उत्तराखंड दौरे पर आए केंद्रीय गृह और सहकारिता मंत्री अमित शाह ने आज घस्यारी कल्याण योजना का शुभारंभ किया। इस योजना की घोषणा पिछले वर्ष त्रिवेंद्र सिंह रावत के शासनकाल में की गई थी। इस वर्ष फरवरी में कैबिनेट ने योजना को अपनी मंजूरी दी थी।
केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने देहरादून में कहा “देवभूमि में पहाड़ की चोटियों पर विपरीत मौसम में गाय-भैंस को चारा डालने में महिलाओं को बहुत दिक्कत आती है। इस योजना के तहत लगभग दो हज़ार किसान दो हजार एकड़ में मक्के की खेती करेंगे। इससे वैज्ञानिक तरीके से पशुआहार बनाया जाएगा।
तकरीबन 1 लाख किसानों तक इस योजना का फायदा इसका पहुंचेगा। हालांकि पशुओं को थोड़ा बहुत गीला-हरा चारा डालना पड़ेगा। लेकिन पशुओं के चारे की व्यवस्था के लिए महिलाओं की ज्यादातर मेहनत समाप्त हो जाएगी। वे अपने बचे हुए समय को बच्चों को पढ़ाने या अन्य कार्यों में इस्तेमाल कर सकेंगी”।
पलायन रोकने की दिशा में काम कर रही संस्था पलायन एक चिंतन के संयोजक रतन सिंह असवाल कहते हैं “एक औसत पशु को दिन भर में तकरीबन 30-40 किलो चारे की जरूरत होती है। तो एक पशु पर ही कम से कम 60 रुपये रोज़ाना का खर्च आया। यदि किसी के पास दो-तीन या उससे अधिक पशु हैं तो उस लिहाज से चारे की लागत भी उतनी ही बढ़ जाएगी।
रतन सिंह कहते हैं कि इससे बेहतर होता कि पहाड़ की महिलाओं के लिए स्वरोजगार की योजना लाते। जिससे स्थानीय कंडाली, बिच्छू घास, भीमल का इस्तेमाल कर महिलाएं अपनी आजीविका बेहतर कर पातीं”। वे इस योजना के धरातल पर उतर पाने में संदेह जताते हैं। साथ ही घसियारी शब्द पर आपत्ति भी। वह कहते हैं “घसियारी शब्द में सम्मान नहीं है, इसका इस्तेमाल हेयदृष्टि से कहे गए शब्द के तौर पर किया जाता है”।
उत्तरकाशी में पर्यावरणविद् सुरेश भाई कहते हैं “ये योजना ज़मीनी सोच नहीं दर्शाती। रुड़की में चारा पैदा करो और हर्षिल पहुंचाओ। जब आपके गांव के नज़दीक ही हरी मुलायम घास उपलब्ध है। तो कोई चारा क्यों खरीदेगा। आपको उसी घास को घर तक पहुंचाने का इंतज़ाम करना है। महिलाओं के सिर और पीठ का बोध कम करने वाली तकनीक पर कार्य करना चाहिए। या फिर आप महिलाओं को एक-एख घोड़ा ही दे देते, जिसे लेकर वो रोज़ जंगल जाती। वह कहते हैं कि गांव में पशुपालन तेजी से खत्म हो रहा है। रोजाना 200-300 रुपये का चारा खरीदना ग्रामीणों के लिए संभव नहीं है”।
उत्तरकाशी के पटारा गांव की हिम-पटारा स्वयं सहायता समूह की अध्यक्ष सरतमा देवी कहती हैं “दुधारू पशुओं के लिए हमें चारा खरीदना ही पड़ता है। वो चारा तकरीबन 10 रुपये प्रति किलो तक आता है। ऐसे में 2 रुपये किलो में चारा मिल जाएगा तो ग्रामीणों को कुछ राहत जरूर मिलेगी”। वे आगे कहती हैं “महिलाओं को फिर भी घास और लकड़ी के लिए जंगल जाना ही पड़ेगा। हमारे गांव में ज्यादातर लोगों के पास भैंसें हैं। एक भैंस रोजाना तकरीबन 50-60 किलो तक चारा खाती है। दुधारू पशुओं को भी हम ज्यादातर हरी पत्तियों वाली घास ही खिलाते हैं। बीच-बीच में थोड़ा बहुत बाहर से खरीदा चारा दे देते हैं”।
देहरादून में महिला सामाख्या कार्यक्रम की निदेशक रह चुकी गीता गैरौला भी घसियारी योजना से बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं जताती। वह कहती हैं “पहाड़ के जीवन में महिलाओं को पशुओं के लिए चारे के साथ भोजन पकाने के लिए लकड़ी की व्यवस्था करनी ही पड़ती है। वह मानती हैं कि ये योजना मैदानी क्षेत्रों को ध्यान में रखकर बनाई गई है। पहाड़ की स्थितियां अलग हैं”।
सरकार के आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखंड राज्य समेकित सहकारी विकास परियोजना के तहत सायलेज फेडरेशन के ज़रिये वर्ष 2021-22 में 1 हज़ार किसानों की 1 हज़ार एकड़ ज़मीन पर 10 हज़ार मीट्रिक टन हरे मक्के का उत्पादन किया गया। जिससे किसानों को 2 करोड़ का भुगतान किया गया। यानी एक किसान को 20 हज़ार रुपये। मक्के की फसल 90-120 दिन में तैयार होती है।
इस योजना के तहत सायलेज फेडरेशन का लक्ष्य राज्य में चारे की मांग को पूरा करने के लिए पौष्टिक चारा और कुल मिश्रित राशन का प्रतिवर्ष 10 हजार मीट्रिक टन उत्पादन करना है। जिससे महिलाओं के कार्यबोझ में कमी आए। साथ ही चारा लाने के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं को भी रोका जा सके।