उत्तराखंड में चारधाम राजमार्ग परियोजना के तहत उत्तरकाशी जिले के सिलक्यारा के पास यमुनोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर निर्माणाधीन टनल में हुए भूस्खलन से 40 मजदूर पिछले करीब 60 घंटे से टनल के अंदर फंसे हुए हैं। जिला प्रशासन की माने तो फंसे हुए लोगों को पाइप लाइन के जरिये ऑक्सीजन, पानी और छोटे-छोटे खाने के पैकेट भेजे जा रहे हैं। वॉकी-टॉकी पर अंदर फंसे लोगों से बात हो रही है और सभी सुरक्षित हैं।
मजदूरों को निकालने के लिए अब तक किये गये प्रयासों पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि 4.5 किमी लंबी इस टनल के निर्माण में सुरक्षा की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं थी। पहले वर्टिकल ड्रिलिंग मशीन से चट्टान को ऊपर से काटकर फंसे हुए लोगों को निकालने की योजना थी, लेकिन वर्टिकल ड्रिलिंग मशीन दूर-दूर तक कहीं नहीं थी। उत्तराखंड जल संस्थान से मशीन मिली, लेकिन टनल के अंदर लगातार हो रहे भूस्खलन के कारण यह इरादा छोड़ देना पड़ा।
घटना के करीब 50 घंटे बाद 14 नवंबर की सुबह हरिद्वार से 900 मिमी व्यास के पाइप और ऑगर ड्रिलिंग मशीन मौके पर पहुंचाए गये। मशीन के लिए प्लेटफार्म बनाने के बाद मलबे को ड्रिल करके पाइप फंसे हुए लोगों तक पहुंचाने के प्रयास किये जा रहे हैं, ताकि इन पाइपों से होकर फंसे हुए लोगों को निकाला जा सके।
इस घटना के बाद भूवैज्ञानिकों ने एक बार फिर चारधाम राजमार्ग परियोजना पर सवाल उठाया है। भूवैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल का कहना है कि उत्तराखंड में टनल निर्माण के दौरान दो तरह की घटनाएं मुख्य रूप से सामने आती हैं। अचानक भारी मात्रा में पानी निकलना और अप्रत्याशित रूप से कतरनी चट्टानों (आपस की रगड़ से घिसी हुई) का मिलना।
इसरो के पूर्व वैज्ञानिक जुयाल सवाल करते हैं कि टनल के अलायनमेंट के समय जियोलॉजिकल और जियो टेक्नीकल जांच की गई होगी। ऐसे किसी भी निर्माण से पहले इस तरह की जांच की जाती है और उसकी रिपोर्ट निर्माण करने वाली एजेंसी को दी जाती है।
वे सवाल उठाते हैं क्या उस जांच रिपोर्ट में यह बात कही गई थी कि सिलक्यारा में, जहां टनल निर्माण हो यदि गंभीरता से जियोलॉजिकल और जियो टेक्नीकल जांच हुई होगी तो यह बात रिपोर्ट में अवश्य होगी। ऐसे में दूसरा सवाल यह उठता है कि टनल बनाने वाली कंपनी ने इस पर क्या अमल किया?
जुयाल के अनुसार घटनास्थल से कुछ किमी उत्तर और उत्तर पश्चिम से होकर मेन सेंट्रल थर्स्ट (एमसीटी) गुजरता है। इसका अर्थ है कि यह क्षेत्र भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील है और इसी वजह से इस क्षेत्र में रगड़न वाली कतरनी चट्टाने मौजूद हैं। पिछले दिनों वे खुद इस क्षेत्र में धरासू बैंड गये थे। वहां तीन लेबल की सड़क बन रही है, जबकि इस पूरे क्षेत्र में कतरनी चट्टाने हैं। यहां इतना भारी-भरकम निर्माण खतरनाक साबित हो सकता है।
जुयाल कहते हैं, “ बस, अब बहुत हो गया। समय आ गया है, जब जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए। परियोजनाओं की डीपीआर की गहरी जांच होनी चाहिए और जियोलॉजिकल व जियो टेक्नीकल जांचों की रिपोर्ट पर गंभीरता दिखानी होगी।”
उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष एसपी सती कहते हैं कि उत्तराखंड में टनल बनाने के दौरान विस्फोटकों का इस्तेमाल खुलकर किया जा रहा है। सिलक्यारा टनल में भूस्खलन किसी बड़े विस्फोट का नतीजा हो सकता है।
सती कहते हैं कि जहां भूस्खलन हुआ, टनल उसके काफी आगे तक खोदी जा चुकी है। जिस जगह काम पूरा हो चुका है, वहां भूस्खलन होना सवाल खड़े करता है। वे कहते हैं कि इस परियोजना का जियोलॉजिकल सर्वेक्षण बहुत सतही है।
चारधाम सड़क परियोजना का पर्यावरणीय आकलन करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई हाई पावर कमेटी के अध्यक्ष रह चुके डॉ. रवि चोपड़ा कहते हैं कि हिमालयी क्षेत्र में इस तरह की बड़ी योजनाएं बनाने के लिए जितने तरह के भूगर्भीय सर्वे होने चाहिए, वे हो नहीं रहे हैं। दरअसल ऐसे सर्वे और इस तरह की जांचों में ज्यादा पैसा और ज्यादा समय लगता है। सरकारें चाहती हैं कि कम पैसे और कम से कम समय में परियोजनाएं पूरी हो जाएं। सिलक्यारा जैसी घटना इसी का नतीजा हैं।
इस बीच उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण की ओर से उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के निदेशक की अध्यक्षता में सिलक्यारा टनल हादसे की जांच के लिए एक कमेटी के गठन की घोषणा की गई है। इसमें भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण विभाग के उप महानिदेशक द्वारा नामित अधिकारी, वाडिया हिमालयन भूविज्ञान संस्थान के निदेशक द्वारा नामित अधिकारी, भारतीय सुदूर संवेदन संस्थान के निदेशक द्वारा नामित अधिकारी और भूतत्व एवं खनिकर्म निदेशालय के निदेशक द्वारा नामित अधिकारी के साथ ही उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के भू-वैज्ञानिक और उत्तराखंड भूस्खलन न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के वरिष्ठ भूवैज्ञानिक को सदस्य बनाया गया है।
लेकिन, इस जांच कमेटी को लेकर कई तरह के सवाल उठाये जा रहे है। एक्टिविस्ट इंद्रेश मैखुरी कहते हैं कि यह सिर्फ खानापूर्ति है। यदि इन योजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों को ध्यान में रखना होता तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित हाई पावर कमेटी की सिफारिशों पर अमल किया गया होता। लेकिन, ऐसा करने के बजाय केन्द्र सरकार ने 889 किमी लंबी इस परियोजना को 53 हिस्सों में बांट दिया, ताकि पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन ही न करवाना पड़े।