सुप्रीम कोर्ट ने भूमि अधिग्रहण से जुड़े मामलों में अपने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि हर मामले में पुनर्वास की मांग न्यायोचित नहीं है। 88 पृष्ठों के अपने इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि सरकार किसी सार्वजनिक उद्देश्य के लिए कानूनी तरीके से भूमि अधिग्रहित करती है, तो केवल उचित मुआवजा देना ही पर्याप्त है।
अदालत ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट किया है कि संविधान के अनुच्छेद 21 (जीने के अधिकार) के तहत आजीविका से वंचित होने की दलील हर मामले में लागू नहीं हो सकती।
पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि जब सार्वजनिक उद्देश्य के लिए किसी व्यक्ति की जमीन ली जाती है, तो उस व्यक्ति को कानून के अनुसार उचित मुआवजा देने का प्रावधान है। पुनर्वास की योजना बनाना सरकार की बाध्यता नहीं है, बल्कि ऐसा सिर्फ "अत्यंत दुर्लभ मामलों" में किया जाना चाहिए।
बेंच ने हरियाणा सरकार की ओर से दायर मुकदमे को सभी राज्यों के लिए आंखें खोलने वाला बताया। अदालत ने यह भी कहा कि "कई बार राज्य सरकारें जनता को खुश करने के लिए बिना जरूरत की पुनर्वास योजनाएं बनाती हैं, जिससे बाद में वो कानूनी उलझनों में फंस जाती हैं।"
क्या है पूरा मामला
पीठ हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण और अन्य की ओर से दायर याचिका पर सुनवाई कर रही थी। गौरतलब है कि यह मामला 1990 के दशक की शुरुआत में हरियाणा सरकार द्वारा अधिग्रहित जमीन से जुड़ा है।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत मुआवजा तो प्रदान किया गया था, लेकिन इसके साथ ही एक समानांतर राज्य नीति के तहत प्रभावित लोगों को पुनर्वास के लिए भूखंड देने का आश्वासन भी दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह जरूरी नहीं कि भूमि अधिग्रहण के हर मामले में मुआवजे के साथ पुनर्वास भी अनिवार्य हो। यदि सरकार पुनर्वास जैसी कोई योजना बनाती है, तो वह केवल मानवीय दृष्टिकोण और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।
अदालत का यह भी कहना है कि पुनर्वास सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए होना चाहिए जिनकी आजीविका या आवास प्रत्यक्ष रूप में भूमि से जुड़ा हो और जो अधिग्रहण के कारण पूरी तरह से बेसहारा हो गए हैं।