हाल के दिनों में भारत के कृषि क्षेत्र ने सभी गलत कारणों से सुर्खियां बटोरीं हैं। खेती छोड़ रहे हैं किसान; किसानों को खेती से लगातार घाटा हो रहा है; और सरकारी नीतियों का मकसद कृषि पर निर्भरता कम करना है, ताकि सबसे गरीब लोगों की आर्थिक परेशानी को कम किया जा सके। कृषि का तेजी से घटता आर्थिक महत्व इस हद तक पहुंच गया है कि अर्थशास्त्री सुझाव देने लगे हैं कि अब भारत गैर गैर-कृषि अर्थव्यवस्था में बदल चुका है, इसलिए खेती छोड़ना बेहतर, ताकि जो लोग खेती कर रहे हैं, उनका भविष्य बेहतर हो सके।
लेकिन सितंबर की पहली छमाही में दो समाचारों ने हमें भारतीय खेती और किसानों के प्रति अपनी इन धारणाओं को बदलने के लिए मजबूर किया। पहला समाचार था, चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून, 2020) में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के बावजूद कृषि क्षेत्र में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि। कृषि क्षेत्र में यह वृद्धि रबी या सर्दियों की फसलों पर आधारित थी, जो वैसे भी भरपूर थी। दूसरा समाचार था, खरीफ या मानसून की फसल की रिकॉर्डतोड़ बुआई। इस साल अब तक लगभग 109.5 मिलियन हेक्टेयर में बुआई हो चुकी है, जिससे चार साल का रिकॉर्ड टूट गया।
अब, कठिन सवाल: किसान इससे कितना कमाएंगे? पिछले पखवाड़े अपने एक लेख में हमने बताया था कि तब तक जीडीपी और खरीफ की बुआई के आंकड़े नहीं आए थे कि उत्पादन के आंकड़ों से किसान खुश नहीं हैं। अब तक जो भी संकेत मिल रहे हैं, उससे लगता है कि निवंश और आमदनी के हिसाब से देखा जाए तो भारतीय किसानों के लिए आने वाला समय सबसे अधिक नुकसान देने वाला होगा।
आमतौर पर यह माना जाता है कि फसल का उत्पादन बढ़ने से किसानों की आमदनी बढ़ती है, लेकिन हाल के वर्षों में हमने फसल उत्पादन और किसानों की आय के बीच कोई संबंध नहीं देखा है। उदाहरण के लिए 2016-17 की स्थिति को लें। यह वह वर्ष है जब खरीफ सीजन में रिकॉर्ड उत्पादन हुआ था, जिसे इस साल (2020-21) में पार किया गया है। उस वर्ष फसल का उत्पादन मूल्य 5.9 प्रतिशत बढ़ा था, जो हाल के वर्षों के मुकाबले सबसे अधिक था। लेकिन हाल ही में जारी राष्ट्रीय खाता सांख्यिकी के अनुसार 2016-17 में किसानों की आय में वास्तविक वृद्धि दर्ज नहीं की गई।
दूसरे, कृषि के लिए थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) उस मूल्य के बारे में बताता है, जिस पर किसान अपनी उपज बेचते हैं। यह एक संकेत होता है कि किसान कितना कमा सकते थे। यह जितना अधिक होता है, किसानों के लिए आय उतना ही अधिक है। लेकिन पहली तिमाही में खाद्य वस्तुओं का डब्ल्यूपीआई 2.1 प्रतिशत था। पिछले साल की पहली तिमाही में यह 7 फीसदी थी। इसका मतलब यह है कि किसानों को उनकी बंपर रबी फसलों से अच्छा लाभ नहीं मिला है।
क्या इसका मतलब खरीफ सीजन में भी यही होगा? इसका उत्तर होगा: "हाँ", भले ही अन्य कारणों से हो। उत्पादन बंपर होगा, लेकिन सरकार पहले ही अपने भंडार में से कोविड-19 राहत पैकेज के हिस्से के तौर पर सस्ता खाद्यान्न वितरण कर रही है। खाद्यान्न से पहले ही भंडार भरे हुए हैं। इस वजह से बाजार, किसानों पर अपनी उपज की कीमत करने के लिए दबाव बनाएगा। दूसरी ओर, खाद्यान्नों की भारी मांग भी नहीं हो सकती है, क्योंकि महामारी से होने वाली आय में नुकसान के कारण सामान्य रूप से क्रय शक्ति कम हो जाएगी। इससे खाद्य कीमतों में गिरावट आएगी। इसका सीधा सा अर्थ है कि फसल के उत्पादन या कृषि विकास दर में जितनी वृद्धि होती है, उसके हिसाब से किसानों की आमदनी नहीं हो रही है।
जैसे कि खाद्य पदार्थों पर एक उपभोक्ता जितना खर्च करता है, उसमें से किसान को बहुत कम मिलता है। कभी-कभी तो 66 फीसदी से भी कम और अगर फल व सब्जी की बात करें तो किसानों को 20 फीसदी से भी कम हिस्सा मिलता है।
हाल के वर्षों के आधिकारिक आंकड़ें बताते हैं कि खेती से किसानों की आय में वृदि्ध हुई है। लेकिन इसके कारण दूसरे हैं। 2004-05 से 2011-12 के दौरान कृषि आय में वृद्धि वास्तविक आय में वृद्धि के कारण नहीं हुई, बल्कि 2004-05 में किसानों की संख्या 16.7 करोड़ थी, जो 2011-12 में घटकर 14.6 करोड़ हो गई। इसे वास्तविक वृदिध् नहीं कहा जा सकता।
जैसा कि संभावना है कि खरीफ सीजन में किसानों को नुकसान हो सकता है, यह एक अशुभ संकेत हैं। क्योंकि किसानों को रबी के सीजन के मुकाबले खरीफ सीजन में कमाई ज्यादा होती है। मध्य भारत और उत्तरी पहाड़ी क्षेत्रों में किसानों को रबी सीजन में कमाई न के बराबर होती है और वे पूरी तरह खरीफ सीजन पर निर्भर रहते हैं। सर्दियों में होने वाली उपज को नगदी फसल माना जाता है और खरीफ सीजन में होने वाली कमाई को रबी सीजन में निवेश के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे में, अगर खरीफ में आमदनी कम होती है तो रबी की बुआई प्रभावित हो सकती है। जिसका असर अगले सीजन में होने वाली कमाई पर पड़ेगा और इस तरह नुकसान का दुष्चक्र शुरू हो जाएगा।
मौजूदा रिकॉर्ड तोड़ खरीफ सीजन में किसानों द्वारा निवेश कितना हो सकता है? वैसे तो भारत में कृषि पर होने वाले निवेश का अनुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन हम किसानों द्वारा निवेश का अनुमान लगाने के लिए राज्य-विशेष आंकड़ों का उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, बिहार में, एक किसान धान की लागत के रूप में 14,310 रुपए हेक्टेयर निवेश करता है। वर्तमान में देश में 3.96 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर धान की खेती की जाती है। बिहार के किसान की लागत को पूरे देश में लागू करें तो लगभग 56,668 करोड़ रुपए सिर्फ धान के लिए निवेश किया जा रहा है। हालांकि उपरोक्त लागत का आधार वर्ष 2015-16 है। लेकिन यदि इतना निवेश करने के बाद इससे ज्यादा आमदनी नहीं होती है तो किसान कर्ज के बोझ में दब जाता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि किसान अपने निवेश का 50 फीसदी हिस्सा कर्ज लेकर करता है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में यह आंकड़ा 90 प्रतिशत तक जाता है।
इसलिए, कोरोना महामारी के इस दौर में जिन किसानों ने अपनी उपज के माध्यम से एक असाधारण काम किया है, उन्हें अभी भी तीन तरह के खतरे झेलने पड़ सकते हैं। एक, अपनी उपज को बेचने का खतरा; दूसरा, कम रिटर्न का जोखिम और तीसरा, बढ़ता कर्ज। भारतीय किसानों के लिए यह एक सामान्य कहानी है। लेकिन गैर कृषि कार्यों से होने वाली आमदनी के स्त्रोत (जैसे दैनिक मजदूरी आदि) कम होने से बंपर उत्पादन के बावजूद किसानों के लिए यह घातक वर्ष साबित हो सकता है।