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उत्तराखंड: केंद्र ने मनरेगा को खेती से जोड़ने का प्रस्ताव लौटाया

कोविड-19 की वजह से उत्तराखंड लौटे लोगों को बंजर खेतों में काम करने पर मनरेगा की मजदूरी देने का प्रस्ताव सिरे नहीं चढ़ पाया

Raju Sajwan

केंद्र सरकार ने उत्तराखंड सरकार को उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि मनरेगा के तहत किसानों को अपने खेतों में बुआई करने पर मजदूरी दी जाए। केंद्र ने राज्य सरकार द्वारा साल में 100 की बजाय 200 दिन के काम की गारंटी के प्रस्ताव को भी मंजूरी नहीं दी है।

दरअसल, उत्तराखंड के किसानों की ओर से राज्य सरकार से यह मांग की गई थी कि उन्हें अपने ही खेतों में बुआई/बुआई करने के बदले मनरेगा के तहत मजदूरी दी जाए। इसका फायदा यह होगा कि उनके बंजर पड़े खेत फिर से लहलहाने लगेंगे।

राज्य में पलायन के मुद्दे पर काम कर रही संस्था पलायन एक चिंतन के रतन सिंह असवाल ने बताया कि यह मांग इसलिए की गई, क्योंकि कोविड-19 और लॉकडाउन की वजह से जो लोग बेरोजगार होकर राज्य में अपने लौटे हैं, उन्हें अपने बंजर जमीन पर काम करने का मौका दिया जाए। यदि वे अपने बंजर जमीन पर इस बार बुआई कर लेते हैं और खरीफ सीजन में उन्हें इसका फायदा मिलने लगता है तो वे राज्य में रुकने के बारे में सोच सकते हैं।

दूसरा, लोग अपने खेतों में काम करने की बजाय मनरेगा में काम करना बेहतर समझते हैं, क्योंकि उसमें उन्हें रोज के रोज दिहाड़ी मिल जाती है, परंतु अगर वे अपने खेतों में काम करते हैं, जिसका फायदा उन्हें कब मिलेगा और मिलेगा या नहीं, वे खुद नहीं जानते। बुआई करने के बाद पहाड़ों में बंदर और सूअर इतने हैं कि फसल बर्बाद कर देते हैं, इसलिए लोग खेती करने की बजाय मनरेगा में काम करना चाहते हैं।

पौड़ी जिला पंचायत के सदस्य रह चुके उमा चरण बड़थ्वाल बताते हैं कि वर्ष 2010 में हमने मांग की थी कि पहाड़ पर सीढ़ीदार खेतों को ढहने से बचाने के लिए पुश्ते बनाने का काम मनरेगा में शामिल किया जाए। शासन ने इसकी मंजूरी दे दी, इसका फायदा यह हुआ कि जिन लोगों ने मनरेगा के तहत अपने ही खेतों की पुश्तों का निर्माण किया, वे पुश्तें आज तक बरकरार हैं। लोगों ने मेहनत से अपने खेतों की पुश्तें बनाई और ये खेत अभी भी बचे हुए हैं।

बड़थ्वाल कहते हैं कि अगर ऐसे ही लोगों का अपने बंजर खेतों में बुआई का पैसा मनरेगा के तहत दिया जाए तो उत्तराखंड में कृषि की समृदि्ध फिर से लौट सकती हैं।

पौड़ी ब्लॉक के गांव बलूड़ी की ग्राम प्रधान ममता देवी भी कहती हैं कि हमारे गांव के खेत बंजर हो चुके हैं और इस समय गांव लौटे प्रवासी चाह कर इन बंजर खेतों में बुआई करने से बच रहे हैं। अगर सरकार पैसा देकर लोगों को बंजर खेतों में बुआई करने के लिए प्रेरित करती है तो बहुत से युवा एक बार फिर से खेती शुरू करने पर विचार कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि यह प्रस्ताव उन्होंने अपनी ग्राम सभा के माध्यम से शासन को भेजा था, लेकिन अभी तक कोई जवाब नहीं आया है।

कोट ब्लॉक के कोट गांव की महिला प्रधान रीना रौथाण भी मानती है कि अपने खेतों में काम करने को यदि मनरेगा का हिस्सा बनाया जाए तो इसका फायदा होगा।

वहीं, मनरेगा के राज्य समन्वयक मोहम्मद असलम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि कोविड-19 और लॉकडाउन के बाद मनरेगा की बढ़ती मांग को देखते हुए राज्य की ओर से केंद्र को दो प्रस्ताव भेजे गए थे। एक, अभी जो लोगों को साल में अधिकतम 100 दिन के काम की गारंटी दी गई है, उसे बढ़ा कर 200 कर दिया जाए। दूसरा, लोगों को अपने खेतों में काम करने को मनरेगा कार्यों में शामिल किया जाए।

असलम बताते हैं कि केंद्र की ओर से इस प्रस्ताव का जवाब आ गया है। केंद्र ने कहा है कि सितंबर 2020 में मनरेगा की गाइडलाइंस में संशोधन प्रस्तावित है, जिसमें 200 दिन के प्रस्ताव पर विचार किया जा सकता है, लेकिन अभी राज्य को 100 दिन ही काम लेना होगा। इसके अलावा अपनी खेती में काम करने के प्रस्ताव को इंकार करते हुए कहा गया है कि मनरेगा में न तो अस्थायी स्तर का काम स्वीकार नहीं किया जा सकता और ना ही कोई ऐसा काम शामिल नहीं किया जा सकता, जिसका माप न हो सके। इसलिए खेती में फसल बुआई के काम को मंजूरी नहीं दी जा सकती।