अर्थव्यवस्था

बिहारी मजदूरों की नियति बन गया है पलायन

Umesh Kumar Ray

"शहर में मजदूर जैसा दर-ब-दर कोई नहीं,

जिस ने सब के घर बनाए उसका घर कोई नहीं "

-अज्ञात

कोरोनावायरस को लेकर देशभर में जब लॉकडाउन शुरू हुआ, तो मध्यमवर्ग घरों में रहकर खुद को व्यस्त रखने के टिप्स दे रहा था। ठीक उसी वक्त लाखों मजदूर सैकड़ों किलोमीटर की दूरी पैदल मापने के लिए गठरी उठाए सड़कों पर चल रहे थे। इनमें कुछ रास्ते में ही मर-खप गए। कुछ घर लौटे और कुछ अब भी चल रहे हैं।

सनद रहे कि ये वो मजदूर हैं, जो शहरों को बसाते हैं, दुनिया को आबाद करते हैं। लेकिन, जब लॉकडाउन हुआ तो उसी शहर, उसी दुनिया ने इन्हें दुत्कार दिया। ऐसे में उन्हें याद आई अपनी मिट्टी की, जो उन्हें दो जून की रोटी न दे सकी। वे सामान और बच्चों को कंधे पर बिठाए लौटने लगे अपने घर। इनमें एक बड़ी आबादी बिहारी कामगारों की थी।

उत्तर प्रदेश के बाद बिहार देशभर में सबसे सस्ते मजदूर मुहैया कराने वाला दूसरा बड़ा राज्य है। बिहार मूल के लगभग 36.06 लाख लोग महाराष्ट्र, यूपी, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब और असम में रहते हैं। ये बिहारी मजदूर कई बार दूसरे राज्यों में हिंसा का शिकार हुए और डर कर बिहार लौटे, लेकिन बिहार सरकार इनके लिए रोजगार मुहैया नहीं करा सकी, नतीजतन इन्हें वापस उन्हीं राज्यों का रुख करना पड़ा, जहां से ये भागे थे।

साल 2018 में जब गुजरात में बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़की थी और मवेशियों की ट्रेन के डिब्बों में भरकर ये लौटने लगे थे, तब सीएम नीतीश कुमार ने कहा था, “मैं गुजरात में रह रहे बिहार के लोगों से अपील करता हूं कि वे जहां हैं, वहीं रहें, भले कोई भी घटना हुई हो।”

इसी तरह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लगे अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते घाटी में रहने वाले मजदूर 100-150 किलोमीटर तक पैदल चलकर रेलवे स्टेशनों तक पहुंचे थे और किसी तरह घर लौटे। उस वक्त भी न तो बिहार सरकार ने उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने का इंतजाम किया और न ही आश्वासन दिया कि गृह राज्य में ही उनके लिए नौकरी का इंतजाम किया जाएगा।

अब जब लॉकडाउन के कारण बिहारी कामगार दूसरे राज्यों में फंसे हुए हैं और बिहार सरकार से मदद की गुहार लगा रहे हैं, तो फिर एक बार सरकार की असंवेदनशीलता जाहिर हुई है। बिहार सरकार ने फंसे हुए कामगारों को राज्य में लाने की व्यवस्था करने के बजाय नियमों का हवाला देकर कहा कि लॉकडाउन नियमों का उल्लघंन कर वे दूसरे राज्यों में फंसे बिहार के लोगों को नहीं ला सकते हैं। नीतीश कुमार ने यही बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ हुई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में भी कही थी और नियमों में ढील देने को कहा था।

जानकारों के मुताबिक, नीतीश कुमार असल में फंसे हुए लोगों को लाना ही नहीं चाह रहे थे, इसलिए नियम का हवाला दिया था। उन्हें लगा था कि केंद्र सरकार नियमों में ढील नहीं देगी, तो वह कह सकेंगे कि नियम में ढील नहीं मिलने से वह लोगों को ला नहीं सके। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। गृह मंत्रालय ने 29 अप्रैल को अधिसूचना जारी कर फंसे हुए लोगों को लाने की इजाजत दे दी, लेकिन इस शर्त के साथ कि उन्हें लाते वक्त सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करना होगा।

बिहार सरकार में डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने 30 अप्रैल को जानकारी दी कि दूसरे राज्यों में फंसे बिहार के 17 लाख लोगों के अकाउंट में एक-एक हजार रुपए की सहायता राशि भेजी जा चुकी है। इसका मतलब है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार के 17 लाख लोग दूसरे राज्यों में फंसे हुए हैं।

गृह मंत्रालय की अधिसूचना के मुताबिक, सड़क मार्ग से बस से लोगों को ले जाया जा सकता है। अगर, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए इन 17 लाख लोगों को बस (एक बस में अगर 20 लोगों को बैठाया जाए) से लाना हो, तो कम से कम 85 हजार बसों की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में सवाल ये है कि क्या बिहार सरकार के पास इतनी बसें हैं? इस सवाल का जवाब खुद डिप्टी सीएम सुशील मोदी ने दे दिया है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि इतने लोगों को लाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त बसें नहीं हैं। इस बीच केंद्र सरकार ने कामगारों की अपने गृह राज्य मंत्री वापसी के लिए विशेष ट्रेन चलाने का फैसला लिया है। पहली ट्रेन एक मई को तेलंगाना से झारखंड के लिए रवाना हुई है।

इधर, बिहार सरकार ने कहा है कि फंसे हुए मजदूरों को वापस लाने के लिए एक कमेटी गठित की गई है। अब देखने वाली बात ये होगी कि सरकार मजदूरों को लाती है कि उन्हें उनके हाल पर छोड़ देती है। लेकिन, मजदूरों के लिए सिर्फ लौट जाना समस्या का समाधान नहीं है। रोजगार उनके लिए ज्यादा अहम है और इस फ्रंट पर सरकार कुछ करती हुई नहीं दिख रही है।