अर्थव्यवस्था

प्रवासी मजदूरों का मददगार बना एकता परिषद

Anil Ashwani Sharma

दिल्ली के वजीराबाद पुल से गाजियाबाद की ओर जाने वाली बाईपास रोड पर तीन परिवार एक-दूसरे के पीछे एक चल रहे हैं। इनमें से एक शख्स अपने फोन पर जोर-जोर से कह रहा है कि हम दिल्ली पहुंच गए हैं। बस आज रात कहीं आराम करेंगे और कल सुबह फिर चल पड़ेंगे। वह आगे कहता है कि अभी तो मैं नहीं बता सकता है कि कब तक पहुंचूंगा लेकिन पहुंच जरूर जाऊंगा। ये हैं रामवीर और जो पिछले 19 दिन से पैदल चलकर मथुरा से दिल्ली पहुंचे हैं। उन्हें कानपुर देहात जाना है। अब भी सैकड़ों किलोमीटर का सफर बचा हुआ है। पूछने पर कि आप किससे बतिया रहे हैं, वह कहते हैं, भला हो उस संगठन का जिसने हमारे फोन में 100 रुपए का बैलेंस डलवा दिया, नहीं तो घर वालों को बता ही नहीं पाते कि हम मर गए या जिंदा हैं। पूछने पर कि उस संगठन ने क्या केवल बैलेंस ही डलवाया और किसी प्रकार की मदद नहीं की? इस पर रामवीर ने कहा सूखा राशन भी 15 दिन का दिया था लेकिन अब खत्म हो गया है। यह एक रामवीर की बात भर नहीं है। इस प्रकार के प्रवासी मजदूर अपने-अपने घरों की ओर डग भरते जा रहे हैं। 

देश के 20 राज्यों में भूमिहीनों के बीच काम करने वाले एकता परिषद ने विभिन्न राज्यों में फंसे लगभग 45 हजार मजदूरों की सूची बनाई है। परिषद के राष्ट्रीय समन्वयक रमेश शर्मा ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हम तीन स्तरों पर श्रमिकों की मदद कर रहे हैं। पहला हमने अपने संगठन के माध्यम से देशभर के उन इलाकों में जहां मजदूरों की हालात अत्यंत दयनीय है, वहां पंद्रह दिन का सूखा राशन दे रहे हैं। दूसरा हम राज्य सरकारों के साथ मिलकर दूसरे राज्यों में फंसे श्रमिकों को उनके घर पहुंचाने में भी मदद कर रहे हैं। अब तक हमने मध्य प्रदेश सरकार को इस संबंध अपनी सूची दी है। और कई राज्यों सरकारों के साथ बातचीत कर रहे हैं। तीसरे स्तर पर हम अपने कार्यकर्ताओं के माध्यम से उन श्रमिकों के फोन में 100 रुपए से लेकर 200 रुपए का बैलेंस भी डलवा रहे हैं ताकि वे अपने घर परिवार को अपनी कुशलक्षेम बता सकें।

एकता परिषद मुख्य रूप से भूमिहीनों के बीच काम करता है। एकता परिषद के संस्थापक पीवी राजगोपाल ने डाउन टू अर्थ को अर्मेनिया से (लॉकडाउन के कारण पिछले डेढ़ माह से वहां से फंसे हुए हैं) बताया कि अगर हम विस्थापित होने वाले मजदूरों का बड़ा वर्ग देखें तो ये वही हैं जिनके पास अपनी जमीन नहीं है। जो भूमिहीन होने के कारण आजीविका और रोजगार की तलाश में दूसरी जगह विस्थापित हो जाते हैं। वह बताते हैं, कोविड-19 महामारी के बाद लॉकडाउन की स्थिति आई तो हमें उन मजदूरों का खयाल आया जो दूसरे सूबों में या अपने सूबे के किसी और जगह पर काम करते हैं। उनके पास किसी तरह का साधन नहीं है। वे अपने घर लौटना चाह रहे हैं लेकिन लौट नहीं पा रहे हैं। हमें लगा कि तत्काल इनकी मदद करनी चाहिए। हमारी कोशिश है कि जिनके पास राशन नहीं है, उन्हें राशन दें और जो किसी भी तरह लौट के आना चाह रहे हैं, उनके लिए इंतजाम करें। 

संगठन के समन्वयक ने बताया कि लॉकडाउन का एलान होते ही पहले हमने सूची बनाई कि कौन-कौन लोग हैं जो लौटकर आ गए हैं। दो दिन के अंदर हमने ऐसे 14 से 15 हजार लोगों की निशानदेही की जो मजदूर वर्ग में आते हैं। कुल 20 राज्यों में एकता परिषद काम करता है। वह बताते हैं कि मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, मणिपुर, राजस्थान, केरल, तमिलनाडु जैसे राज्यों में हमने तेजी से सूची पर काम किया है। यह काम अभी जारी है। 

परिषद की पहली कोशिश थी कि इस बात की सटीक सूचना हासिल की जाए कि कहां से मजदूर निकले हैं और कहां फंसे हैं। मोबाइल के जरिए गूगल सर्वे शुरू कर उनके बारे में तत्काल जानकारियां इकट्ठी करनी शुरू की गई। परिषद ने अब तक ऐसे 45 हजार लोगों की सूचना एकत्रित की है जो भारत के करीब 20 राज्यों में फैले हुए हैं। अब तक संगठन ने लगभग 13 हजार परिवारों तक मदद पहुंचाई।

संगठन के अनुसार जो श्रमिक फंसे हुए हैं, उन्हें तीन तरह की श्रेणी में विभाजित किया। पहला तो जहां फंसे हैं, वहां के नोडल अधिकारी से संपर्क कर उन तक मदद पहुंचाई जाए। ऐसे कुछ मामलों में सफलता भी मिली। आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे राज्यों में जहां एकता परिषद काम नहीं करती है, इन राज्यों में काम करने वाले जनसंगठनों से संपर्क कर मदद पहुंचाई गई। इसके अलावा संगठन ने तीसरा तरीका निकाला कि जो लोग संपर्क में हैं, सीधे उनके खाते में पैसा भेज दें जिससे वे दुकान से सामान ले सकें। मुख्य तौर पर इन तरीकों को अपना कर संगठन 13 हजार श्रमिक परिवारों तक पहुंचा है।

संगठन का कहना है कि लगभग 30 प्रतिशत श्रमिक ही वापस आ पाए हैं, 60 फीसदी से ज्यादा लोग अब भी फंसे हैं। संगठन ने अपनी सूची राज्य सरकारों के साथ साझा करनी शुरू की है। मध्य प्रदेश के श्योपुर, उत्तर प्रदेश के झांसी के 255 परिवार राजस्थान के फलौदी में फंसे हुए थे। दोनों राज्य सरकारों को इनके बारे में जानकारी साक्षा की तो सकारात्मक नतीजा निकला कि इनमें से ज्यादातर लोग वापस आ गए हैं। अब संगठन ज्यादा से ज्यादा राज्य सरकारों के साथ अपनी सूची साझा कर रहा है। संगठन ने लंबी अवधि के लिए भी योजना बनाई है। इसके लिए स्थानीय प्रशासन से संपर्क कर घर लौटे मजदूरों को मनरेगा के तहत रोजगार दिलवाने की कोशिश शुरू की है। संगठन का कहना है कि अभी तक छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में यह शुरू भी हो चुका है। 

अंत में परिषद के समन्वयक रमेश कहते हैं कि देश में तीन ऐसे कानून हैं जो ढंग से लागू होते तो ऐसी विकट स्थिति ही नहीं पैदा होती। पहला, इंटर स्टेट माइग्रेंट वर्क्समैन एक्ट, यह अंतरराज्यीय प्रवासी मजदूरों का अधिनियम है। दूसरा अधिनियम है न्यूनतम मजदूरी कानून और तीसरा है बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास का कानून। इन तीनों कानूनों का खुला उल्लंघन हो रहा है। न उन्हें न्यूनतम मजदूरी मिलती है, न उन्हें प्रवासी कानून के दायरे में कोई सुविधा दी जाती हैं। ईंट-भट्ठे जैसी जगहों पर जहां बंधुआ मजदूरी होती है, वहां हालत काफी खराब हैं। इन तीनों कानूनों के लिए जो शासकीय प्रावधान हैं और जो जिम्मेदार संस्थाएं हैं वो नाकाम साबित हो रही हैं।