विकास

कोरबा के आदिवासी किसानों ने 25 बरस बाद जमीन अधिग्रहण के लिए लौटी विदेशी कंपनी के खिलाफ शुरु किया आंदोलन

DTE Staff

रूबी सरकार

छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले के रिस्दी गांव में आदिवासी किसानों के खेती की जमीनों पर 25 बरस बाद दक्षिण कोरिया की देवू नाम की एक कंपनी अधिग्रहण के दावे के साथ लौटी है। लॉकडाउन के दर्मियान अचानक शुरु हुए कंपनी के अधिग्रहण के खिलाफ किसानों ने आंदोलन शुरू कर दिया है।

कोरबा जिले के सैकड़ों आदिवासी किसानों ने बुधवार को बिलासपुर उच्च न्यायालय को पोस्ट कार्ड लिखकर अपनी भूमि वापस दिलाने की अपील की है। किसानों द्वारा पोस्ट कार्ड का सहारा लेकर न्याय पाने की गुहार जोर पकड़ने लगा है।

पोस्टकार्ड अभियान के मसौदे में किसानों ने कोरबा जिला प्रशासन की मदद से देवू द्वारा उनकी भूमि हड़पने की कोशिश की शिकायत की है और न्यायालय से गरीबों  की जमीन को छीनने से बचाने की प्रार्थना की है।

रिस्दी गांव के भूपेश कुमार साहू बताते हैं कि देवू द्वारा वर्ष 1992 में उद्योग स्थापित करने की गतिविधि शुरू हुई और वर्ष 1997 में भूमि अधिग्रहण का काम शुरू हुआ, लेकिन इतने सालों में कंपनी ने जमीन पर कोई काम नहीं किया जिसके कारण करार में किए जाने वाले वादे और सुविधाएं भी किसानों को नहीं मिले और उनकी एक पीढ़ी का भौतिक कब्जा खेतों पर बना हुआ है। ऐसे में यह अधिग्रहण नाजायज है। 

किसानों का यह भी तर्क है कि भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के तहत यदि कोई कंपनी भूमि अधिग्रहण के पांच सालों के अंदर अपना उद्योग लगाने में असफल रहती है, तो अधिग्रहित जमीन मूल खातेदार को लौटाने का प्रावधान है।

गांव के किसान भुवन सिंह बताते हैं, कि अगर समय पर काम शुरू हो जाता और हमें सुविधाएं मिल जाती, फिर हम जमीन पर खेती-बाड़ी नहीं करते। देवू ने कुछ शासकीय भूमि भी अधिग्रहित की थी, लेकिन तहसीलदार शासकीय भूमि पर तोड़-फोड़ नहीं कर रहे हैं, बल्कि हमें जमीन से बेदखल करने के लिए बिना नोटिस के हमारी जमीन का मेढ़ तोडने का काम कर रहे हैं जबकि अभी खेतों में अगली बुवाई का काम चल रहा है।

भुवन कहते हैं कि जमीन पर शासकीय कब्जा दिखाने के लिए सरकार यहां के किसानों से समर्थन मूल्य पर केवल उतना ही उपज क्रय करती है, जितने से उनका लिया ऋण पट जाये। शेष उपज हमें बाजार में औने-पौने दामों पर बेचना पड़ता है।

आंदोलन के लिए एकजुट हुए किसानों ने पूर्व अधिग्रहित भूमि की खुदाई कर रहे एक्सीवेटरों को वहां से जाने के लिए विवश कर दिया है। किसानों ने बताया कि कोरबा तहसीलदार का कहना है कि जमीन अधिग्रहण की यह कार्रवाई बिलासपुर उच्च न्यायालय के आदेश से की जा रही है। लेकिन जब ग्रामीणों ने आदेश की प्रति मांगी तो उन्हें उपलब्ध नहीं करवाया गया।

इस संबंध में  रिस्दी गांव के किसान सुमित दान, संजय कंवर, हरिषंकर कंवर आदि ने कहा कि दिवालिया होने और किसानों से किये गए करार को पूरा न कर पाने के बाद देवू का इस भूमि पर कोई अधिकार नहीं बनता और भूमि अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के तहत अब यह भूमि उन्हें आदिवासियों को लौटा दी जानी चाहिए।

वैसे भी इस भूमि पर पिछले 25 सालों से किसानों का भौतिक कब्जा बरकरार है, जिस पर उन्हें अभी तक कृषि कार्यों के लिए बैंकों से ऋण मिल रहा है।

परणीपानी और रिस्दा गांव के किसान विजय यादव, भजन कंवर, भुवन कंवर, ष्षैलेन्द्र कंवर ने संदेह व्यक्त करते हुए बताया कि जिस प्रकार कोरबा तहसीलदार देवू कंपनी के पक्ष में खड़े हैं और खुदाई स्थल पर बाल्को के अधिकारी तैनात किये गये थे, उससे लगता है कि उनकी भूमि हड़पने के मामले में प्रशासन और बाल्को की भी देवू के साथ मिलीभगत है।

किसानों ने कहा, कि अधिग्रहण होने के 25 साल बाद भी यह  भूमि आज भी उनके नाम से है और उनकी जीविका के एकमात्र साधन को छोड़ने के लिए वे तैयार नहीं है।

सामाजिक कार्यकर्ता संजय पराते बताते हैं कि अपने आपको दिवालिया घोषित करने के बाद देवू का इस जमीन पर कोई स्वामित्व नहीं रह गया है और जमीन का सीमांकन कराने का उसका आवेदन ही अवैध है।

ग्रामीणों ने बताया कि इस भूमि का सौदा उस समय साढ़े आठ करोड़ में हुआ था, जबकि आज इसकी कीमत 850 करोड़ रुपये से अधिक है । 

सामाजिक कार्यकर्ता पराते कहते हैं कि जिस तरह प्रशासन ने एक्सीवेटर से जमीन की खुदाई करने में हड़बड़ी दिखाई है, इससे स्पष्ट है, कि मामला केवल सीमांकन का नहीं है, बल्कि इसका मूल मकसद भूमि पर काबिज आदिवासी किसानों को बेदखल करने का है, ताकि दिवालिया कंपनी इस जमीन का उपयोग रियल एस्टेट व्यापार के लिए कर सके। जबकि कोरबा जिले में सीमांकन के हजारों प्रकरण सालों से लंबित पड़े हुए हैं।

उन्होंने आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर नैसर्गिक अधिकारों की रक्षा के पक्ष में लोगों को आगे आने की अपील की है और कहा है, कि जिस तरह बस्तर के आदिवासियों को टाटा के लिए अधिग्रहित जमीन को वापस किया गया है, कोरबा जिले के इस  मामले में भी आदिवासियों को जमीन वापसी की प्रक्रिया को शुरू होनी चाहिए।