बाल मजदूरी समाज के लिए ऐसा अभिशाप है जो आने वाली नस्लों का जीवन बर्बाद कर रहा है। जिस उम्र में बच्चों को खेलना और पढ़ना चाहिए उस उम्र में वो मजदूरी करने को मजबूर हैं। यह समस्या कोई आज की नहीं है, वर्षों से चली आ रही है। जिसे कोरोना महामारी ने और बढ़ा दिया है।
हाल ही में ह्यूमन राइट वाच द्वारा जारी नई रिपोर्ट 'आई मस्ट वर्क टू ईट' से पता चला है कि नेपाल, घाना और युगांडा में इस महामारी ने न केवल बच्चों को मजदूर बना दिया है, बल्कि साथ ही उन्हें ऐसा काम करने तक को मजबूर कर दिया है, जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। उसपर भी कई घंटों की कड़ी मशक्कत और मेहनत करवाने के बाद भी उन्हें बहुत कम मजदूरी दी जा रही है। हालांकि यह रिपोर्ट सिर्फ तीन देशों के बच्चों पर किए गए अध्ययन पर आधारित है, पर इसने एक बार फिर से हमारे समाज की उस कड़वी सच्चाई को उजागर कर दिया है, जो दिखाता है कि आज भी दुनियाभर में बच्चों का शोषण किया जा रहा है।
इससे पहले आइएलओ और यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट में भी आशंका जताई गई थी कि कोरोनावायरस के कारण आया आर्थिक संकट लाखों बच्चों को बाल मजदूरी के दलदल में धकेल देगा, जिससे उनका भविष्य अंधकारमय हो सकता है।
रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 के कारण आए आर्थिक संकट ने बच्चों को बाल मजदूरी करने के लिए मजबूर कर दिया है। साथ ही स्कूलों के बंद होने और पर्याप्त सरकारी सहायता की कमी ने भी इनकी संख्या में इजाफा किया है।
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने घाना, नेपाल और युगांडा बाल मजदूरी कर रहे 81 बच्चों का इंटरव्यू भी लिया है। इनमें से कुछ बच्चे तो महज आठ वर्ष के थे। यह बच्चे ईंट भट्टों, कालीन बनाने वाले कारखानों, सोने और पत्थर की खदानों, मछली पालन और कृषि जैसे कामों में संलग्न हैं। वहीं कुछ मैकेनिक, रिक्शा चालक या निर्माण के काम में लगे थे, जबकि कुछ सड़कों पर सामान बेचते हैं।
इनमें से अधिकांश बच्चों ने माना कि इस महामारी और उसके कारण लगाए लॉकडाउन ने उनकी पारिवारिक आय को बुरी तरह प्रभावित किया है। उनके माता-पिता की नौकरी चली गई है, व्यवसाय बंद हो गए हैं, परिवहन पर लगे प्रतिबंधों के कारण बाजारों तक पहुंच ख़त्म हो गई है। साथ ही आर्थिक मंदी के चलते ग्राहकों नहीं हैं। इनमें से कई बच्चों तो ऐसे थे जो पहली बार मजदूरी कर रहे हैं। वहीं कुछ ने बताया कि उन्होंने काम करने का फैसला इसलिए लिया है क्योंकि उनके परिवार के पास पर्याप्त भोजन नहीं था। वहीं कुछ एक बार काम में लगने के बाद स्थिति सामान्य होने के बाद भी काम करते रहे।
एडीबी का अनुमान है कि कोरोनावायरस के चलते 24.2 करोड़ नौकरियां खत्म हो जाएंगी। यदि आम मजदूरों और कामगारों को देखा जाये तो उनको होने वाला कुल नुकसान करीब 90,79,800 – 1,36,19,700 करोड़ रुपए के बीच होगा। ऐसे में वो परिवार अपना गुजर बसर कैसे करेंगे यह एक बड़ी समस्या होगी।
घंटों काम करने के बाद भी नहीं मिलती पूरी मजदूरी
युगांडा में बाल मजदूरी कर रही 13 वर्षीय फ्लोरेंस ने बताया कि, “मैंने काम करना शुरू कर दिया क्योंकि हम बहुत बुरी तरह से प्रभावित थे। घर पर भूखे बैठा रहना और इंतजार करना कहीं ज्यादा कठिन था।“
वहां परिस्थितियां कितनी ख़राब है इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि युगांडा और घाना में सोने की खानों में काम करने वाले बच्चों ने बताया कि उनसे वहां अयस्क से भरे भारी बैग ले जाने से लेकर उन्हें हथोड़ों से तोड़ने, मशीनों को चलाने, जिनसे भारी मात्रा में धूल और धुंआ निकलता है, साथ ही जहरीले पारे का इस्तेमाल करने जैसे कामों में लगाया था। वहीं पत्थर की खानों में काम कर रहे बच्चों ने बताया कि उन्हें कई बार उन पत्थरों से चोटें लगी हैं साथ ही उससे निकलने वाले कणों ने उनकी आंखों को नुकसान पहुंचाया है।
बच्चों पर काम का कितना बोझ है उसे इस बात से समझा जा सकता है कि इनमें एक तिहाई से ज्यादा बच्चों ने माना कि वो हर दिन 10 घंटे काम करते हैं। वहीं कुछ तो हफ्ते के सातों दिन काम पर जाते हैं। वहीं नेपाल की कार्पेट फैक्ट्री में काम करने वाले बच्चों ने बताया कि वो दिन में 14 घंटे और उससे ज्यादा भी काम करते हैं।
उनसे कड़ी मेहनत करवाने के बावजूद भी उन्हें बहुत कम मजदूरी दी जाती है। उनमें एक चौथाई से ज्यादा बच्चों ने बताया कि उनके मालिक उन्हें तय मजदूरी से भी कम भुगतान करते हैं। यहां तक की कभी कभी उनकी मजदूरी भी रोक दी जाती है।
घाना में मछली ढोने का काम करने वाले एक 11 वर्षीय बच्चे ने बताया कि वो दिन में 11 घंटे काम करता है। इसके लिए उसे हर दिन करीब 2 से 3 सेडिस (भारतीय रुपए में 25 से 40 के करीब) मिलते हैं ।
रिपोर्ट के अनुसार स्कूल बंद होने की वजह से बाल मजदूरों की संख्या में इजाफा हुआ है। इनमें से अधिकांश बच्चों ने बताया कि उनकी घर पर ही शिक्षा प्राप्त करने की सीमित या बिलकुल पहुंच नहीं है। कुछ ने माना कि उनको स्कूलों में मिलने वाला मुफ्त भोजन नहीं मिल पा रहा है, जबकि कुछ ने स्थायी रूप से स्कूल छोड़ दिया है। वहीं कुछ ने स्कूल फिर से खुलने के बाद भी काम करना जारी रखा है।
बाल मजदूरी में इजाफे की एक बड़ी वजह माता-पिता की बीमारी, विकलांगता और मृत्यु भी है। यदि कोविड -19 से होने वाली कुल मौतों को देखें तो वैश्विक स्तर पर वो 35 लाख से ज्यादा हो चुकी है। इस महामारी के चलते हजारों बच्चों ने अपने माता-पिता को खो दिया है। जिसने असमय ही उनपर परिवार को चलाने की जिम्मेवारी आ गई है।
हालांकि इस महामारी से पहले की बात करें तो दुनिया भर में बाल मजदूरी उन्मूलन की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। यदि अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आइएलओ) द्वारा जारी आंकड़ों पर गौर करें तो 2000 में करीब 24.6 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी कर रहे थे। यह संख्या 2017 में घटकर 15.2 करोड़ रह गई थी। जिसका मतलब है कि इन 17 सालों की अवधि में करीब 9.4 करोड़ बच्चे बाल मजदूरी से मुक्त हो गए थे, पर इसके बावजूद करीब 7.3 करोड़ बच्चे ऐसे कामों को करने के लिए मजबूर थे, जिनमें खतरा कहीं ज्यादा है।
पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा बच्चे अफ्रीका में करीब 7.21 करोड़ बाल मजदूरी कर रहे हैं। इसके बाद 6.21 करोड़ एशिया पैसिफिक में, 1.07 करोड़ अमेरिका में, 55 लाख यूरोप और सेंट्रल एशिया में, और करीब 12 लाख बच्चे अरब देशों में मजदूरी कर रहे हैं। यदि बाल मजदूरों की आयु को देखें तो कुल बाल मजदूरों में से करीब 48 फीसदी बच्चे 5 से 11 साल की आयु के हैं।
दुनिया भर में बाल मजदूरी को दूर करने और परिवारों की मदद करने के लिए कई देश नकद भत्ता भी देते हैं। हालांकि इसके बावजूद 130 करोड़ बच्चे, जिनमें से अधिकांश अफ्रीका और एशिया में रहते हैं, इस तरह की मदद से दूर हैं।
ह्यूमन राइट वाच में निदेशक और इस अध्ययन से जुड़े जो बेकर के अनुसार सरकार ने इस महामारी के असर को कम करने के लिए जो सहायता दी है वो इतनी नहीं है जिसकी मदद से इन बच्चों को बाल मजदूरी के दलदल में जाने से रोका जा सके। ऐसे में जब महामारी के कारण लाखों परिवार आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहे हैं, तब बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए नकद भत्ते पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं।