एक ऐसा वक्त हमारे सामने है जब हम हर गुजरते हुए पल को जीवनदान समझ रहे हैं और निरंतर बदलावों से भ्रमित हैं, तब “उलटी गिनती” हमारा सामना आशंकाओं के ऐसे भविष्य से करवाती है जो बेहद कठोर और निर्मम साबित हो सकता है।
आर्थिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार अंशुमान तिवारी और अनिंद्य सेनगुप्त की हाल ही में आई पुस्तक “उलटी गिनती” घातक कोरोना महामारी के दर्मियान और उसके पार की दुनिया से एक गहरा साक्षात्कार करवाती है। पुस्तक का एक अंश बताता है, “नैरेटिव डिक्लाइन” सबसे घातक और मारक होते हैं और कोरोना विषाणु ने हमारे बेहतर भविष्य के मजबूत भरोसे (नैरेटिव डिक्लाइन) को तहस-नहस कर दिया है। नैरेटिव डिक्लाइन के खत्म होने से न सिर्फ आर्थिक संरचनाएं बदल जाती हैं बल्कि भविष्य को समझने वाले हमारे तजुर्बे और तथ्य भी बेकार हो जाते हैं।
लेखक पुस्तक में भविष्य विज्ञानी एल्विन टॉफलर के हवाले से एक गंभीर टिप्पणी करते हैं, “भविष्य हमेशा जल्दी आ जाता है और वह भी गलत क्रम में यानी कि भविष्य उस तरह कभी नहीं आता जैसा हम चाहते हैं।” कोरोना महामारी के संदर्भ के साथ लेखक आगाह भी करते हैं कि अब भारत बुढ़ापे की तरफ है और 2030 से यह रफ्तार और तेज हो जाएगी। वहीं लेखक एक अध्याय के अंत में यह तथ्य रखते हैं, “2041 तक भारत की युवा आबादी का अनुपात अपने चरम पर पहुंच चुका होगा क्योंकि कार्यशील आयु (20 से 59 वर्ष) वाले आबादी के करीब 60 फीसदी होंगे।”
अर्थ और समाज के बड़े घेरे में सूक्ष्म आंकड़ों और अनुभवों का मिश्रित विश्लेषण करते हुए लेखक कोरोना महामारी को दूसरे विश्व युद्ध 1939-1955 के बाद का दुनिया का सबसे बड़ा घटनाक्रम भी करार देते हैं। भारत में 44 करोड़ कामगारों में हर चौथे की नौकरी या काम खत्म होने का हवाला देते हुए लेखक किताब के शुरुआती अध्यायों में ही बताते हैं, “कोविड की भयानक मार और जटिल मंदी के कारण भारत की अर्थव्यवस्था 1991 के बाद अर्जित अपने अधिकांश आर्थिक फायदों को गंवाती दिख रही है।” पुस्तक बताती है कि भारत में राष्ट्रव्यापी सख्त लॉकडाउन में 10 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। इसने असंगठित क्षेत्र के उन विशाल संख्या वाले कामगारों की कमर तोड़ दी है जो गांवों से निकलकर गैर कृषि कार्यों से अपनी आजीविका चला रहे थे।
महामारी में पलायन करके गांव लौटे मजदूरों के लिए कृषि क्षेत्र सहारा जरूर बना लेकिन खेती-किसानी आसान नहीं रही है। यह पुस्तक कई कृषि और गैर कृषि मजदूरों के अनुभवों और उनकी समझ को रोचक तरीके से दर्ज करती है और बताती है, “तकरीबन चार दशक से आबादी में बढ़ोतरी की वजह से जमीन बंटती गई और खेतों का औसत आकार आधा हो गया है।”
इसके अलावा पुस्तक उत्पादन केंद्रित सरकारी नीतियों का जिक्र करते हुए एक तल्ख हकीकत सामने रखती है, “कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी की वजह से ज्यादातर किसानों की आय में इजाफा नहीं होता। कृषि महज 10 फीसदी किसानों के लिए ही मुनाफे का धंधा है।” वहीं कृषि क्षेत्र के रोजगार की एक असलियत को सामने रखते हुए लिखा गया है कि किसानों की रोजाना आय सरकार की न्यूनतम दिहाड़ी 375 रुपए से भी काफी कम (200 रुपए) है। इस विकट स्थिति को लेखक और स्पष्ट करते हैं, “आईएलओ की वेज रिपोर्ट (2018) यह बताती है कि 1993 से 2014 तक भारत की जीडीपी 4 गुना बढ़ी लेकिन भारत में मजदूरी दर केवल दोगुना।”
पुस्तक बताती है कि भारत के 89 फीसदी सबसे गरीब लोग (सरकारी गरीबी रेखा के नीचे) ग्रामीण क्षेत्र में रहते हैं, उनके सामने कोई आर्थिक अवसर नहीं है। लॉकडाउन के बाद उनका जीवन बर्बाद हो चुका है। लेखक इस बर्बादी से उबरने के लिए रास्ता भी सुझाते हैं, वह पुस्तक में सुझाव के तौर पर कहते हैं, “2022 से 2030 के दौरान भारत को कम से कम 10 करोड़ नई नौकरियों की जरुरत होगी।” वहीं, महिला कार्यबल को जोड़ने पर करीब 15 करोड़ नई नौकरियों की जरुरत होगी। साथ ही न्यूनतम मजदूरी में महंगाई दर को ध्यान रखने जैसे जरूरी कदम भी उठाने होंगे। किताब के एक अंश में उन्होंने लिखा है, “भारतीय खेती न अब सफलता की कहानी है और न ही भारत माता गांवों में रहती हैं। शहरों में इतना काम नहीं है कि बड़ी आबादी को खेती से दूर किया जा सके।”
कोविड में मध्य वर्ग के संचालक या पढ़े-लिखे और दक्ष लोगों के काम और रोजगार खत्म हो गए, उनका क्या हुआ? पुस्तक का एक अंश ठेके पर काम करने वाली अर्थव्यवस्था या गिग इकोनॉमी का जिक्र करते हुए रोजगारों का तदर्थवाद (एड-हॉकिज्म) के पहलू सामने रखता है। लेखक बताते हैं कि कोविड ने सब बदल दिया है। फ्रीलांस काम करने वालों की एक बड़ा दल खड़ा हो गया है। बकौल लेखक, “फ्रीलांस काम के लिए एक प्रमुख वैश्विक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म फ्रीलांसर डॉट कॉम पर भारतीय सबसे अधिक संख्या में मौजूद हैं और उनकी संख्या संख्या मार्च 2020 से लगातार बढ़ी है।” वहीं भारत में अगले कुछ वर्षों में गिग कर्मचारियों की संख्या 80 लाख से बढ़कर एक करोड़ तक हो जाएगी।
पुस्तक का दूसरा खंड “दरारों के बीच” बताता है कि भारत में एकाधिकार पर बहस अभी शुरू नहीं हुई है। किताब का अंश बताता है “डिजिटल प्लेटफॉर्म और डेटा पर भारी-भरकम एकाधिकार मुक्त बाजार राजनैतिक स्थिरता और निजता के लिए भी खतरा है। दुनिया के कानून निर्माता कंपनियों की तुलना में बेहद सुस्त हैं।” सरकारों ने कभी कानूनों के जरिए डिजिटल एकाधिकारों को तोड़ने या रोकने का सोचा नहीं है। वहीं इस खंड में एक अहम तथ्य पुस्तक सामने रखती है कि भारत में क्रेडिट बूम की श्रद्धांजलि हो चुकी है। इसके अलावा कर्ज बांटने वाली कई गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) बंद हो जाएंगी और जो बचेंगी वह कर्ज बांटने में कई बार सोचेंगी। यह तथ्य बताता है कि ग्रामीण भारत में एनबीएफसी के भरोसे बैठे कई लोगों को झटका लगेगा।
पुस्तक का यह खंड किरदारों के जरिए बैकिंग प्रणाली, कर्ज और रोजगार के इर्द-गिर्द कई आंकड़े और तथ्यों को सामने रखता है। अर्थ की समझ न रखने वालों के लिए इस खंड को थोड़ा जोर देकर पढना और समझना पड़ सकता है।
किताब का अंतिम खंड ही “उलटी गिनती” का साक्षात है जिसके निष्कर्ष में लेखक अर्थविद लैंट प्रिचेट का हवाला देते हुए लिखते हैं कि यहां की गवर्नेंस मशीन कुंभ मेले जैसे बड़े आयोजन सफलता से कर लेती है लेकिन सबको पीने का पानी, चिकित्सा और निरंतर सुविधाएं दे पाने में असफल हो जाती है।
लेखक इन दुविधाओं से निकालने के लिए मध्य वर्ग के आकार को दोगुना करने का समाधान पेश करते हैं। किताब में कई तथ्य बहस की गुंजाइश पैदा करते हैं और आपको यह समझाने में सफल होते हैं कि किस तरह से कोविडकाल के बाद आपका भविष्य जटिलताओं और दुविधाओं से भरा हुआ है।