नोवल कोरोनावायरस बीमारी (कोविड-19) महामारी और इस वजह से हुए लॉकडाउन के मद्देनजर अर्थव्यवस्था में अपेक्षित कमजोरी आई, जिससे केंद्र सरकार के कर राजस्व संग्रह में भारी गिरावट आई है।
समाचार रिपोर्टों के मुताबिक, 24.23 लाख करोड़ रुपये के केंद्रीय बजट 2020-21 के मुकाबले कर संग्रह में 5 लाख करोड़ रुपये की कमी हो सकती है। धीमी अर्थव्यवस्था ने पिछले वर्षों के कर संग्रह को प्रभावित किया, इस वर्ष अर्थव्यवस्था का अभूतपूर्व संकुचन इस स्थिति को और बदतर बनाने वाला है।
राजस्व में इतनी बड़ी कमी न केवल केंद्र के लिए बल्कि राज्यों के लिए भी चिंता का कारण है। कुछ अर्थों में, केंद्रीय कर संग्रह में कमी राज्यों के लिए और भी अधिक महत्व रखती है, क्योंकि उनके पास कर राजस्व बढ़ाने का दायरा बहुत कम होता है।
जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) के कारण समस्या और भी गंभीर हो गई है क्योंकि राज्यों को कई राज्य स्तरीय करों को छोड़ना पड़ा है। इस प्रकार, केंद्र द्वारा एकत्र किए गए कर राजस्व की मात्रा की अहमियत राज्यों के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यह काफी हद तक निर्धारित करता है कि कितना पैसा राज्यों के साथ साझा किया जाएगा।
लेकिन मामला सिर्फ इतना भर नहीं है कि केन्द्र के कर में से राज्यों को कितना मिलता है। महत्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि केंद्र कर राजस्व कैसे उत्पन्न करता है।
यहां कर राजस्व में कमी जिस वजह से हो रही है, वह काफी चिंताजनक है। कंट्रोलर जनरल ऑफ अकाउंट (सीजीए) के नवीनतम आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में समान अवधि की तुलना में पिछले साल अप्रैल से नवंबर के बीच सकल कर संग्रह में 12.6 प्रतिशत की गिरावट आई थी। हालांकि, करों के सभी घटक समान रूप से प्रभावित नहीं हुए हैं।
जहां कॉर्पोरेट टैक्स, आयकर और सीमा शुल्क कर संग्रह में क्रमश: 35 प्रतिशत, 12 प्रतिशत और 17 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं अप्रैल-नवंबर, 2019 की तुलना में उत्पाद शुल्क संग्रह लगभग 48 प्रतिशत बढ़ गया है। पिछले वर्ष मार्च और मई के महीनों में पेट्रोल और डीजल पर लगाए गए केंद्रीय उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी के कारण ये वृद्धि हुई है।
उत्पाद शुल्क संग्रह के इस वृद्धि का दिलचस्प पहलू यह है कि जहां इससे केंद्र को अधिक राजस्व उत्पन्न करने में मदद मिली, वहीं यह राज्यों को ज्यादा मदद नहीं करता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईंधन पर उत्पाद शुल्क में तीन घटक शामिल हैं, जिनमें से केवल एक बेसिक ड्यूटी राज्यों के साथ साझा की जाती है।
शेष दो घटक - अतिरिक्त उत्पाद शुल्क (सड़क और बुनियादी ढांचा उपकर) और विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क - सेस और अधिभार हैं और इसलिए राज्यों के साथ साझा करने योग्य नहीं हैं।
चूंकि केंद्र सरकार ने बेसिक ड्यूटी को स्थिर रखते हुए केवल विशेष अतिरिक्त उत्पाद शुल्क में वृद्धि की है, इससे केंद्र के उस हिस्से को बढ़ावा दिया है, जिसे राज्य के साथ शेयर नहीं किया जाना है।
पोस्ट-हाइक एक्साइज ड्यूटी की संरचना पर करीब से नजर डालने से पता चलता है कि पेट्रोल के मामले में इसका लगभग 91 प्रतिशत राज्यों के साथ साझा करने योग्य नहीं है, जबकि डीजल के मामले में यह 85 प्रतिशत है। इसका मतलब यह है कि राज्यों के कर राजस्व का हिस्सा समग्र केंद्रीय संग्रह में कमी के कारण प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो जाता है, वे तब भी लाभ नहीं पाते हैं जब कुछ घटक अच्छी तरह से रिकवरी करते हैं।
यह कोई इकलौता उदाहरण नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में, केंद्र अपने कर राजस्व को बढ़ाने के लिए उपकर और अधिभार पर निर्भर रहा है। परिणामस्वरूप, केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी घट रही है।
यह समस्या इस तथ्य से समझी जा सकती है कि 2000-01 में केंद्रीय सकल कर राजस्व में सेस और सरचार्ज का हिस्सा 3% था, जो 2019-20 में बढ़कर 15.6 प्रतिशत हो गया। 2020-21 में इसके और बढ़ने की संभावना है।
विश्लेषकों का यह सुझाव है कि सरकार को आगामी बजट में कोविड-19 उपकर (सेस) लगाना चाहिए। लेकिन ये उपकर केवल केंद्र को अधिक राजस्व जुटाने में मदद करेगा, जबकि राज्यों को कुछ भी हासिल नहीं होगा।
यह देखते हुए कि राज्य ही हैं, जो महामारी संकट के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहे हैं, यह वक्त है कि केंद्र उनके साथ अधिक संसाधन साझा करे। इसलिए, यह जरूरी है कि केंद्र उपकर और अधिभार पर अपनी निर्भरता कम करे।
इसके बजाय, राजस्व में संभावित गिरावट की भरपाई करने के लिए, नई कर दरों को पेश किया जा सकता है, विशेष रूप से उन सुपर-रिच पर, जिनकी आय महामारी से अपेक्षाकृत कम प्रभावित हुई है। यह न केवल अधिक कर राजस्व उत्पन्न करने में मदद करेगा, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगा कि राज्यों को कर का उचित हिस्सा मिले।
(यह लेख सेंटर फॉर बजट एंड गर्वनेंस अकाउंटबिलिटी के सहयोग से प्रकाशित किया गया है)