अर्थव्यवस्था

आवरण कथा: जहां चाह, वहां राह

राजस्थान के कई गांव चारागाह का विकास और प्रबंधन करके चारे के संकट से उबर चुके हैं

Bhagirath

चारे की जद्दोजहद के पहली कड़ी और दूसरी कड़ी के बाद पढ़ें अगली कड़ी - 

शुष्क और अर्द्धशुष्क राजस्थान भले ही चारे के संकट से जूझ रहा हो लेकिन राज्य के बहुत से गांव इससे पूरी तरह उबर चुके हैं। उदयपुर जिले का बूझ गांव ऐसे ही गांवों की सूची में शामिल है। यहां रहने वाली मोहनी बाई का परिवार गांव के उन 180 परिवारों में है, जिन्हें अब चारा नहीं खरीदना पड़ता। करीब 800 लोगों की आबादी और लगभग 2,000 मवेशियों (300 बैल, 1,200 बकरी, 500 गाय व भैंस) वाले इस गांव में पिछले तीन साल में यह परिवर्तन हुआ है। गांव में रहने वाली 50 वर्षीय सरसी बाई 2016 से पहले के दिनों को याद करती हैं, “हमने चारे के लिए बड़ा संघर्ष किया है। हमें 6-7 किलोमीटर दूर निजी बीड (निजी पहाड़ अथवा चारागाह) से चारा खरीदकर लाना पड़ता था।” सरसी बाई कहती हैं कि किसानों को खेतों से कुछ हद तक चारा मिल जाता है लेकिन इसकी उपलब्धता सीमित दिनों के लिए ही होती है। ऐसे में चारा खरीदना अधिकांश परिवारों की मजबूरी और जरूरत दोनों थी।

वर्तमान में रावलिया कला-2 ग्राम पंचायत के बूझ गांव में चारागाह से अब हर साल औसतन 90-100 बंडल (200-250 किलो) चारा प्रत्येक परिवार को मिल रहा है। बाजार में 2-3 किलो के चारे की एक पुले (बंडल) की औसत कीमत 8-10 रुपए है। प्रति परिवार करीब 1,000 रुपए और पूरे गांव के करीब 1 लाख 80 हजार रुपए सिर्फ सूखे चारे पर बच रहे हैं। इसके अलावा खुली चराई के लिए उपलब्ध चारागाह से गांव की हरे चारे की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। सूखे और हरे चारे को मिलाकर देखें हर परिवार को साल में औसतन 10,000 रुपए के मूल्य के बराबर का चारा लगभग निशुल्क प्राप्त हो रहा है।

गांव में चारे की आत्मनिर्भरता के बीज छह साल पहले पड़े थे। यह वह वक्त था जब ग्रामीण एक सर्वेक्षण के दौरान शामलात (सामुदायिक भूमि) के प्रबंधन और उसके पुनरोद्धार पर काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था फाउंडेशन फॉर इकोलोजिकल सिक्युरिटी (एफईएस) के संपर्क में आए। एफईएस राजस्थान सहित देशभर के कई राज्यों में शामलात को विकसित करने की दिशा में पिछले कई दशकों से काम कर रही है। चारागाह का प्रबंधन और विकास उसकी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शामिल है।

एफईएस के सहयोग से ग्रामीणों ने सबसे पहले भूजेश्वर चारागाह विकास एवं प्रबंधन समिति गठित की और चरणबद्ध तरीके से चारागाह का प्रबंधन शुरू किया। समिति के सदस्य दीपक श्रीमाली चारागाह विकास की कहानी समझाते हैं, “हमारी चारे की समस्या जानने के बाद संस्था के लोगों ने बताया कि गांव के चारागाह को दुरुस्त कर दिया जाए तो यह परेशानी दूर हो सकती है। चारागाह का विकास लोगों के विकास से जुड़ा था, इसलिए गांव के लोगों को तत्काल उनकी बातें समझ में आ गईं।” दीपक श्रीमाली कहते हैं कि हमने गांव के 17 हेक्टेयर का चारागाह विकसित करने के लिए सबसे पहले समिति बनाकर उसकी चारदीवारी करवाई। इस जमीन पर खुली चराई पर पूरी तरह रोक लगा दी गई ताकि चारागाह फिर से विकसित और हरा भरा हो सके।

पशुओं की खुली चराई के लिए 20 हेक्टेयर चारागाह को खुला रखा गया ताकि पशुपालकों को परेशानी न हो। विकसित किए जा रहे चारागाह पर स्थानीय प्रजातियों के 2,500 पौधे लगाए और पानी व नमी को बरकरार रखने के लिए छोटे-छोटे चेकडैम बनाए गए। दो साल के भीतर चारागाह में चार से पांच फीट घास खड़ी हो गई। लेकिन लोगों ने चारा काटने में जल्दबाजी नहीं की। उन्होंने चारागाह को और विकसित होने दिया। 2019 में यह इतना विकसित हो गया कि समिति ने लोगों को घास काटने की इजाजत दे दी। समिति ने “हर घर एक दातडी” की व्यवस्था की। इस व्यवस्था के तहत हर घर से केवल एक व्यक्ति को चारा काटने की अनुमति दी गई। समिति ने चारागाह के प्रबंधन के लिए सख्त नियम बनाए हैं। मसलन, अगर कोई व्यक्ति अपने पशुओं को चारागाह में घुसाता है तो उसे 1,000 रुपए का जुर्माना देना होगा। पेड़ से लकड़ियां काटने पर 500 रुपए का जुर्माना है।

दीपक श्रीमाली इस बात से खुश हैं कि समिति के नियमों का सभी ग्रामीण सम्मान करते हैं और अब तक किसी पर जुर्माना लगाने की नौबत नहीं आई है। समिति आमतौर पर नवंबर-दिसंबर में चारा काटने की अनुमति देती है। इसकी ऐवज में समिति प्रत्येक परिवार से 20 रुपए का शुल्क वसूलती है। यह धनराशि समिति के बैंक खाते में जमा होती है और इससे चारागाह के रखरखाव का काम किया जाता है। बूझ गांव के 17 हेक्टेयर के चारागाह से बेहतर नतीजे मिलने पर समिति ने गांव में 15 हेक्टेयर का एक अन्य चारागाह 2019 में विकसित करना शुरू कर दिया। अब यह चारागाह भी ग्रामीणों के लिए चारे का सुलभ स्रोत बन गया है। इन दो चारागाहों की मदद से कुछ ग्रामीण इस स्थिति में पहुंच गए हैं कि वे अतिरिक्त चारा बेचने लगे हैं। सरसी बाई और उन जैसी तमाम महिलाएं जो चारे के लिए 6-7 किलोमीटर दूर जाती थीं, अब उनके लिए घर से 500 मीटर की दूरी पर ही चारा उपलब्ध है। सरसी बाई बताती हैं कि मार्च के मध्य में भी यहां इतना चारा बचा है कि हमें बाजार पर निर्भर होने की जरूरत नहीं है।

उदयपुर के बूझ गांव की तर्ज पर जिले के कई अन्य गांवों में भी इस तरह की पहल हुई है। उदाहरण के लिए 1,000 लोगों की आबादी वाले उदयपुर के ही तिरोल गांव में 52 हेक्टेयर के चारागाह को संरक्षित और विकसित किया जा चुका है। 2017 में शुरू हुए इस संरक्षण कार्य की बदौलत गांव के लगभग 350 परिवार चारे की कमी से उबर चुके हैं। बूझ गांव की तरह यहां भी चारागाह के विकास और प्रबंधन के लिए चारागाह विकास एवं भू प्रबंधन समिति का गठन किया गया है। याद्दाश्त के धनी समिति के 81 वर्षीय अध्यक्ष मेघ सिंह के अनुसार, 2017 से पहले चारागाह भूमि पर ग्राम पंचायत का नियंत्रण था, लेकिन समिति के गठन के बाद और ग्राम पंचायत के अनापत्ति पत्र जारी करने के बाद इसके प्रबंधन का जिम्मा समिति के हाथों में आ गया।

मेघ सिंह के अनुसार, चारागाह से पर्याप्त मात्रा में चारा मिलने से जहां ग्रामीणों का चारे पर खर्च बचा है, वहीं चारे की तलाश में बर्बाद होने वाले समय की भी बचत हुई। तिरोल में बहुत से ग्रामीण ऐसे हैं जिन्होंने इतना चारा इकट्ठा कर लिया है कि उनके पशुओं को आने वाले कुछ महीनों खासकर अप्रैल-जून तक चारे की परेशानी नहीं होगी। डाउन टू अर्थ जब मार्च के दूसरे हफ्ते में इस गांव में पहुंचा, तब कई घरों के सामने सूखे चारे के ढेर देखे, जो चारागाह की देन हैं। यहां मिले 50 वर्षीय ग्रामीण केसर सिंह ने अपनी छह भैसों के लिए पर्याप्त चारे का इंतजाम कर लिया है। इसी तरह 42 वर्षीय सोनकी बाई चारागाह से पिछले 4-5 वर्षों से चारा हासिल कर रही हैं।

उनका कहना है कि बरसात से पहले केवल एक महीने के लिए ही उन्हें चारा खरीदना पड़ता है, शेष 11 महीने के चारे की जरूरत चारागाह पूरी कर देता है। मेघ सिंह चारागाह को ग्रामीणों के लिए वरदान मानते हुए बताते हैं कि इसने चारे पर खर्च लगभग खत्म कर दिया है। सूखे चारे के साथ-साथ चारागाह पर साल भर गांव के मवेशी, खासकर छोटे मवेशी खुली चराई भी करते हैं। एफईएस के कार्यकारी निदेशक संजय जोशी के अनुसार, सूखे और हरे चारे को मिलाकर हर परिवार को साल भर औसतन 10,000 रुपए के मूल्य के बराबर का चारा लगभग मुफ्त मिल रहा है।

आसान नहीं रहा पुनर्जीवन

बूझ और तिरोल जैसे कई गांवों को समझ में आ चुका है कि पशुधन की उत्पादकता और आजीविका को मजबूत बनाने में चारागाह की महती भूमिका है और इसीलिए चारागाह का विकास पूरे राजस्थान में धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा है। उदाहरण के लिए भीलवाड़ा जिले के स्वरूपपुरा गांव के ग्रामीणों ने फतेहपुरा और नांगली गांव में चारागाह के विकास से प्रभावित होकर 2017 में समिति का गठन कर 142 हेक्टेयर के चारागाह को विकसित करने की योजना पर काम शुरू किया। हालांकि चारागाह के विकास के काम में उन्हें कई अड़चनों का सामना करना पड़ा। गुर्जर बहुल इस गांव में चारागाह समिति के अध्यक्ष शंकर लाल गुर्जर बताते हैं, “2017 तक चारागाह खुला था। हमें इसकी सीमा का ज्ञान नहीं था।

आसपास के गांवों के पशु यहां चरने आते थे।” समिति ने 2021 में चारदीवारी का काम शुरू किया तो पड़ोसी मोचड़ियों का खेड़ा गांव के लोगों ने विरोध जताते हुए दीवार ढहा दी और अपने पशुओं को चारागाह में प्रवेश करा दिया। मोचड़ियों के खेड़ा के ग्रामीणों ने चारागाह की भूमि पर अपना हक जताते हुए मांडलगढ़ थाने में स्वरूपपुरा के ग्रामीणों के खिलाफ रिपोर्ट लिखवा दी। विवाद बढ़ने पर स्वरूपपुरा के ग्रामीणों ने चारागाह की प्रति निकलवाई और अगस्त 2021 को मांडलगढ़ उपखंड अधिकारी को पेश कर आग्रह किया कि पड़ोसी गांव के लोगों को पाबंद किया जाए जिससे दो गांव के बीच अशांति की स्थिति न बने। शंकर लाल गुर्जर के अनुसार, “तहसील में साबित हो गया कि चारागाह पर स्वरूपपुरा के ग्रामीणों का हक है।” इसके बाद मोचड़ियों के खेड़ा के लोगों को लिखित में देना पड़ा कि वे चारागाह पर हक नहीं जताएंगे।

ग्रामीण अब संघर्ष से हासिल हुए इस 142 हेक्टेयर के चारागाह को विकसित करने की प्रक्रिया में हैं। उनका कहना है कि 2022 में लगभग सभी घरों ने बाजार से चारा खरीदा है। पिछले साल भी पूरे गांव के लोगों ने करीब 3-4 लाख रुपए चारे पर खर्च किए थे। ग्रामीणों को भरोसा है कि अगले दो से तीन साल में चारागाह के विकसित होने पर चारे की समस्या का समाधान मिल जाएगा।

एफईएस के कार्यकारी निदेशक संजय जोशी राजस्थान में शामलात भूमि के प्रबंधन की दिशा में चल रहे प्रयासों पर रोशनी डालते हुए बताते हैं कि राज्य में 7,400 गांवों के अधीन 21 लाख एकड़ शामलात भूमि को विकसित किया जा रहा है। यह भूमि राज्य के 18 जिलों में लगभग 8,085 लाख लोगों को प्रभावित करती है। संजय कहते हैं, “राजस्थान में हम सरकार के साथ मिलकर शामलात भूमि के विकास और प्रबंधन की प्रक्रिया को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कार्य को मनरेगा में प्राथमिकता दिलाने, ग्राम स्तर पर योजना बनाने और सुचारू क्रियान्वयन के लिए प्रशिक्षण देने में हम अपनी भूमिका देखते हैं। ऐसी कोशिशें देशभर के 41,800 गांवों में भी हो रही हैं। इन गांवों में 125 लाख एकड़ सामुदायिक भूमि का प्रबंधन किया जा रहा है (देखें, सामुदायिक संसाधनों से चारे की 60 प्रतिशत जरूरतें होती हैं पूरी,)।”

लाभ का दायरा

शामलात भूमि प्रबंधन से कई पर्यावरणीय और आर्थिक लाभ हैं। एफईएस द्वारा 2016-17 में प्रकाशित “ईकॉलोजिकल हेल्थ मॉनिटरिंग” रिपोर्ट में दक्षिणी राजस्थान के भीलवाड़ा, उदयपुर और प्रतापगढ़ जिले में समुदाय द्वारा प्रबंधित और गैर प्रबंधित शामलात भूमि का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार, समुदाय द्वारा प्रबंधित शामलात भूमि पर स्टैंडिंग बायोमास 13.2 टन प्रति हेक्टेयर, कार्बन स्टॉक 5.9 टन प्रति हेक्टेयर, फॉडर बायोमास 1.6 टन प्रति हेक्टेयर और जलावन लकड़ी का बायोमास 2.4 टन प्रति हेक्टेयर था। वहीं दूसरी तरफ गैर प्रबंधित शामलात भूमि पर स्टैंडिंग बायोमास केवल 5.3, कार्बन स्टॉक 2.4, फॉडर बायोमास 0.9 और जलावन लकड़ी का बायोमास 0.9 टन प्रति हेक्टेयर था। रिपोर्ट के अनुसार, समुदाय द्वारा प्रबंधित शामलात भूमि पर स्टैंडिंग बायोमास का मूल्य 39,600 रुपए प्रति हेक्टेयर और कार्बन स्टॉक का मूल्य 1,616 रुपए प्रति हेक्टेयर आंका गया, जबकि गैर प्रबंधित भूमि पर यह क्रमश: 15,900 रुपए और 649 रुपए ही था।

रिपोर्ट के अनुसार, समुदाय द्वारा संचालित और नियंत्रित भूमि से फॉडर बायोमास से प्रत्येक परिवार को 12,177 रुपए का फायदा पहुंचा। साथ ही, जलावन लड़की से 17,836 रुपए के मूल्य के बराबर हर परिवार को लाभ मिला। यह लाभ अनियंत्रित शामलात भूमि से मिलने वाले लाभ से दोगुने से भी अधिक है। चारागाह विकास के अन्य कई फायदे भी हैं जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण हैं, जैसे पानी की उपलब्धता में सुधार, भूजल में बढ़ोतरी, स्थानीय वनस्पतियों और जीवों के लिए सुरक्षित आवास और खाने की उपलब्धता और पारिस्थितिक सेवाओं जैसे परागण और कीट नियंत्रण में बढ़ोतरी। इतना ही नहीं, शामलात प्रबंधन और विकास के लिए जब गांव में सामूहिक पहल बढ़ती है तो ग्राम स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में गरीब और पिछड़े वर्गों के लोग, खासकर महिलाओं की भागीदारी में भी सुधार होता है।

कम होते चारागाह

चारागाह सहित शामलात भूमि का प्रबंध राजस्थान के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पशुधन किसानों की आय का सबसे भरोसेमंद स्रोत है। 20वीं पशुधन जनगणना की मानें तो राजस्थान में देश के 11.4 प्रतिशत यानी 56.8 मिलियन मवेशी हैं जो इसे दूध उत्पादन के मामले में उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा अग्रणी राज्य बनाते हैं। लेकिन राज्य में चारे के अहम स्रोत चारागाह में लगातार कमी हो रही है। कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के आंकड़े कहते हैं कि राजस्थान में 2014-15 से 2016-17 में बीच 4,000 हेक्टेयर चारागाह की कमी आई है। 2014-15 में यह भूमि 16,74,000 हेक्टेयर से कम होकर 2016-17 में 16,70,000 हेक्टेयर रह गई है।

राजस्थान सरकार की कृषि सांख्यिकी के अनुसार, राज्य में सर्वाधिक 19,12,000 हेक्टेयर चारागाह व अन्य चराई भूमि 1990-91 में थी। अगर इस आंकड़े की तुलना 2016-17 के आंकड़ों से करें तो पता चलता है कि राज्य में 2,42,000 हेक्टेयर चारागाह कम हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो अकेले राजस्थान में 25 वर्षों में दिल्ली के कुल क्षेत्रफल (1,47,488 हेक्टेयर) से करीब डेढ़ गुना चारागाह कम हुआ है। आईजीएफआरआई द्वारा मार्च 2021 में जारी रिपोर्ट “फॉडर रिसॉर्सेस डेवलमेंट प्लान फॉर राजस्थान” की मानें तो राज्य की पशुधन उत्पादकता मुख्य रूप से हरे और सूखे चारे पर निर्भर है। लेकिन यहां 27.16 प्रतिशत हरे और 36 प्रतिशत सूखे चारे की कमी है।

फॉडर एंड पाश्चर मैनेजमेंट पर सितंबर 2011 में जारी योजना आयोग की उपसमूह 3 की रिपोर्ट में पाया गया है कि भारत की अधिकांश चारागाह भूमि जमीन पर चिन्हित नहीं की गई है। इस वजह से इसका आकलन पूर्णत: अनुमानों पर आधारित है। रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में करीब 12.15 मिलियन हेक्टेयर भूमि चारागाह के रूप में वर्गीकृत है। इनमें से भी करीब 40 प्रतिशत भूमि पर ही चराई हो रही है। स्पष्ट सीमांकन के अभाव में ये भूमि अन्य कार्यों के लिए स्थानांतरित की जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार, 1947 में 70 मिलियन हेक्टेयर में चारागाह थे। 1997 तक करीब आधे चारागाह खत्म हो गए और 38 मिलियन हेक्टेयर ही शेष बचे (देखें, घटते चारागाह, बढ़ती दिक्कत,)। ये चारागाह भी या तो काफी खराब हालत में है।

इन चारागाहों को वेस्टलैंड मान लिया गया है। ये भूमि आसानी से अन्य कार्यों के लिए हस्तांतरित कर दी जाती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश चराई भूमि लैंटाना, यूपाटोरियम, परथेनियम, प्रोसोपिस जूलिफ्लोरा जैसी विदेशी आक्रामक प्रजातियों से भर गई हैं। चारागाह के टिकाऊ प्रबंधन सुनिश्चित करने वाले ग्रामीण स्तरीय परंपरागत संस्थानों का पतन हो चुका है। यही वजह है कि नीलगिरी के शोला चारागाह, बीकानेर-जोधपुर-जैसलमेर के सीवान चारागाह, आंध्र प्रदेश के रोलापाडू चारागाह, गुजरात के बन्नी चारागाह के साथ सिक्किम और पश्चिमी हिमालय क्षेत्र के अल्पाइन चारागाह ठीक न होने वाली अवस्था में पहुंच चुके हैं।

2016-17 की कृषि से संबंधित संसदीय समिति की 34वीं रिपोर्ट में भी माना गया है कि अधिकांश चारागाह या तो बिगड़ चुके हैं अथवा अतिक्रमण का शिकार हैं जिससे पशुओं के लिए चराई भूमि कम हो रही है। समिति के अनुसार, भारत में पशुधन की आबादी बढ़ रही है लेकिन कृषिगत और गैर कृषिगत उपयोग हेतु भूमि पर दबाव बढ़ने से चारागाह धीरे-धीरे कम हो रहे हैं।

चारागाह की उपेक्षा और बदहाली ने सबसे अधिक चरवाहा और घुमंतू पशुपालक समुदाय को प्रभावित किया है। राजस्थान में इस समुदाय के लिए प्रतिबद्ध गैर लाभकारी संगठन उर्मूल ट्रस्ट में समन्वयक सूरज सिंह मानते हैं कि चारे और पानी के स्रोत सिमटने से ऊंटों से राइका समुदाय का मोहभंग होता जा रहा है। वह बताते हैं कि राइका अमूमन किसानों के खेतों में अपने पशुओं की चरने के लिए छोड़ देते हैं, लेकिन बहुत से किसानों ने अपने खेतों की मेड़बंदी करा ली है जिससे पशु खेतों में प्रवेश नहीं कर पाते। सूरज के अनुसार, “राजस्थान सरकार ने चारागाह की बहुत सी जमीन को वेस्टलैंड बताकर बड़े-बड़े सौर ऊर्जा संयंत्रों को हस्तांतरित कर दी हैं।” इस समस्याओं से आजिज आकर राइका समुदाय अपने बेड़े में ऊंटों की संख्या कम रहे हैं, नतीजतन राजकीय पशु- ऊंटों की आबादी सीमित हो रही है। पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान में ऊंटों की आबादी में 37 प्रतिशत की गिरावट गई है। सूरज सिंह स्पष्ट कहते हैं कि राइका जैसे समुदाय के लिए ऊंटों को एक जगह रखकर खिलाना संभव नहीं है, ऐसे में चारागाह परंपरागत रूप से उनके चारे के स्रोत रहे हैं। वह घुमंतू समुदाय द्वारा पशु त्यागने की बड़ी वजह चारागाह की बदहाली को मानते हैं।

खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा हाल ही में जारी “मेकिंग वे: डेवलपिंग नेशनल लीगल एंड पॉलिसी फ्रेमवर्क फॉर पेस्टोरल मोबिलिटी” के मुताबिक, घुमंतू समुदाय को नीतिगत सहयोग नहीं प्राप्त हो रहा है। नीतियों में उन्हें अनुत्पादक, अप्रासंगिक और पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाना वाला मान लिया गया है।” भारत के पशुपालन पर अहमदाबाद स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईएम), जर्मनी स्थित लीग फॉर पेस्टोरल पीपल्स द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित एक अन्य रिपोर्ट “पेस्टोरलिजम इन इंडिया : ए स्कोपिंग स्टडी” में भी कहा गया है कि घुमंतू समुदाय के विकास के लिए कोई आधिकारिक नीति नहीं है। यहां तक कि कृषि और पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का रवैया भी इनके खिलाफ है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय तो घुमंतू समुदाय को उनके पारंपरिक चराई भूमि से बेदखल करने की मंशा रखता है।”