कार्यक्रम होता है तो प्रशासन कार्यक्रम नहीं करने देता बल्कि कार्यक्रम के आयोजकों पर माओवादी होने का आरोप लगाकर उन्हें जेल में डाल देता है। इस आंदोलन को देश के हर हिस्से से सहयोग मिला है। आज हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती अदालतों में चल रहे मुकदमे बन चुके हैं। हमारे पास न्यायालय में लड़ने के लिए पैसे नहीं है। भले ही सर्वोच्च न्यायलय ने वेंदाता को वहां जाने से रोक दिया है लेकिन अभी खतरा टला नहीं है। हमें इस आंदोलन को तब तक चलाना है जब तक हम पूर्ण जीत हासिल न कर लें। 

हिमाचल से मानसी अशर ने कहा कि हिमालय क्षेत्र में रह रहे समुदाय जमीन दरकने से लेकर भूस्खलन की समस्या से जूझ रहे हैं। इन इलाकों में जंगल बहुत बड़े पैमाने पर फैला हुआ है और लोगों का जीवन इन जंगलों पर निर्भर करता है। इसके साथ ही नदियां भी यहां का एक महत्वपूर्ण संसाधन है। लेकिन आज इन सभी संसाधनों की लूट चल रही है। अंग्रेजों ने यह कह कर हमसे जंगल छीन लिया कि आपको वन प्रबंधन नहीं आता। आज लगभग 30 प्रतिशत जंगली क्षेत्र में चीड़ के जंगल हैं जिनमें आग लगती है। और हमें चारा पंजाब से खरीदना पड़ता है। अंग्रेजों की यही व्यवस्था आज भी इस देश में लागू है। आज सरकार जंगलों में रह रहे लोगों को जिनका उन जंगलों पर अधिकार है, अतिक्रमणकारी बोल कर खदेड़ रही है। हम अपने कानूनों के लिए लड़ रहे हैं। हम वनाधिकार कानून के लिए लड़ रहे हैं। हम एक परियोजना के खिलाफ नहीं लड़ेंगे, हम जंगल पर अपने अधिकार के लिए लड़ेंगे। 

छोटे मछुआरों की लड़ाई लड़ रहे पश्चिम बंगाल से प्रदीप चटर्जी ने कहा कि इस देश में लगभग 60 लाख छोटे मछुआरे हैं जो करीब 110 लाख टन मछली पकड़ते हैं। लेकिन यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश के पास अभी तक मछुआरों के लिए कोई नीति नहीं है। मछुआरे पानी बर्बाद नहीं करते हैं वह पानी के संरक्षक हैं और इसका बहुत साधारण सा कारण है कि अच्छी मछली के लिए अच्छा पानी चाहिए। इसीलिए मछुआरे पानी के संरक्षण का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन इन मछुआरों का पानी पर कोई अधिकार नहीं हैं। किसान के पास अपनी जमीन होती है लेकिन मछुआरों का अपना पानी नहीं होता है। उनका कहना है कि बड़ी पर्यटन, रिवर लिंकिंग जैसी-जैसी बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में पानी का इस्तेमाल हो रहा है। इन परियोजनाओं में जल संसाधन नष्ट हो रहे हैं लेकिन मछुआरों को कोई सुविधा नहीं मिल रही है जो दरअसल पानी के संरक्षक हैं। लेकिन हम इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। हम छोटे-छोटे मछुआरों के हर परिवार को इस संघर्ष से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं। 

रायथु स्वराज वेदिके से आए किरण विस्सा ने कहा कि हम सभी जानते हैं कि हमारे देश में खेती-किसानी बहुत बड़ी संकट में है। अगर हम इस संकट से जुड़ने और उसको बचाने के लिए आवश्यकता है। हमको यदि खेती को बचाना है तो उसके विभिन्न पहलुओं पर ध्यान देना होगा। सबसे बड़ी चुनौती है खेती की जमीन को बचाना। इसके लिए हमें विस्थापन के खिलाफ सशक्त लड़ाई खड़ी करनी पड़ेगी। खेती के संसाधनों में जमीन के साथ-साथ बीज का भी एक अहम हिस्सा है। हमारे देश में खेती के कॉर्पोरेटीकरण में जो सबसे ज्यादा संसाधन प्रभावित हो रहा है वह बीज का है। हमारे देश में निजी बीज कंपनियों का व्यापार 10 हजार करोड़ का है और यह पैसा किसानों की जेब से जा रहा है। इन बीज कंपनियों को रोकना बहुत महत्वपूर्ण है। इसके अलावा हमें आर्थिक संसाधनों के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ेगी। कर्ज में डूबे किसानों की बढ़ती आत्महत्या को रोकने के लिए हमें रणनीति बनानी होगी। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने सत्ता मे आने से पहले स्वामीनाथन कमीशन को लागू करने और न्यूनतम सहयोग राशि दिलाने का वायदा किया था लेकिन सरकार में आते ही वह बदल गए बल्कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में कह दिया कि हम नहीं कर सकते। यह धोखा किसानों के साथ सरकार हमेशा से करती आ रही है।

एपीवीवीयू से आए चेंनैया गारू ने कहा कि हमें आज यह निर्णय लेना होगा कि हम फासीवादियों को देश में खेलने नहीं देंगे। हम इस देश के श्रमिक हैं, हम लाभार्थी नहीं है। हम इस देश की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान दे रहे हैं। जो असल में लाभार्थी हैं वह वे हैं जिनका अर्थव्यवस्था में कोई योगदान नहीं है। खुद को श्रमिक के रूप में न पहचानना ही इस देश के पूंजीपतियों को फायदा पहुंचा रहा है। इसी के दम पर वह देश के श्रम कानून बदल पा रहें हैं ताकि वह मेहनत को और लूट सके। हमें इस लूट के खिलाफ एकजुटता के साथ संघर्ष खड़ा करना होगा।

पार्था सारथी राय ने कहा कि आज देश की आर्थिक स्थिति बदतर स्थिति में पहुंची हुई है। पिछले सालों में बेरोजगारी अपने चरम पर पहुंची हुई है। 2000 से 2010 तक चले जल-जंगल-जमीन के संघर्षों की वजह से कुछ जनपक्षीय कानून बने लेकिन वह कानून आज भी लागू नहीं हो पाए हैं।