इतिहास खुद को नहीं दोहराता, बल्कि हम उसे दोहराते हैं। देश में लोग उन बातों पर चर्चा करने से संकोच करते हैं जो जिनसे वे सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं। यानी खुद को बचाए रखने के लिए मासिक जरूरतें, लोकप्रिय शब्दों में कहें तो रोजगार पर चर्चा। इससे साल 2000 का वह शुरुआती दौर याद आता है जब इस तरह की खबरें राजनीतिक सुर्खियां बनी थीं। गौर करने वाली बात यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए-1) के खिलाफ माहौल बना दिया था। तब देर से ही सही सरकार ने घबराहट में अपनी प्रतिक्रिया दी थी। सरकार ने नौकरियों के अवसर खोजने के लिए आननफानन में उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था।
जो लोग इतिहास भूल गए हैं, उन्हें बताना जरूरी है कि वर्तमान सरकार ने ही नहीं बल्कि एनडीए-1 सरकार ने भी हर साल एक करोड़ नौकरियां देने का वादा किया था। साल 2001 में अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलुवालिया की अध्यक्षता में बनी टास्क फोर्स को हर साल एक करोड़ नौकरियां सृजित करने के उपायों को खोजने में लगाया गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यही वादा 2014 के चुनावी अभियान में दोहराया। उस वक्त बेरोजगारी के मौजूदा दौर का उभार हो रहा था। मोदी की राजनीतिक समझ में कोई खोट नहीं है लेकिन सबसे बड़ी चुनौती किए गए वादे को पूरा करना है।
वर्ष 2000 के शुरुआती सालों में सूचना एवं तकनीक के संगठित सेक्टर में अचानक आई तेजी के बावजूद, पहली एनडीए सरकार बेरोजगारी से बेहतर तरीके से नहीं निपट पाई। इसका नतीजा 2004 में आश्चर्यजनक पराजय के रूप में सामने आया। समकालीन राजनीति का यह हिस्सा है लेकिन देश को यह नहीं भूलना चाहिए इसे ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। यह सरकार की हार नहीं है बल्कि बेरोजगारी के आतंक से निपटने की भी है।
नौकरियां नहीं हैं। अब तो आधिकारिक रूप से भी स्वीकार कर लिया गया है कि नोटबंदी से 15 लाख नौकरियां अचानक खत्म हो गई हैं। यह ऐसे समय में हो रहा है कि जब पहले से ही बेरोजगारी की दर बहुत ऊंची है। हर महीने 10 लाख ऐसे लोग सामने आ रहे हैं जिन्हें नौकरियों की तलाश है जबकि हर महीने रोजगार सृजन की दर 2 लाख ही है। ज्यादातर नौकरियों पर संगठित क्षेत्रों के संदर्भ में बात होती है लेकिन देश में 90 प्रतिशत नौकरियां असंगठित क्षेत्रों में हैं। नोटबंदी ने असंगठित क्षेत्र पर भी असर डाला है। ठीक इसी समय असंगठित क्षेत्र जैसे कृषि और निर्माण भी संकट के दौर से गुजर रहा है।
एनडीए दूसरे कार्यकाल में वैसा ही बर्ताव कर रही है जैसा उसने पहले में किया था। वही गलतियां भी दोहरा रही है। एनडीए ने पहले कार्यकाल में रोजगार सृजन के लिए आर्थिक विकास पर काफी जोर दिया। इस रणनीति से पर्याप्त नौकरियां नहीं पैदा हुईं क्योंकि जीडीपी में एक प्रतिशत वृद्धि से 10 लाख नौकरियां ही पैदा होती हैं। उद्योग और अन्य संगठित क्षेत्र स्वचालित बन रहे हैं और कम संख्या में नौकरियां पैदा कर रहे हैं। वहां उच्च श्रेणी की नौकरियां सृजित हो रही हैं। एनडीए ने पहले कार्यकाल में ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के स्रोतों को नजरअंदाज किया। खासकर कृषि और सरकारी लोक श्रम योजनाओं को। उस वक्त कृषि में सबसे कम विकास दर दर्ज की गई और इसमें सार्वजनिक निवेश काफी कम रहा। एनडीए अपने दूसरे कार्यकाल में भी कृषि पर निवेश न कर और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम जैसे कार्यक्रम पर ध्यान ने देकर वही गलतियां दोहरा रही है। कृषि पर निर्भरता कम होने के बाद भी यह लाखों लोगों को रोजगार देने का जरिया है। रोजगार कार्यक्रम इसके अस्तित्व के लिए पूरक का काम करते हैं। इन दोनों में असफल होने का मतलब है ग्रामीण क्षेत्रों को गहरे संकट में डाल देना जो अब दिखाई भी देने लगा है।
अब कहा जा रहा है कि सरकार अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए 50,000 करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा करने जा रही है। अधिकारियों का सुझाव है कि निर्माण क्षेत्र और उद्योगों को ध्यान में रखकर यह पैकेज जारी किया जाए। यानी रणनीति वही सामान्य सी है- सकल घरेलू उत्पाद को गति देकर लाखों नौकरियां पैदा करने की कोशिश करना। फिर याद दिलाने की जरूरत है कि 2001 की मोंटेक सिंह अहलुवालिया टास्क फोर्स ने साफ किया था कि आर्थिक विकास का मतलब नौकरियां का सृजन नहीं है। यद्यपि टास्क फोर्स ने इसे प्रमुखता देते हुए सुझाव दिया था कि आर्थिक विकास की 9 प्रतिशत की विकास दर के साथ इसे हासिल किया जा सकता है बशर्त अन्य स्रोतों खासकर कृषि में नौकरियों को सुरक्षित रखा जाए।