अर्थव्यवस्था

सामुदायिक संसाधनों से चारे की 60 प्रतिशत जरूरतें होती हैं पूरी: जोशी

सामुदायिक संसाधनों को विकसित करने की दिशा में कार्यरत फाउंडेशन फॉर ईकोलॉजिकल सिक्युरिटी के कार्यकारी निदेशक संजय जोशी ने राजस्थान जैसे राज्यों में सामुदायिक संसाधनों व पशुपालन की उपयोगिता पर डाउन टू अर्थ से विस्तार से बात की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश:

Bhagirath

क्या दुनिया पशुधन उत्पादन की पारंपरिक प्रणाली की वापसी की गवाह बनने जा रही है?

इंटरनेशल यूनियन फॉर कंसर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की 2006 की रिपोर्ट में कहा गया था कि उत्पादन प्रणाली और उपभोग प्रणाली के रूप में पशुपालन दुनिया के लाखों गरीबों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। खासकर उनके लिए जो शुष्क इलाकों में रहते हैं और जिन्हें जलवायु अनिश्चितताओं के चलते भोजन-पानी की समस्या का सामना करना पड़ता है। अनुमानतः पशुपालन कई शुष्क-भूमि क्षेत्र वाले देशों के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में 8.8 से 20 फीसदी तक योगदान देता है। साथ ही यह कई ऐसी सेवाएं और उत्पाद उपलब्ध कराता है, जिनकी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय उपयोगिता है, जैसे जैव विविधता, पोषक-चक्र, ऊर्जा प्रवाह, कृषि में निवेश आदि।

भारत में पशुपालन करने वाले समूह आंध्र प्रदेश के शुष्क और अर्धशुष्क इलाकों से लेकर, गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान, तमिलनाडु के साथ- साथ उत्तर के पहाड़ी क्षेत्र और दक्षिण के नीलगिरी इलाके में मौजूद हैं। एफईएस के अनुभवों के आधार पर हम कह सकते हैं कि पशुपालन बहुत सुदृढ़ आजीविका प्रणाली है जो जलवायु अनिश्चितताओं, अकाल, सूखा और पानी और चारागाह की कम उपलब्धता जैसी समस्याओं से निपटने के लिए बदलाव करने की क्षमता रखती है। इसीलिए समाजशास्त्रियों का मानना है कि अगर सरकारी नीतियों का सहयोग मिले तो पशुपालन दुनिया की एक बड़ी आबादी को आजीविका संवर्धन में बहुत सहयोग दे सकती है।

पशुपालन को सबसे पुराना या पहला पेशा जाता है, जिसमें आजीविका के लिए गतिशील रहना अनिवार्य है। क्या यह आधुनिक समय में उपयुक्त है?

पशुपालन के सिद्धांत पारंपरिक खेती से भिन्न हैं। इसमें फसलों के उप-उत्पादों का इस्तेमाल किया जाता है। इसमें कोई ईंधन या उर्वरक उपयोग में नहीं लाया जाता। वास्तव में यह प्राकृतिक और जैविक खेती को बढ़ावा देता है और दूरदराज के क्षेत्रों में भोजन का उत्पादन संभव बनाता है। भारत में पशुपालक परिवारों की सही संख्या को लेकर तस्वीर साफ नहीं है फिर भी माना जाता है कि वह देश की आबादी की एक फीसदी से ज्यादा नहीं हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के लगभग 77 फीसदी मवेशियों को खुली चराई प्रणालियों में रखा गया है और वे सामुदायिक संसाधनों जैसे चारागाहों, जंगलों और सामुदायिक जल संसाधनों पर निर्भर हैं। हो सकता है कि कई छोटे किसानों और पशुपालकों के लिए मवेशी आय का प्राथमिक स्रोत न हों, पर वह इन परिवारों की आय और पोषण में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। देश का 53 फीसदी दूध और 74 फीसदी मांस का उत्पादन इसी व्यवस्था के जरिए होता है। ऐसी प्रणाली के जरिए मिलने वाले दुग्ध और अन्य उत्पाद ज्यादा स्वादिष्ट और पोषक होते हैं। खुली चराई जैसी विस्तृत प्रणालियों में रखे जाने वाले पशुधन सालाना 3,35,000 करोड़ रुपए के अनुमानित मूल्य के जैविक उर्वरक का योगदान भी करते हैं। उपरोक्त योगदान को देखते हुए कहा जा सकता है कि इनकी उपयोगिता आज के समय में भी महत्वपूर्ण है।

राजस्थान पर वापस लौटें तो आपने पशुपालन पर काफी फोकस किया है। आपके अनुभव कैसे रहे?

जहां तक हमारे अनुभवों की बात है तो हम राजस्थान में उन इलाकों में काम करते हैं जहां ज्यादातर भूमिहीन, छोटे किसान और पशुपालक सामुदायिक संसाधनों पर निर्भर हैं। शामलात संसाधनों के काम से मवेशियों और उन्हें पालने वालों को काफी मदद मिली है। हमारी कोशिश रहती है कि शामलात संसाधनों जैसे चारागाह व वनों पर समुदाय का अधिकार सुनिश्चित हो और इन्हें पुनर्जीवित किया जाए।

इससे पशुधन के लिए चारा और जल सुनिश्चित होता है। राजस्थान के अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में पशुधन उत्पादन प्रणाली के लिहाज से यह काम महत्वपूर्ण है। इसके परिणामस्वरूप, इन इलाकों में मवेशियों, खासकर छोटे मवेशियों जैसे भेड़ और बकरियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। संरक्षित शामलात, गांव में उपलब्ध कुल सामूहिक जमीन का एक छोटा सा हिस्सा होने के बावजूद भी गांव के कुल चारे में करीब 60 प्रतिशत का योगदान देते हैं। राजस्थान में जिन गावों में शामलात संरक्षित हैं, वहां औसतन एक परिवार को हर साल लगभग 10 हजार रुपए का चारा शामलात से मिल रहा है।

आप यह काम राजस्थान में ही क्यों कर रहे हैं? क्या इस राज्य का परिदृश्य पशुपालन के लिए बेहतर है?

राजस्थान में प्राकृतिक संसाधनों के विकास से जुड़ा कोई भी काम शुष्क-खेती व्यवस्था के दायरे में ही किया जा सकता है। मवेशी राजस्थान में आजीविका के बड़े स्रोत हैं। यहां नियमित और कभी-कभी गंभीर सूखे के चलते भूमिहीन, सामाजिक रूप से पिछड़ा वर्ग और छोटे किसान आजीविका के लिए एक से ज्यादा स्रोतों पर निर्भर हैं। राज्य में एकमात्र आजीविका विकल्प के रूप में केवल खेती करना व्यावहारिक नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश भूभाग वर्षा पर निर्भर है। इसलिए राजस्थान का शुष्क और अर्ध-शुष्क वातावरण, पशुधन आधारित खेती को आजीविका के लिए ज्यादा विश्वसनीय विकल्प बनाता है। ये काम हम सिर्फ राजस्थान ही नहीं, बल्कि देश के अन्य शुष्क और अर्ध-शुष्क राज्यों जैसे गुजरात, कर्नाटक, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में भी कर रहे हैं।

चारागाह भूमि पशुपालन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों के लिए, लेकिन राज्य में इस भूमि का एक बड़ा हिस्सा खराब हो चुका है। स्वस्थ और संरक्षित सामुदायिक भूमि से चारा और पानी उपलब्ध हो सकता है जिससे पशुधन को प्रत्यक्ष मदद मिलती है और पशुपालकों की आजीविका मजबूत होती है। इससे पशुपालकों को सूखे और बीमारियों जैसी प्राकृतिक आपदाओं से लड़ने में मदद मिलती है। आदर्श स्थिति तो यह होगी कि राज्य सरकार समुदायों को शामलात संसाधनों जैसे चारागाह व वनों के प्रबंधन और शासन का अधिकार देना लगातार जारी रखें ताकि इन संसाधनों की हालत में सुधार हो सके।

जब हम पशुपालन की बात करते हैं तो चारागाह की उपलब्धता और चारे की उपलब्धता, ये दो बड़े सवाल सामने आते हैं। आप उनका प्रबंधन कैसे करते हैं?

हमारा निरंतर प्रयास है कि सामुदायिक जमीन पर स्थानीय समुदाय का हक सुरक्षित हो, साझा प्राकृतिक-संसाधनों के स्थानीय प्रबंधन में सुधार हो, इन कामों के लिए स्थानीय संघों को बढ़ावा मिले और जंगलों, चारागाहों और जल संसाधनों को बेहतर करने के लिए मनरेगा जैसे सार्वजनिक कार्यक्रम का उपयोग होता रहे। इसके अलावा हम खेती और पशुपालन को मजबूत करने के लिए जंगल या चारागाह जैसे सामुदायिक संसाधन के संतुलित इस्तेमाल पर जोर देते हैं ताकि स्थानीय समुदायों को पर्याप्त भोजन, जानवरों को चारा, पानी और जलाने की लकड़ियां मिलती रहें। प्रकृति-कार्यशाला (एफईएस की क्षमतावर्द्धन इकाई) के माध्यम से हम ग्रामीण समुदायों, दुग्ध संघों, पंचायतों और सरकारी विभागों की क्षमतावर्द्धन के लिए काम करते हैं, जिससे राजस्थान में साझा प्राकृतिक संसाधनों का बेहतर तरीके से संरक्षण किया जा सके।

हाल में राजस्थान सरकार ने मनरेगा के अंतर्गत चारागाहों और पानी के स्रोतों के विकास को प्राथमिकता दी है। एफईएस ने ग्रामीण विकास विभाग के साथ जागरुकता बढ़ाने के लिए अभियान चलाने, मनरेगा को सक्रिय करने और भूमि और जल संसाधनों को बहाल करने के लिए सरकार के साथ मिलकर काम किया है। साथ ही, पंचायत और ब्लॉक अधिकारियों की क्षमतावर्द्धन के लिए बंजर भूमि और चारागाह विकास विभाग के साथ कार्य आरम्भ किया है। जिन गांवों में हम काम कर रहे हैं, वहां सामुदायिक जमीनों, खासकर चारागाहों को पुनःस्थापित कराने जैसे सामुदायिक प्रयासों से चारे और पानी की उपलब्धता बढ़ी है। जाहिर है, इससे पशुपालन भी मजबूत हुआ है। इसलिए आवश्यक है कि हम सामुदायिक भूमि और पशुपालन आधारित आजीविका को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रयास करते रहें। इसी से गांव का आजीविका तंत्र मजबूत होगा।