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पंचायत प्रतिनिधियों से पीएम का संवाद: एक अच्छी पहल, जो सस्ती लोकप्रियता की भेंट चढ़ गयी

उम्मीद यह थी कि इन स्थानीय सरकारों के महत्व का इजहार करते हुए प्रधानमंत्री इन्हें संविधान से मिले हुए अधिकार व शक्तियां दे देंगे

Satyam Shrivastava

पंचायती राज दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायती राज संस्थानों के प्रतिनिधियों से वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए बातचीत की। 2010 से  हर वर्ष 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन भारतीय संविधान के 73वें संशोधन अधिनियम, 1992 के पारित होने का प्रतीक है, जो 24 अप्रैल 1993 से लागू हुआ था।

बीते 10 सालों में इस दिन दिल्ली में एक बड़ा कार्यक्रम आयोजित होता रहा है, जिसमें देश के चुनिंदा पंचायत प्रतिनिधियों को उनके उत्कृष्ट काम के लिए सम्मानित किया गया। इस बार देश कोरोना काल से गुज़र रहा है इसलिए कोई भव्य आयोजन नहीं किया गया बल्कि वीडियो कान्फ्रेंसिंग के माध्यम से 31 लाख पंचायत प्रतिनिधियों को संबोधित किया गया और उनमें से कुछ राज्यों के पंचायत प्रतिनिधियों से उनके तजुर्बे भी सुने गए।

प्रधानमंत्री ने माना कि कोरोना संकट ने देश को और उन्हें बहुत सिखाया है और जो सबसे बुनियादी बात सिखाई है वो है आत्म-निर्भर होना। इस शब्द का ज़िक्र उन्होंने वजन डालने के लिए तीन बार किया – आत्म-निर्भर बनो, आत्म-निर्भर बनो और आत्म-निर्भर बनो!!

पंचायतों को कोरोना से जूझ रहे देश के लिए महत्वपूर्ण सिपाहियों के तौर पर देखा और यह माना कि पंचायतें इस विपदा में विकेंद्रीकृत ढंग से बेहतर काम कर सकती हैं।

उम्मीद यह थी कि इन स्थानीय सरकारों के महत्व का इजहार करते हुए प्रधानमंत्री इन्हें संविधान से मिले हुए अधिकार व शक्तियां दे देंगे और नौकरशाही के बेतहाशा बोझ से दबी पंचायतों को अपने विवेक से अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएगा और प्रधानमंत्री अपने संवाद में कुछ ऐसा नया कहेंगे, जो पंचायतों के पास पहले से नहीं था।

प्रधानमंत्री ने अपनी सरकार द्वारा किए गए प्रयासों से पंचायतों को ब्रॉड बैंड और इन्टरनेट से जोड़ने की बात भी कही। बताया कि लगभग एक लाख पच्चीस हजार पंचायतों को इंटरनेट से जोड़ दिया गया है। 2019 के चुनाव घोषणा पत्र में पंचायतों का जिक्र जिन दो स्थानों पर आया था, उनमें एक मामला यह भी था।

इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने पंचायत के कामों का लेखा-जोखा रखने के लिए और उन्हें ज्यादा पारदर्शी व जबावदेह बनाने के लिए एक ‘ई-ग्राम स्वराज पोर्टल’ लॉन्च किया। देश के पंचायती राज मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने एक अलग वीडियो संदेश में इसके बारे में थोड़ा विस्तार से बताया कि- “अभी तक चलन में रहे तमाम ऐप जैसे प्लान प्लस वगैरह को खत्म करते हुए यह नया ऐप जारी किया जा रहा है। इसके माध्यम से पंचायतों को बेहतर ढंग से पारदर्शी बनाया जा सकेगा”।

दूसरी बड़ी घोषणा गांव की आबादी के मकानों की मैपिंग के लिए स्वामित्व योजना को लेकर हुई। इसके माध्यम से आबादी की जमीन पर मालिकाना हक देने की दिशा में इस कदम को एक बड़ी पहल के तौर पर पेश किया गया। हर गांव की आबादी की जमीन की मैपिंग का काम ड्रोन तकनीक से किया जाएगा। शुरुआत में इस योजना को महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड समेत कुल 6 राज्यों में शामिल किया गया है। इन राज्यों से आए तजुर्बों के आधार पर इस योजना को बाकी राज्यों में भी लागू किया जाएगा।

यहां उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश की राज्य सरकार इस दिशा में पहले ही ठोस पहल कर चुकी है। मध्यप्रदेश भू-राजस्व संहिता की धारा 243, 244 व 245 के तहत गांव की पुरानी आबादी को उनके पुश्तैनी मकानों के पट्टे कुछ जिलों में दिए जा चुके हैं और कुछ जगहों पर इसका काम चल रहा है। हाल ही में 28 फरवरी 2020 को मध्य प्रदेश भू-संहिता को लागू करने के लिए नयी नियमावली भी जारी हुई है। बेहतर होता, अगर इस योजना में मध्यप्रदेश के तजुर्बों को भी शुरुआती दौर में शामिल किया जाता।

इन दो तकनीकी समाधानों के अलावा आज की इस वीडियो कान्फ्रेंसिंग से यह भी उम्मीद की जा रही थी कि इस विशेष परिस्थिति में पंचायतों को संसाधन पहुंचाने की ठोस व्यवस्था की जाएगी या पंचायतों को संसाधन खर्च करने की बेजा थोपी गई शर्तों में कटौती होती।

इसी देश में दो राज्यों ने पंचायतों को जिस तरह से कोरोना के कठिन दौर में इससे निपटने के लिए नेतृत्व दिया है, उसका भी प्रभाव प्रधानमंत्री के पूरे कार्यक्रम में दिखाई नहीं दिया। केरल में तो खैर सत्ता व संसाधनों के विकेन्द्रीकरण के लिए लाए गए 73वें संविधान संशोधन का शब्द और उसकी मूल भावना के अनुरूप पालन किया ही है और जिसका सबसे सकारात्मक असर इस कोरोना महामारी के कठिन दौर में दिखलाई भी दिया। आज केरल कोरोना से निपटने में जर्मनी और दक्षिण कोरिया की पंक्ति में खड़ा है।

ओडिशा सरकार ने भी हाल ही में पंचायतों की अहमियत समझते हुए सरपंचों को डीएम के जितने अधिकार सौंप दिए हैं। ओडिशा जिस प्रभावशाली रणनीति से इस भयंकर संकट में लोगों की जीवन रक्षा करते हुए दिखाई दे रहा है, उसमें राज्य सरकार और पंचायतों के बीच बने इस भरोसे और काम के तार्किक बंटवारे की भूमिका अहम है। जो राज्य भुखमरी के लिए दुनिया में कभी चर्चित हुआ था, आज सम्पूर्ण लॉकडाउन के दौरान भी गरीब, मजदूर और अप्रवासी मजदूरों के भूखे रहने की खबरें नहीं आ रही हैं। प्रचार से दूर  रखकर विपदाओं से कैसे निपटा जा सकता है, ये सबक भी ओडिशा से लिए जा सकते हैं।

बहरहाल, इन राज्यों का उल्लेख किया जाना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि प्रधानमंत्री ने कोरोना के खिलाफ ग्राम पंचायतों की रणनीतियों को समझने के लिए जिन राज्यों के प्रतिनिधियों को चुना, उनमें इन दोनों राज्यों से कोई प्रतिनिधि नहीं था। उन्होंने जम्मू–कश्मीर, कर्नाटक, बिहार, महाराष्ट्र, पंजाब और असम के पंचायत प्रतिनिधियों से बातचीत की। इनमें जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि से बात करना उनके दावों को पुष्ट करने के लिए ज़रूरी था जो वह 5 अगस्त 2019 के बाद से निरंतर दोहराते आ रहे हैं कि तमाम दलों में मौजूदा राजनैतिक नेतृत्व का विकल्प पंचायतों से उभर रहा है। लेकिन बाकी राज्यों मसलन उत्तर प्रदेश या बिहार में पंचायतों की कितनी अहमियत राज्य सरकारों ने दी हैं, इसे भी देखा जाना चाहिए था। बेहतर होता कि प्रधानमंत्री केरल और ओडिशा के पंचायत प्रतिनिधियों से भी बात करते।

मनरेगा जैसी ग्रामीण व्यवस्था को लेकर प्रधानमंत्री और पंचायत मंत्री की सकारात्मक दृष्टि उनके संसद में दिए उस बयान की ही पुष्टि करती दिखी, जिसमें उन्होंने कहा था कि –“मेरी सरकार इस योजना को बंद नहीं करेगी, क्योंकि यह कांग्रेस के 70 सालों की असफलता के स्मारक हैं। 70 सालों में गांव का गरीब केवल गड्ढे ही खोदने लायक हुआ है”। अपने पहले कार्यकाल में लिए गए इस संकल्प से ग्रामीण रोजगार और अर्थव्यवस्था की जमीन बचाने के इस प्रयास की सराहना होना चाहिए।

हालांकि यह एक अलग विषय हो सकता है, लेकिन प्रधानमंत्री को संविधान के अनुच्छेद 282 का सार्थक उपयोग करते हुए आपदा में पंचायतों को संसाधन मुहैया कराए जाने की बाबत कुछ ठोस योजना बनानी चाहिए थी। यह अनुच्छेद विविध वित्तीय प्रावधानों (मिसलेनियस फायनेंशियल प्रोव्हिजन) के तहत जोड़ा गया था। हालांकि इस मामले में सभी सरकारें एक ही तरीके से सोचती हैं और पंचायतों को संघीय सरकार द्वारा घोषित और पोषित योजनाओं को इसी प्रावधान के तहत संसाधन उपलब्ध कराये जाते हैं। जिनका जिक्र प्रधानमंत्री ने आज की वार्ता में भी किया। इस प्रावधान के इस्तेमाल में राज्यों की बुरी तरह अनदेखी की जाती रही है और सामान्य समय में लोक- कल्याण की तमाम योजनाओं में राज्य की भागीदारी व नियंत्रण प्राय: नहीं रहता, बल्कि संघीय सरकार सीधे जिला कलेक्टर के माध्यम से काम करने लगती है।

यह पूरी चर्चा अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने, सरपंच प्रतिनिधियों की तरफ मोदी जी द्वारा किए गए लॉकडाउन की प्रशंसा करने और असफलता के स्मारक गिनने में खर्च हो गई। ज्यादा ताज्जुब नहीं हुआ, जब जम्मू-कश्मीर के प्रतिनिधि ने भी लॉकडाउन की तारीफ की और इसे देशहित में बताया। उम्मीद थी कि व कम से कम अपनी बात की शुरूआत करते हुए कहते कि कश्मीर में तो पिछले 6 महीनों से हम लॉकडाउन में हैं और इस दौरान कैसे काम किया जाता है, हम सीख चुके हैं।

बहरहाल, एक अच्छी पहल जो सस्ते प्रचार की भेंट चढ़ गई। 

(लेखक सोसायटी फॉर रूरल, अर्बन एंड ट्राइबल इनिशिएटिव (श्रुति) से जुड़े हैं और भूमि, वन औ पानी जैसे मुद्दों पर काम कर रहे हैं। यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)