कोरोनावायरस संक्रमण को रोकने के लिए जब पूरे देश में लॉकडाउन हुआ और काम धंधे बंद हो गए तो सबसे पहले मनरेगा के काम शुरू हुए। मकसद था, शहरों से लौटे प्रवासियों और ग्रामीणों को फौरी राहत पहुंचाना। उत्तराखंड में भी मनरेगा के तहत अप्रैल के आखिरी सप्ताह में काम शुरू हो गए थे। लेकिन क्या मनरेगा उत्तराखंड के प्रवासियों को अपने गांव में ही रोक सकता है? क्या मनरेगा उत्तराखंड के ग्रामीणों के काम आ रहा है? क्या मनरेगा से उत्तराखंड में हालात बदल सकते हैं? ऐसे ही कुछ सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश डाउन टू अर्थ ने की है। इसे कड़ी-दर-कड़ी प्रकाशित किया जाएगा। प्रस्तुत है, पहली कड़ी-
जब देश में कोरोनावायरस संक्रमण बढ़ा और लॉकडाउन की घोषणा हुई, उस समय किशन जुयाल पुणे में थे। वह वहां अपना फेब्रिकेशन का छोटा सा काम करते थे। जितना कमाते थे, उसका एक हिस्सा अपने परिवार को भेज देते थे। बचता कुछ नहीं था, लेकिन फिर भी गुजरा हो रहा था। लॉकडाउन होने के बाद लगभग डेढ़ माह पुणे में ही रहे। सोचा, सब सामान्य हो जाएगा तो फिर से अपना काम करने लगेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और मजबूरन उन्हें अपने गांव आना पड़ा।
उनका गांव बौंडुल उत्तराखंड के पौड़ी जिले में हैं। जब वे लौटे तो उनकी मां घर पर अकेली थी। पत्नी व बच्चे गांव से बाहर पढ़ाई के लिए एक कस्बे में रहते थे, लेकिन लॉकडाउन की वजह से बच्चे भी घर आ गए। 14 दिन के क्वोरांटीन के दौरान उन्होंने घर के आसपास के खेत ठीक किए और वहां सब्जी की बुआई की, लेकिन परिवार की माली हालत ठीक नहीं थी और उनके पास भी पैसा नहीं बचा था तो समस्या खड़ी हो गई कि अब परिवार कैसे पलेगा।
तब उन्हें पता चला कि सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत बाहर से लौटे प्रवासियों को काम देने की घोषणा की है। बस उन्होंने ग्राम प्रधान से संपर्क किया और प्रधान ने अपने गांव के पास की बंजर जमीन पर खंती (जल संरक्षण के लिए छोटे-छोटे गड्ढे) खोदने का काम दे दिया। अब उन्हें दिन भर की दिहाड़ी के रूप में 201 रुपए मिल रहे हैं। किशन बताते हैं कि बेशक दिहाड़ी काफी नहीं है, लेकिन इन दिनों इतने पैसे मिलना भी राहत की बात है।
हालांकि उनका कहना है कि यह स्थायी समाधान नहीं है। सरकार कह रही है कि साल में 100 दिन का काम मिलेगा, लेकिन मुझे नहीं लगता कि 100 दिन काम मिल पाएगा। अभी तो लॉकडाउन है और कुछ दिन तो 200 रुपए ठीक भी है, लेकिन 200 रुपए से क्या होता है? बच्चे बड़े हो चुके हैं, उन्हें पढ़ाना भी है। अगर बीमार हो गए तो इतने पैसे से क्या होगा? किशन जुयाल की तरह दुर्गेश जुयाल भी गुड़गांव से लौटे हैं। वह भी मनरेगा का काम कर रहे हैं। वह कहते हैं कि मनरेगा अकुशल लोगों और महिलाओं के लिए तो ठीक है, लेकिन सरकार को बाहर से लौटे कुशल लोगों के लिए रोजगार के दूसरे इंतजाम करने चाहिए।
दरअसल, कोरोना और लॉकडाउन के कारण जब शहरों में काम बंद हो गए तो दूसरे राज्यों की तरह उत्तराखंड में भी प्रवासी लौटे हैं। उत्तराखंड सरकार के अधिकृत आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में 3 लाख 30 हजार से अधिक प्रवासी लौटे हैं। दूसरे राज्यों की ही तरह इन प्रवासियों को फौरी राहत पहुंचाने के लिए उत्तराखंड सरकार ने भी राज्य में प्रवासियों को मनरेगा का काम देने के निर्देश दिए। इसका असर भी दिखा है।
डाउन टू अर्थ ने जब उत्तराखंड का दौरा किया तो कई गांवों में प्रवासी मनरेगा का काम करते दिखाई दिए। पौड़ी जिले के कल्जीखाल ब्लॉक के बूंगा गांव में लगभग एक दर्जन युवा मनरेगा का काम करते देखे गए। इनमें शामिल किशन देव कत्याल दिल्ली में एक अमेरिकन कंपनी में काम करते थे। लॉकडाउन की घोषणा होते ही कंपनी ने उन्हें इस्तीफा देने को कहा और वह इस्तीफा देकर गांव आ गए। वह कहते हैं कि मनरेगा में युवाओं का भविष्य नहीं है। अभी तो खाली बैठे हैं, इसलिए मनरेगा का काम कर रहे हैं, लेकिन अगर सरकार प्रवासियों को रोकना चाहती है तो रोजगार के नए काम शुरू करना चाहिए। एमकॉम के छात्र मोहित सिंह कहते हैं कि मनरेगा से पढ़े लिखे युवाओं को कैसे जोड़ सकते हैं। उन्हें तो सरकार को उनकी योग्यता के हिसाब से काम देना होगा। जो अभी सरकार नहीं कर रही है।
अगली कड़ी में पढ़ें, उत्तराखंड में कितनी मांग बढ़ी-