वर्ष 1992 में जबसे हमने अंग्रेजी में डाउन टू अर्थ का प्रकाशन शुरू किया, तब से पर्यावरण को बचाने और दुनिया को विकास के सुरक्षित रास्ते पर ले जाने की चुनौती बढ़ती ही जा रही है। साल 1992 में जब दुनिया भर के नेता ब्राजील के रियो शहर में पर्यावरण से जुड़ी चिंताओं पर मंथन के लिए जुटे तो एक नई अवधारणा सामने आई थी- सतत या टिकाऊ विकास। लेकिन आज कोई नहीं जानता कि इसका वास्तव में क्या मतलब है। मुझे लगता है, दुनिया अपने रास्ते से भटक चुकी है। एक समस्या सुलझती नहीं कि दूसरी पैदा हो जाती है।
आज के समय में अमीर देशों की आबोहवा हमारे मुकाबले काफी साफ-सुथरी लगती है, लेकिन यह ताजी हवा एक धोखा है। असल में, इन देशों ने अपने यहां प्रदूषण घटाने के लिए मेहनत की, बहुत पैसा बहाया और उन्नत तकनीक का इस्तेमाल किया है। लेकिन जब तक वे एक चीज की सफाई करते हैं, तब तक कोई दूसरा प्रदूषण सामने आ जाता है। फिर नए सिरे से कवायद शुरू होती है।
सरकार समस्या को समझने के लिए कोई समिति बना देती है, समाधान निकल भी जाता है, लेकिन उद्योग जगत और अन्य निहित स्वार्थ अड़ंगा लगा देते हैं। तब बीच का कोई रास्ता निकला जाता है, जिसके चलते समाधान की गति धीमी पड़ जाती है। पहले से अमीर मुल्कों में एक अच्छी बात यह है कि वे जो ठान लेते हैं उसे कर के रहते हैं। हालांकि, इससे भी ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। जल्द ही समस्या किसी नए रूप और नाम के साथ वापस लौट आती है।
हमारे जैसे देशों में पर्यावरण से जुड़ी समस्याएं और भी विकराल हो जाती हैं क्योंकि हमारे पास इनसे निपटने के लिए जरूरी संसाधन ही नहीं हैं। हमें करोड़ों लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं भी मुहैया करानी हैं, इसलिए तकनीकों पर ज्यादा खर्च नहीं कर सकते हैं। वास्तव में, हमें पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को सुलझाने के लिए सस्ते उपायों की जरूरत है। ऐसे समाधान जो सबके काम आ सकें। जिसे सब अपना सकें।
इसलिए तलाश निरंतर जारी है। पर्यावरण को लेकर तमाम चिंताओं और प्रकृति को हुए नुकसान की भरपाई पर भारी खर्च के बावजूद मनुष्य की गतिविधियों के कारण जलवायु में परिवर्तन निश्चित है। यह भी स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन के परिणाम खतरनाक होंगे, लेकिन हमें यह नहीं मालूम कि अब करना क्या है। हम जानते ही नहीं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर आर्थिक विकास कैसे संभव है। जलवायु परिवर्तन की समस्या इस आर्थिक विकास की ही देन है।
अगर कोई देश अपनी आर्थिक प्रगति के लिए अंधाधुंध खनिज तेल का दोहन करता है तो क्या दूसरे देशों को ऐसा करने की छूट नहीं मिलनी चाहिए? क्या बाकी देशों को तरक्की करने का अधिकार नहीं है? कुछ देश वायुमंडल को पहले ही कार्बन डाईऑक्साइड से भर चुके हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार एक प्रमुख प्रदूषणकारी गैस है। ऐसे में अन्य देशों के पास क्या विकल्प है? उनकी तरक्की के लिए तो कोई रास्ता ही नहीं बचा है। इस बीच, जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम भी नजर आने लगे हैं।
भारत का असल वित्त मंत्री ‘मानसून’ अत्यंत असामान्य और अस्थिर होता जा रहा है। इससे विनाशकारी बाढ़ और भीषण सूखे के हालात पैदा हो रहे हैं। इसकी सबसे ज्यादा मार किसानों पर पड़ रही है। उनके लिए मानसून अब उदासी का मौसम बनता जा रहा है।
ऐसे माहौल की वजह से हमें हिंदी में डाउन टू अर्थ की जरूरत महसूस हुई। अभी भी पर्यावरण को बचाने और टिकाऊ विकास के सारे रास्ते बंद नहीं हुए हैं। प्राकृतिक संसाधनों के समझदारी से इस्तेमाल के तौर-तरीके हमारे पारंपरिक ज्ञान और लोक संस्कृति में छिपे हैं। हम सदियों से जानते हैं कि प्रकृति, इंसान की जरूरतों को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं।
हम यह भी जानते हैं कि समाज के आखिरी व्यक्ति की बुनियादी जरूरतें पूरा करने के लिए विकास का समावेशी होना जरूरी है। इन बातों को हम बखूबी समझते हैं, फिर भी इस तरह के विचार अप्रासंगिक होते जा रहे हैं। हम नहीं जानते कि इन विचारों पर अमल कैसे किया जाए। अगर जानते भी हैं, तो इतना सामर्थ्य नहीं कि कुछ कर सकें। हमें इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।
डाउन टू अर्थ हिंदी हर महीने इसी दिशा में प्रयास करेगी। दुनिया भर में पर्यावरण, विकास और जीवन को प्रभावित करने वाली राजनीति में जो कुछ हो रहा है, उसे हम पूरे तथ्यों और बेबाकी के साथ आपके सामने रखेंगे। आने वाले कल की चुनौतियों का सामना करने के लिए वर्तमान को पूरी निडरता और ईमानदारी से परखने की जरूरत है। यही समय की मांग है।
sunita@cseindia.org