अर्थव्यवस्था

खुशहाली मापने का आधार नहीं है बढ़ती जीडीपी

Richard Mahapatra

अर्थव्यवस्था के मापक के रूप में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) कितना प्रभावी है? इस कॉलम में यह बहस लंबे समय से जारी है। अब दुनियाभर में खुशहाली के मापक के रूप में जीडीपी को शंका की नजर से देखा जा रहा है। भारत के उदाहरण से भी इसे समझा जा सकता है। हाल में स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों ने भारत की उच्च जीडीपी दर के दावे पर सवाल खड़े किए हैं। इसके अलावा यह बहस भी जारी है कि इतनी ऊंची आर्थिक विकास दर के बाद भी संपन्नता क्यों नजर नहीं आ रही है। भारत में अब भी 22 करोड़ गरीब है और बेरोजगारी की दर बहुत ज्यादा है।

इसी समय एक समानांतर घटना और हो रही है। बहुत सी राज्य सरकारों ने लोगों की खुशहाली पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। दिल्ली में खुशी और खुशहाली स्कूल के विषय हैं। हमारा पड़ोसी देश भूटान लोगों के विकास के लिए खुशहाली सूचकांक पर महारत हासिल कर चुका है।

इन दो घटनाक्रमों से एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि आखिर क्यों अर्थव्यवस्था के परंपरागत मापक से लोगों के समग्र विकास की झलक नहीं दिखाई देती? यूनाइटेड नेशंस एनवायरमेंट प्रोग्राम (यूएनईपी) के मुख्य पर्यावरण अर्थशास्त्री पुष्पम कुमार के पास अपने तर्क हैं। उनसे हुई बातचीत पर आने से पहले मैं उनके काम से परिचित कराना चाहूंगा। वह कई सालों से अर्थव्यवस्था को मापने के तरीके में बदलाव लाने की दिशा में लगातार सक्रिय हैं। उन्होंने 140 देशों को समावेशी संपन्नता मापने के लिए तैयार किया है। उन्होंने देश की संपन्नता लोगों की आमदनी के बजाय सामाजिक, पारिस्थितिकी और स्वास्थ्य के नजरिए से मापने पर जोर दिया है। इनक्लूसिव वेल्थ रिपोर्ट प्रकाशित करने में भी उनकी अग्रणी भूमिका है। यह रिपोर्ट 2018 में प्रकाशित हुई थी।

पुष्पम ने मुझे बताया कि हम संपत्ति और आय के बीच उलझ जाते हैं। ये दोनों लोगों की आर्थिक खुशहाली और पूंजी को प्रदर्शित करने के अलग-अलग माध्यम हैं। वह बेहिचक मानते हैं, “जीडीपी आय का मापक है, संपत्ति का नहीं। जीडीपी से देश की वस्तुओं और सेवाओं का मूल्य पता चलता है। यह प्राकृतिक, भौतिक और मानवीय संपत्ति की जमा पूंजी को नहीं दिखाता। अगर अर्थव्यवस्था का अंतिम लक्ष्य खुशहाली को बढ़ावा देना होगा तो जीडीपी मनुष्य की प्रगति का खराब मापक होगी।”

इनक्लूसिव रिपोर्ट एकमात्र ऐसी रिपोर्ट है जो वैश्विक खुशहाली के आधार पर इसके मापदंड पर नजर रखती है। इसमें देश के विकास को केवल जीडीपी से नहीं, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और पारिस्थितिक पूंजी के आधार पर परखा जाता है।

रिपोर्ट में 140 देशों के सर्वेक्षण में पाया गया है कि 44 देशों में 1998 के बाद प्रति व्यक्ति समावेशी पूंजी (इनक्लूसिव वेल्थ) आय में वृद्धि होने के बावजूद कम हुई है। इसका मतलब है कि जीडीपी आधारित आर्थिक विकास में तेजी के बाद भी देश की इनक्लूसिव वेल्थ में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि पर्यावरण को पहुंचे नुकसान के रूप में आर्थिक विकास हमें किस प्रकार प्रभावित करता है। इसीलिए यह जानकर हैरानी नहीं होनी चाहिए कि 1990 के बाद इनक्लूसिव वेल्थ में प्राकृतिक पूंजी की हिस्सेदारी कम हुई है, जबकि मानवीय और भौतिक पूंजी में लगातार बढ़ोतरी हुई है।

भारत में भी यह चलन देखा जा रहा है। 2005-15 दौरान जब लगभग सभी राज्यों में जीडीपी की औसत विकास दर 7-8 प्रतिशत थी, तब भी 11 राज्यों की प्राकृतिक पूंजी में गिरावट आई थी। इस दौरान 13 राज्यों में 0-5 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई और केवल तीन राज्यों की प्राकृतिक पूंजी में 5 प्रतिशत से अधिक वृद्धि देखी गई। आर्थिक विकास का यह मॉडल देश के दीर्घकालीन विकास के लिए उपयुक्त नहीं है।

संक्षेप में, इससे यह भी पता चलता है कि संपत्ति में भी असमानता बढ़ रही है। हम यह जानते हैं कि केवल मुट्ठी भर लोगों के पास ही अधिकतर आय क्रेंदित है। ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि देश प्राकृतिक पूंजी लगातार खो रहे हैं और निजी आय पुरानी लागत पर बढ़ रही है। ये प्राकृतिक संसाधन गरीबों की भी बड़ी पूंजी हैं। प्राकृतिक पूंजी से कुछ लोगों को तो आर्थिक फायदा पहुंचेगा, जबकि आर्थिक विकास के बावजूद गरीब पिछड़ जाएंगे।

(लेखक डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक हैं)