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कोरोना की दूसरी लहर और मनरेगा-5: छत्तीसगढ़, कागजों पर गुलाबी आंकड़ें

कोरोना की पहली लहर के दौरान मनरेगा ने ग्रामीणों को बड़ा सहारा दिया, लेकिन दूसरी लहर में ऐसा नहीं हुआ

Avdhesh Mallick

कोविड-19 महामारी के पहले दौर में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने ग्रामीणों को बहुत सहारा दिया। सरकार ने भी खुल कर खर्च किया। लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर में मनरेगा ग्रामीणों के लिए कितनी फायदेमंद रही, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने देश के पांच सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों में मनरेगा की जमीनी वस्तुस्थिति की विस्तृत पड़ताल की है। इस कड़ी की पहली रिपोर्ट में आपने पढ़ा, सरकार ने नियमों में किया बदलाव और दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, मध्य प्रदेश में मनरेगा का हाल। तीसरी कड़ी में बिहार की स्थिति का आकलन किया गया था। अगली कड़ी में आपने पढ़ा, राजस्थान में इस बार मनरेगा नहीं बना मददगार । पढ़ें अगली कड़ी- 

आदिवासी बाहुल्य पिछड़ा कहे जाने वाला प्रदेश छत्तीसगढ़ वित्तीय वर्ष 2021-22 में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के अंतर्गत वनाधिकार पट्टाधारी परिवारों को 100 दिनों का रोजगार देने में देश में अव्वल रहा है।

प्रदेश सरकार के सरकारी आंकड़ों के मुताबिक - विगत अप्रैल और मई माह में मनरेगा के तहत किए गए उत्कृष्ट कार्यों की वजह से छत्तीसगढ़ सर्वाधिक दिव्यांगों को रोजगार देने वाले राज्यों के मामले में देश में चौथे स्थान पर है। सर्वाधिक परिवारों को 100 दिनों का रोजगार देने में छठवें स्थान पर और लक्ष्य के विरूद्ध कार्य पूर्णता में सातवें स्थान पर है।

मनरेगा में पिछले दो महीनों में 15 लाख 61 हजार परिवारों के 27 लाख 13 हजार श्रमिकों को रोजगार उपलब्ध कराया गया है। इनमें 18 हजार 132 दिव्यांग भी शामिल हैं। प्रदेश में इस वर्ष अप्रैल और मई माह में मनरेगा श्रमिकों को कुल 355 करोड़ 26 लाख रुपए का मजदूरी भुगतान किया गया है।

छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने इन आंकड़ों की वजह से केंद्र स्तर पर कई पुरस्कार लेने में भी सफल रहा है। लेकिन जब धरातल पर उतर कर परिस्थिति को टटोलने की कोशिश की तो मनरेगा मजदूरों की की स्थिति कुछ और ही दिखी।

काम मिला,  नहीं मिली तो बस मजदूरी

जशपुर जिले बतौली ब्लाक कुनकुरीकलां गावं की देवकुमारी टोप्पो और राजाराम टोप्पो बताते हैं कि उन दोनों ने मनरेगा के तहत जनवरी से लेकर 14 जून तक डबरी बनाने से लेकर अन्य कई कार्य किए पर अभी तक पैसा खाते में नहीं आया।

राजाराम बताते हैं कि वे कई बार सहकारी बैंक का चक्कर लगा चुके हैं पर बैंक जाने पर पता चलता है कि सरकार ने पैसे ही नहीं डाला है।

अघनमति पैकरा बताती है कि हम लोग यह सोच कर मनरेगा में काम करते हैं पैसा अब तो सीधे खाते में आएगा। लेकिन अगर 4-6 महीने तक पैसा नहीं आए तो फिर हमारी स्थिति कितनी दयनीय हो जाती है आप सोच सकते हैं। बैंक जाते हैं तो बैंक का विथड्रावल फार्म भरने के बाद पता चलता है कि पैसा नहीं है। पास बुक में बैंक वाले इंट्री तक नहीं करते।  

मांझी पंचायत की अनिता टोप्पो बताती है कल भी बैंक से होकर आई हूं पैसे सरकार ने भेजे ही नहीं हैं। रोजगार सहायक और प्रोजेक्ट ऑफीसर बताते हैं कि हमारे ओर से क्लियर है। एक दिन बैंक जाओ तो पूरा दिन निकल जाता है। अब आप ही बताएं क्या किया जाए । हमारे गांव मुझे लगाकर ऐसे करीब 25 लोग है जिनको पैसा नहीं मिला। कुनकुरी के ही नधिया बताते हैं कि 45 दिन कार्य किया है अभी तक पैसा नहीं मिला है।

जशपुर पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री टीएस सिंह देव का क्षेत्र है।

अगर किसी को लगता है कि धुर नक्सल प्रभावित क्षेत्र बस्तर के प्रति सरकार संवेदनशील है तो यहां भी गांवों में अजीब सी स्थिति है। कुछ लोगों को पैसा नहीं मिला कुछ लोगों को मिल गया है। जिन्हें नहीं मिला उनकी स्थिति खराब है।

एक वर्ष से नहीं मिला पैसा

नक्सल प्रभावित उत्तर-बस्तर क्षेत्र, पखांजूर के कोयलीबेड़ा  कोडेनार  गांव के पूर्व सरपंच अमर विश्वास कहते हैं कि उनके यहां 2019-20 में तालाब की खुदाई की गई इसमें करीब 25 मजदूरों ने लगातार मनरेगा के तहत कार्य किया। आज एक वर्ष से अधिक हो गया है लोगों के पैसे नहीं मिले। गांव में रहना मुश्किल हो गया है- अक्सर मजदूर अपनी मजदूरी मांगने पहुंच जाते हैं। जनपद पंचायत सीईओ तक कई बार शिकायत की जा चुकी है पर अभी तक कुछ भी नहीं हुआ।

पखांजूर के मिहिर रे बताते हैं ये तो वे इलाके हैं जहां पर लोगों को सड़क की सुविधा मुहैया है। जरा सोचिए बस्तर के कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पर सड़क पहुंचती है न शासन। फिर भी वहां मनरेगा में जमकर कार्य हुआ ऐसा भी दिखेगा। कुछेक जगह पर कार्य भी हुआ है।  लेकिन अभी भी ऐसे लोगों को पैसे मिल रहे हैं जिन्होंने काम तो नहीं किया पर उनकी अधिकारी, ठेकेदार व मुखिया यानि कि शासन तंत्र से सेटिंग अच्छी है।

क्या कहते हैं अधिकारी

नाम न छापने की शर्त पर अधिकारी बताते हैं उनके यहां कुछ भी बकाया नहीं है। जितनी कागजी कार्रवाई थी, सब कर चुके हैं। अगर मामला कहीं लटका है तो या फिर ऊपर है या फिर बैंक में। वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि मनरेगा में एक स्तर पर भ्रष्टाचार व्याप्त है और कमीशन का खेल चलता है। दिक्कत इसलिए भी है।

मनरेगा के राज्य अपर-आयुक्त अशोक चौबे कहते हैं कि मई तक पूरे प्रदेश भर के मनरेगा मजदूरों की मजदूरी का भुगतान कर दिया गया है, इसे आप मनरेगा के वेबसाइट पर देख सकते हैं।  

सरकार कड़े कदम उठाएं – एक्टिविस्टों का मत

पॉलिटिकल एक्टिविस्ट संजय पराते कहते हैं लोगों के खाते में पैसे नहीं आ पा रहे, क्योंकि अप्रैल में सरकार ने एक एडवायजरी निकाली थी कि दलित व आदिवासियों एवं सामान्य वर्ग के लोगों के लिए अलग अलग प्रोजेक्ट होंगे और उसके आधार पर उनको पैसा दिया जाएगा। इस चक्कर में काम का बोझ इतना ज्यादा बढ़ा कि मनरेगा रोजगार से जुड़े कागजों की सत्यापित कॉपी अधिकारी भेज नहीं पाए और काम और पैसा दोनों अटक गया। 

सरगुजा के आदिवासी एक्टिविस्ट गंगाराम पैकरा कहते हैं कि मनरेगा में सरकारी उदासीनता एवं इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण इसके उद्देश्य अब अड़चन आने लगी है और समय रहते उचित कदम नहीं उठाए गए तो आने वाले समय में इसका हाल भी अन्य सरकारी योजनाएं जैसी हो जाएगी।