अर्थव्यवस्था

महंगाई से किसानों को नहीं मिलता फायदा, कहां रह जाती है कमी

खाद्य -पदार्थों के महंगे होने पर उपभोक्ताओं का खर्च बढ़ने के बावजूद मुर्गी पालकों और सब्जी उगाने वाले किसानों के हाथ में नहीं पहुंचता उनका हिस्सा

Richard Mahapatra

आमतौर पर खाद्य-पदार्थों की महंगाई सरकार का ध्यान खींचती है और वह उसे नियंत्रित करने के लिए उपाय भी करती है। उसके इस प्रयास से उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा होती है। हालांकि व्यापक रूप से यह माना जाता है कि खाद्य-पदार्थों के बढ़े हुए दामों से उत्पादकों यानी किसानों के हाथ में भी ज्यादा पैसा पहुंचेगा।

उपभोक्ता यह मानता है कि अगर वह अंडों, मुर्गियों के मांस और सब्जियों जैसे खाद्य-पदार्थों पर ज्यादा खर्च कर रहा है तो इनके उत्पादकों की आय भी बढ़ रही होगी। 2023 में नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन में, कोलंबो, श्रीलंका के अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) के शोधकर्ताओं ने दाम बढ़ने और गरीबी घटने के बीच एक संबंध पाया,  जिसके मुताबिक - ‘खाद्य-पदार्थों की वास्तविक कीमत में साल-दर-साल वृद्धि से (अधिक शहरी या गैर-कृषि देशों को छोड़कर), रोजाना 3.20 अमेरिकी डॉलर की गरीबी में कमी आने का अनुमान था।’

शोधकर्ताओं ने 2000-19 के दौरान 33 मध्यम आय वाले देशों की गरीबी दरों, खाद्य कीमतों में वास्तविक परिवर्तन और खाद्य उत्पादन वृद्धि के बीच सहसंबंध का अध्ययन किया - यह वह अवधि थी जिसमें 2007-08 और 2010-11 में दो प्रमुख वैश्विक खाद्य मूल्य वृद्धि देखी गई थी। उनका प्राथमिक शोध इसकी तलाश में था कि क्या ‘खाद्य-पदार्थों के दाम बढ़ने से किसानों और ‘खाद्य-पदार्थों के उत्पादन से जुड़े दूसरे लोगों की आय भी बढ़ती है। क्या यह सहसंबंध भारत के किसानों पर भी लागू होगा, खासकर ऐसे समय में जब खाद्य-पदार्थों की महंगाई दर काफी ज्यादा है।

अक्टूबर में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने पशुधन और मुर्गीपालन, सब्जियों और दालों की महंगाई पर तीन कार्य-पत्र जारी किये। बिना इस तथ्य की गहराई में गए कि इन तीनों श्रेणियों में इतनी महंगाई क्यों दर्ज की गई, यक कार्य-पत्र इसका आकलन करते हैं कि उपभोक्ता इन खाद्य-पदार्थों पर जितना खर्च करते हैं उसका कितना फीसदी हिस्सा उत्पादकों या किसानों की जेब तक पहुंचता है। दरअसल यह अनुमान लगाने का एक तरीका है कि क्या खाद्यान्न की ऊंची कीमत का मतलब किसानों की उच्च आय भी होगी।

जहां तक पशुधन का सवाल है (कार्य-पत्र में डेयरी, अंडों और मुर्गी के मांस का परीक्षण किया गया) तो डेयरी और अंडों पर एक उपभोक्ता जितना खर्च करता है उसका क्रमश: 70 और 75 फीसदी हिस्सा किसानों तक पहुंचता है। मुर्गी के मांस के मामले में यह आकलन 56 फीसदी है। टमाटर, प्याज और आलू के मामले में यह क्रमशः33, 36 और 37 फीसदी है।

दालों पर एक उपभोक्ता प्रति ग्राम जितना खर्च करता है, 75 फीसदी हिस्सा उस दाल को उगाने वाले किसानों तक जाता है - मूंग दाल के मामले में यह 70 फीसदी है तो तूर दाल के मामले में 65 फीसदी। इस तरह से देखें तो मुर्गियों के मांस और सब्जियों के, दो खंड ऐसे हैं, जिनमें उपभोक्ताओं द्वारा खर्च किए जाने वाले दाम का उचित हिस्सा किसानों तक नहीं पहुंच रहा है।

ज्यादातर बार, किसानों को जो मिलता है, उससे वे अपनी लागत भी नहीं निकाल पाते। मुर्गियों के मांस और सब्जियों की मांग में उपभोक्ताओं की ओर से दर्ज करने लायक मांग बढ़ी है। इन दोनों खंडों में हाल के समय में दामों में भी तेजी देखी गई है। दूसरे शब्दों में कहें तो, ऐसे व्यापार में जहां किसानों को शुरू में बाजार मूल्य से कम मिलता है, वहां किसी भी मूल्य वृद्धि से उनकी आय में वृद्धि नहीं होगी।

हाल के पर्यवेक्षणों में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के कार्य-पत्र में एक उक्ति है - ‘बरसात के मौसम में, जब कीमतें उत्पादन लागत से भी नीचे गिर जाती हैं, तो किसान अक्सर अपनी फसल को फेंक देते हैं या मजबूरी में उसे बेच देते हैं। दूसरी ओर, कम उत्पादन वाले सीजन में उपभोक्ताओं का बढ़ी हुई कीमतों का दबाव झेलना पड़ता है।  टमाटर-प्याज और आलू की तेजी और मंदी का यह चक्र, अपर्याप्त बाजार-तंत्र और बेहतर तरीके से संचालित होने वाली मूल्य-श्रंखला की कमी की वजह से है, जिसमें किसानों को जो मिलता है और उपभोक्ता जिसका भुगतान करते हैं, उसमें अंतर बढ़ता जा रहा है।’