विकास

मनरेगा में काम के दिन बढ़ने चाहिए : पूरन चंद्र किशन

राजस्थान में अप्रैल 2020 से 21 जुलाई तक 57.34 लाख परिवारों के 77.17 लाख लोगों को रोजगार मिला है

Anil Ashwani Sharma

राजस्थान में लॉकडाउन के दौरान महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के अंतर्गत कई ऐसे काम किए गए जो नियमित रूप से किए गए कामों से अलग थे। इस दौरान राज्य में बड़ी संख्या में प्रवासियों को भी मनरेगा ने आत्मसात किया। राज्य में मनरेगा के तहत हुए कामों को लेकर डाउन टू अर्थ ने राज्य के मनरेगा आयुक्त पूरण चंद्र किशन से विस्तृत बात की  

कोविड-19 के दौरान मनरेगा में कुल कितने लोगों को रोजगार मिला है? 

इस योजना के तहत अप्रैल 2020 से 21 जुलाई तक राजस्थान में 57.34 लाख परिवारों के 77.17 लाख लोगों को रोजगार मिला है जिससे 18.90 करोड़ मानव दिवस सृजित हुए हैं। यह वित्तीय वर्ष 2020-21 के कुल लक्ष्य 30 करोड़ मानव दिवस सृजन का 63 प्रतिशत है। यानी वर्ष की पहली तिमाही में हमने लक्ष्य का 63 फीसदी हासिल कर लिया।

किस प्रकार के मजदूरों को अधिक मौका मिला?

मनरेगा में ग्रामीण क्षेत्रों में लौट रहे प्रवासी मजदूरों को प्राथमिकता के आधार पर रोजगार उपलब्ध कराया जा रहा है। अब तक लगभग 2.33 लाख प्रवासी परिवारों को रोजगार उपलब्ध कराया गया है। योजना के उद्देश्यों के अनुसार, इस वित्तीय वर्ष के दौरान समाज के पिछड़े तबके जैसे 11.90 लाख अनुसूचित जाति, 13.13 लाख अनुसूचित जनजाति 47.51 लाख अन्य महिलाओं को रोजगार उपलब्ध कराया गया है।  

क्या आपको लगता है कि अब मनरेगा में संशोधन की जरूरत है?

सुधार की गुजाइंश हमेशा हर चीज में बनी रहती है। मनरेगा में भी है। लेकिन पहले की तुलना में योजना में काफी सुधार हुए हैं और वक्त के साथ आगे भी होंगे। मनरेगा को लेकर आम जनता में धारणा थी कि यह एक गड्ढा खोदो योजना है, इसमें किसी भी प्रकार की परिसम्पत्तियों का सृजन या निर्माण नहीं होता। पहले मनरेगा में 12 प्रकार के कार्य कराए जा सकते थे, लेकिन अब इन्हें बढ़ाकर 260 कर दिया गया है। इन कार्यों को चार श्रेणियों में बांटा हुआ है। प्राकृतिक संसाधन विकास, व्यक्तिगत लाभार्थियों के खेतों पर मेडबंदी, चैकडेम, कैटलशेड निर्माण, खेत समतलीकरण, आजीविका सुरक्षित करने हेतु संसाधनों का विकास, क्षेत्रीय विकास हेतु ग्रामीण संयोजकता, खेल मैदान, खाद्य भंडारण गृह, आंगनबाडी केन्द्रों का निर्माण भी मनरेगा से जोड़ा गया है। इससे परिसंपत्तियों का निर्माण हो रहा है। इसके अलावा कार्य योजना बनाने के लिए जीआईएस बेस्ड तकनीकी उपयोग में लाई जा रही है। प्रत्येक कार्य की तीन स्तर पर जियो टैगिंग की जा रही हैं तथा मास्टररोल में रियल टाइम बेस्ड उपस्थिति दर्ज करने हेतु मोबाइल मॉनिटरिंग सिस्टम का प्रयोग भी शुरू कर दिया गया है। योजना में लिंकेज को रोकने के लिये समस्त कार्यों के श्रम एवं सामग्री मद की राशि के भुगतान के विवरण का दीवार लेखन ग्राम पंचायत स्तर पर कराया जा रहा है।

राजस्थान में मनरेगा की सफलता का राज क्या है?

मनरेगा में ग्रामीण कामगारों को अनेक प्रकार के हक प्रदान किए गए हैं, जैसे जॉबकार्ड का अधिकार, कार्य की मांग का अधिकार, प्रपत्र-6 (काम मांगने वाला कागज) की दिनांकित पावती रसीद का अधिकार, समय पर भुगतान का अधिकार, भुगतान में देरी के लिए मुआवजे का अधिकार, बेरोजगारी भत्ता आदि। राज्य में इन अधिकारों के बारे में व्यापक प्रचार-प्रसार कर लोगों को जागरूक किया गया है। राज्य में 05.01.2020 से 31.03.2020 तक “काम मांगो” विशेष अभियान चलाकर योजना के प्रावधानों के बारे में ग्रामीण समुदाय को जागरूक किया गया। साथ ही योजना पर विशेष ध्यान दिए जाने के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को समय-समय पर निर्देशित किया गया जिसके कारण राज्य में योजना का सफल क्रियान्वयन संभव हुआ है।  

प्रवासियों के लिए यह योजना कारगर सिद्ध हुई है?

सभी जिलों ने कोविड संकट के दौरान बेहतर कार्य करने का प्रयास किया है। हमारी कोशिश रही कि सभी जिलों में प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के जरिए रोजगार से जोड़ा जाए ताकि उन्हें आर्थिक तंगी का सामना न करना पड़े। कोरोना संकट के दौरान कैटेगरी बी के कार्य जिनमें व्यक्तिगत लाभार्थियों के खेतों पर मेडबंदी, चैकडेम, कैटलशेड निर्माण, खेत समतलीकरण आदि के कार्य करवाए गए हैं। इससे निजी संपत्तियों का निर्माण भी हुआ और मनरेगा में लोगों को काम भी मिला। कोविड-19 के दौरान 14.97 लाख मजदूरों के 5.43 लाख नए जॉबकार्ड बनाए गए हैं।  

क्या अब हम कह सकते हैं कि मनरेगा के कामों को छोटा नहीं मानना चाहिए क्योंकि युवा भी इसमें काम कर रहे हैं?

यह बात एक हद तक ठीक है क्योंकि मनरेगा ग्रामीण भारत में रहने वाले वंचित लोगों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने, आजीविका सुरक्षित करने एवं गांवों से हो रहे पलायन को रोकने उद्देश्य से अकुशल श्रमिकों के लिए बनाई गई है। पढ़े-लिखे लोग योजनान्तर्गत प्रशिक्षण प्राप्त कर मेट का कार्य कर रहे हैं। उच्च योग्यता प्राप्त व्यक्तियों की आजीविका सुरक्षित करने के लिए व्यक्तिगत लाभ हेतु राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) के साथ समन्वय कर डेयरी, पोल्ट्री, मछली पालन, मुर्गी पालन के साथ उन्हें जोड़ा जा रहा है।  

पुरुषों के मुकाबले महिलाओं के लिए यह योजना कितनी कारगर सिद्ध हुई है?

हमारे देश की सामाजिक संरचना बड़ी ही जटिल है। इसमें महिलाओं की निर्भरता पुरुष वर्ग पर ज्यादा मानी जाती है लेकिन मनरेगा से यह बदला है। महिलाओं के खातों में पैसा पहुंच रहा तो वे आत्मनिर्भर हो रही हैं। कस्बाई क्षेत्रों में घरेलू कामगार महिलाओं को बमुश्किल 500 रुपए महीना मेहनताना मिलता है और वे तीन से चार घरों में काम पर जाती थीं। इस तरह महीने में 1500-2000 रुपए ही कमा पाती थीं।  लेकिन यही महिलाएं जब मनरेगा में काम करने जा रही हैं तो इन्हें 13 दिन में ही 2200 रुपए तक मजदूरी मिल रही है, यानी उनकी महीने की कमाई बढ़ी है। महीने के बचे हुए वक्त में वे और काम कर रही हैं। लॉकडाउन के दौरान जब सारे काम बंद थे, तब मनरेगा में काम कर रही महिलाओं की आय से ही परिवारों का खर्चा चला है। इस तरह महिलाएं मनरेगा से आत्मनिर्भर तो हो ही रही हैं, बल्कि उनमें आत्मविश्वास भी बढ़ रहा है।  

मजदूरों में यह विश्वास कैसे पैदा किया कि उनके द्वारा किया जा रहा काम उनकी भलाई के लिए है?

प्रत्येक जिले में अलग-अलग प्रकार की गतिविधियां अपनाई जाती हैं। जिलेवार ग्रामीणों की आवश्यकताओं एवं उनकी मांग के अनुरूप कार्य योजना तैयार की जाती है और ग्रामसभा में अनुमोदन के बाद ही विकास के कार्य कराए जा रहे हैं। इनमें सिंचाई के संसाधनों का विकास, कृषि भूमि विकास, चारागाह विकास एवं ग्रामीण संयोजकता जैसे काम शामिल हैं। ऐसे कामों से ग्रामीणों में यह विश्वास पैदा होता है कि इसका फायदा हमें और हमारे बच्चों को मिलेगा तो वे निजी तौर पर रुचि लेकर काम करते हैं।

क्या आपने ग्रामीणों से परामर्श लिया कि कौन सा काम करना सही होगा या आपने जो निश्चित कर दिया है वही किया गया?

मनरेगा में हर एक गांव की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए कार्य कराए जाते हैं। इसके लिए योजना तैयार कर ग्रामसभा से उनका अनुमोदन कराया जाता है। इस तरह हर काम में पंचायत की सीधी भूमिका होती है। राज्य स्तर पर कोई काम स्वीकृत या प्रस्तावित नहीं होता है।

दूसरे राज्यों के मुकाबले राजस्थान राज्य की चर्चा क्यों हो रही है?

राजस्थान मनरेगा के तहत 18.90 करोड़ मानव दिवस सृजित कर देश में प्रथम स्थान पर है तथा 57.34 लाख परिवारों को लाभान्वित कर उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है। राजस्थान में 99.84 प्रतिशत परिवारों को समयसीमा के अंदर काम का भुगतान किया जा रहा है। राज्य में कोविड-19 महामारी एवं लॉकडाउन से उत्पन्न आजीविका के संकट तथा प्रवासी मजदूरों के आगमन के कारण कार्य की मांग में अत्यधिक वृद्धि हुई है। प्रशासन ने पूरी मेहनत और क्षमता के साथ मजदूरों को रोजगार उपलब्ध करवाया है।  

कई सामाजिक संगठन 100 दिन के काम की गारंटी को बढ़ाकर 200 दिन किए जाने की मांग कर रहे हैं। आपकी इस पर क्या राय है?

भारत के हालिया इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि लोग शहरों से गांव की तरफ पलायन कर आए हैं। यह तय है कि ये प्रवासी मजदूर बहुत जल्द शहरों में नहीं लौटेंगे। तब तक तो नहीं जब तक इनकी लॉकडाउन की कड़वी यादें नहीं मिटतीं। ऐसे में इन्हें गांव में काम की जरूरत होगी, इसीलिए 100 दिन के काम की गारंटी को फिलहाल बढ़ाने की जरूरत है। हालांकि इसका दूसरा पक्ष भी है कि हमें ऐसा मॉडल नहीं बनाना चाहिए जो सरकार पर बहुत अधिक निर्भर हो। ग्रामीण लोगों का काम की तलाश में शहरों में पलायन होता ही आया है। यह पलायन हमारी अर्थव्यवस्था को गति देता रहता है। साथ ही यह ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद विभिन्न सामंती संरचनाओं को भी तोड़ता है। लेकिन फिर भी अगर स्थायी नहीं तो अस्थायी तौर पर काम के दिन बढ़ने चाहिए।

क्या ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की तरह शहरी रोजगार गारंटी योजना की आवश्यकता है?

शहरी क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्र की तरह सार्वजनिक भूमि एवं कृषि भूमि उपलब्ध नहीं होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों के तरह कार्य कराना संभव नहीं हैं। साथ ही शहरों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा कुशल श्रमिक हैं जिन्हें माइक्रो फाइनैंस के माध्यम से जोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा शहरी आजीविका मिशन को और प्रभावी बनाना चाहिए  जिससे शहरों में भी ज्यादा रोजगार पैदा हो सकें।