विकास

बिहार चुनाव में क्यों पीछे छूट गए असली मुद्दे

मानव विकास सूचकांक में आखिरी पायदान पर खड़े बिहार में आजीविका, पलायन, खेती, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण जैसे सवालों का पीछे छूट जाना नाउम्मीद करता है

Pushya Mitra

बेरोजगारी और दस लाख सरकारी नौकरी के वादों के साथ शुरू हुआ बिहार का चुनाव, पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई, सुनवाई और कार्रवाई के नारों के साथ जरूर परवान पर चढ़ा, मगर चुनाव खत्म हुआ और नतीजे सामने आये तो समझ में आय़ा कि बिहार चुनाव में आम जनता से जुड़े सवाल राजनीतिक दलों के नारे तो बने मगर असल में वे चुनाव को बहुत अधिक प्रभावित नहीं कर पाये। मानव विकास सूचकांक में आखिरी पायदान पर खड़े बिहार में आजीविका, पलायन, खेती, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, नदियां और तालाब आदि के सवालों पीछे छूट जाना नाउम्मीद करता है। इन मुद्दों की पीछे छूटने का मतलब यही है कि बिहार इस चुनाव के बाद भी अपनी उसी पुरानी जगह पर ठिठका और ठहरा रहेगा।

आजीविका और पलायन हैं बड़े सवाल

अगर हम बिहार की मौजूदा स्थिति को देखते हैं तो वहां के लोगों के लिए आजीविका और पलायन बड़े सवाल हैं। इसी वजह से जब महागठबंधन ने दस लाख सरकारी नौकरियों का वादा किया तो उसे युवाओं की तरफ से काफी समर्थन मिला। बाद में एनडीए ने भी साढ़े चार लाख सरकारी नौकरियां और 19 लाख लोगों के लिए रोजगार का वादा किया। हालांकि ये सिर्फ चुनावी वादे थे और इनका कोई ब्लू प्रिंट बताया नहीं गया था। यह भी सच है कि 10 लाख या 19 लाख लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था करने से बिहार की समस्या सुलझने वाली नहीं। मगर इससे एक सार्थक बहस की शुरुआत जरूर हुई, मगर पहले चुनाव के बाद उस बहस का शोर मंद पड़ने लगा और चुनाव जातियों पर शिफ्ट होने लगे।

आजीविका के साथ बिहार में पलायन का बड़ा सवाल भी जुड़ा है। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ पापुलेशन साइंस के फरवरी, 2020 के सर्वे के मुताबिक राज्य के हर दूसरे परिवार का कोई न कोई सदस्य पलायन करता है। उनमें से 90 फीसदी असंगठित मजदूरी का काम करते हैं और उनकी औसत आय सालाना महज 26 हजार रुपये ही है। यहां पलायन का संकट कितना बड़ा है, यह कोरोना काल में समझ आय़ा। जब लोग लॉकडाउन के दो हफ्ते भी गुजार नहीं पाये और पैदल ही अपने घर की तरफ निकल पड़े। जो लोग बिहार में रहते थे, उनका भी हाल बुरा हो गया। आधे से अधिक परिवार कर्जदार हो गये। वे एक बार फिर से महाजन के चंगुल में फंस गये।

शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल 

बिहार में स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति कितनी लचर है, यह भी कोरोना काल में जाहिर हो गया। बाद में पता चला कि राज्य में जून, 2020 तक सिर्फ 2877 सरकारी डॉक्टर कार्यरत थे, जो कुल स्वीकृत पदों का एक चौथाई है। नर्सों के भी तीन चौथाई पद खाली थे। कोरोना काल से ही राज्य में सरकारी स्कूल बंद हैं और गरीब तबके के बच्चों की पढ़ाई पूरी तरह ठप है। इस वजह से बाल मजदूरी, बाल तस्करी और बाल विवाह जैसी समस्याएं लगातार बढ़ रही है। मगर इन सवालों की भनक तक पूरे चुनाव अभियान में नजर नहीं आयी।

जल संसाधनों का कुप्रबंध और बाढ़

बिहार में बारिश के दिनों में नदियों में आने वाली बाढ़ एक गंभीर आपदा बन चुकी है। हर साल आने वाली बाढ़ यहां की गरीब आबादी को और गरीब बना देती है। जिस बाढ़ से कभी उत्तर बिहार में अच्छी खेती की संभावना बढ़ जाती थी, अब वह लोगों को कंगाल बनाने और पलायन के लिए विवश करने लगी है। जानकार इसके पीछे राज्य की नदियों का कुप्रबंध और उसे बाढ़ सुरक्षा के नाम पर तटबंधों से घेरने की नीति को जिम्मेवार मानते हैं। मगर बाढ़ से होने वाले नुकसान की वजह और तटबंधों की समीक्षा को लेकर कोई अध्ययन नहीं होता। कोई बेहतर पालिसी नहीं बनता। इसी वजह से बिहार में जल संपदा आपदा बन गयी है।

प्रदूषण का सवाल

यह दुखद है कि किसी उद्योग धंधे के बगैर ही पटना समेत बिहार के दूसरे शहर प्रदूषण के मामले में सबसे आगे हैं। ज्यादातर शहरों की हवा सांस लेने लायक नहीं है। गंदगी चारो तरफ बिखरी नजर आती है और वाहनों के चिल्ल-पों से लोगों के कान बहरे होने की नौबत आ जाती है। मगर जब लोग अपने जीवन से संबंधित बहुत जरूरी मुद्दों पर बातचीत नहीं करते तो फिर तो यह मुद्दा उनकी समझ में ही नहीं आता।

खेती किसान

जिस बिहार की लगभग 90 फीसदी आबादी गांवों में रहती है, वहां के चुनाव से खेती किसानी के मुद्दे का पूरी तरह गायब रहना भी बेहद निराशाजनक है। अभी कुछ ही दिनों पहले यहां के किसानों को मक्के की फसल आधी कीमत में बेचने के लिए मजबूर होना पड़ा है। धान और गेहूं की सरकारी खरीद की व्यवस्था पहले से ही चौपट है। एपीएमसी कानून यहां पहले से ही हटा दिया गया है। मगर किसान अपने इन सवालों को चुनावी मुद्दा नहीं बनाते। वोट देते वक्त वे जातियों में बंट जाते हैं। इस चुनाव में भी वही हुआ।

जमीन के सवाल

इसके साथ ही बिहार में भूमिहीन लोगों का सवाल भी काफी बड़ा है। यहां की 65 फीसदी आबादी भूमिहीन है। ज्यादातर लोगों के पास रहने की जमीन नहीं है। वे पूरे साल इन सवालों को लेकर संघर्षरत रहते हैं। बिहार में इन सवालों के समाधान के लिए जो बंद्योपाध्याय कमिटी बनी, उसकी सिफारिशों को भी लागू नहीं किया गया। लैफ्ट पार्टियों के इस चुनाव में काफी सक्रिय होने के बावजूद यह मुद्दा चुनावी बहसों में नजर नहीं आया।

फिर जाति पर फोकस हो गयी राजनीति

हमेशा की तरह इस चुनाव में भी बिहार की राजनीति जाति पर फोकस हो गयी। मुद्दे उठे जरूर, मगर वे बहसों का हिस्सा बने, लेकिन जब मतदाताओं के सामने वोटिंग का मौका आया तो उसने जाति गणित के आधार पर मतदान किया। पूरे चुनाव में जो दावा हुआ, जो बातें हुए कि बिहार में इस बार नयी बात हो रही है, वह चुनाव के पहले ही चरण में काम करती नजर आयी। दूसरे और तीसरे चरण में धराशायी हो गयी।