विकास

जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या इसका असर पर्यावरण पर पड़ेगा?

पर्यावरणविदों ने धीरे-धीरे आबादी को नियंत्रित करने के लिए कठोर उपायों की जरूरत जताने वाली टिप्पणियों से अब किनारा कर लिया है

Kundan Pandey

केंद्र सरकार देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करनी चाहती है। डाउन टू अर्थ ने इस मुद्दे का व्यापक विश्लेषण किया। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या सच में जरूरी है? । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा: जनसंख्या नियंत्रण कानून: क्या आबादी वाकई विस्फोट के कगार पर है? । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, महत्वपूर्ण सवालों पर नहीं हो रही बहस । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, क्यों हो रही है राजनीति। पढ़ें, पांचवीं कड़ी- 

1970 के दशक में कई पर्यावरणविदों ने जनसंख्या विस्फोट के कारण भविष्य में आने वाले संकट की चेतावनी दी थी। 1968 में गैरेट हार्डिन ने द ट्रेजेडी ऑफ कॉमन्स नामक एक पत्र लिखा जिसमें उन संकटों के बारे में चिंता जताई गई, जिनका सामना मानवता को जनसंख्या में तेजी से बढ़ोतरी के कारण करना पड़ेगा। स्टैनफोर्ड के प्रोफेसर पॉल आर एर्लिच और उनकी पत्नी ऐनी एर्लिच ने 1968 में जनसंख्या बम के बारे में लिखा, जिसने रातोंरात सनसनी मचा दी। उन्होंने जो चिंताएं जताईं, उनमें खासकर उच्च प्रजनन दर वाले विकासशील देशों से बड़े पैमाने पर पलायन प्रमुख था, जो अमेरिका और पश्चिमी देशों में अतिवृष्टि और पर्यावरणीय तबाही की वजह बनेगा। हालांकि, उनके डर के विपरीत विकसित देश प्रजनन में कमी से जूझ रहे हैं। यही कारण है कि पर्यावरणविदों ने धीरे-धीरे आबादी को नियंत्रित करने के लिए कठोर उपायों की जरूरत जताने वाली टिप्पणियों से अब किनारा कर लिया है।

बढ़ती जनसंख्या पर्यावरण को 2 प्रमुख रूपों में प्रभावित करती है। पहले में भूमि, भोजन, पानी, हवा, खनिज और जीवाश्म ईंधन सहित संसाधनों की खपत शामिल है। दूसरा अपशिष्ट उत्पादों के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें प्रदूषक (हवा और पानी), विषाक्त पदार्थ और ग्रीनहाउस गैसें शामिल हैं। लेकिन इस बात पर कोई एकमत नहीं है कि आबादी ग्रह के कितने संसाधनों का उपभोग करेगी। किस सीमा पर ग्रह आबादी का भार उठा पाने में सक्षम नहीं होगा, उस पर बहस की जा रही है। छह अध्ययनों में दो अरब लोगों का अनुमान जताया गया है, 7 अध्ययन इस सीमा को 4 अरब बताते हैं, 20 अनुमानों में 8 अरब, 14 ने 16 अरब, 6 में 32 अरब, 7 में 64 अरब, 2 अध्ययनों में 128 अरब और कुछ अध्ययनों में 256 अरब, 512 अरब और 1,024 अरब आबादी की बात कही गई है।

चिंता का विषय खपत नहीं है। अब बड़ी चिंता खपत में असमानता और इस प्रकार संसाधनों के वितरण में है। ऑस्ट्रेलियाई नेशनल यूनिवर्सिटी में फेनर स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट एंड सोसायटी, कॉलेज ऑफ मेडिसिन, बायोलॉजी एंड एनवॉयरनमेंट के निदेशक स्टीफन डोवर्स और कैनबरा की हेल्थ यूनिवर्सिटी में संकाय के प्रोफेसर कॉलिन बटलर कहते हैं, “एक औसत मध्यवर्गीय अमेरिकी निर्वाह स्तर का 3.3 गुना भोजन और लगभग 250 गुना स्वच्छ जल का उपभोग करता है। इसलिए अगर पृथ्वी पर हर कोई एक मध्यवर्गीय अमेरिकी की तरह रहता है, तो ग्रह की वहन क्षमता लगभग 2 अरब तक सीमित हो सकती है।”

विकसित दुनिया अधिकतम ऊर्जा और भोजन का उपभोग करती है। 21वीं सदी के अंत में यूरोप और अमेरिका ने दुनिया के 80 प्रतिशत संसाधनों का उपभोग कर लिया होगा। बेहतर आर्थिक स्थिति खपत को बढ़ाती है। सेज जर्नल में प्रकाशित 2009 के एक अध्ययन में बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन के कारक के तौर पर जनसंख्या वृद्धि को दोष देना भ्रामक है।

संयुक्त राष्ट्र में आर्थिक और सामाजिक मामलों के जनसंख्या प्रभाग के निदेशक जॉन विल्मोथ कहते हैं, “अनुसंधान से पता चलता है कि सभी परिस्थितियों में बड़ी आबादी का संसाधनों की अधिक मांग और पर्यावरण पर समान रूप से प्रभाव पड़ता है।” हालांकि व्यवहारिक तौर पर पर्यावरण पर जनसंख्या के प्रभाव का खपत और उत्पादन के पैटर्न से काफी गहरा संबंध है। सतत विकास लक्ष्य-12 में भी कहा गया है कि टिकाऊ खपत और उत्पादन पैटर्न सुनिश्चित करें।

रैंडर्स का कहना है कि उत्सर्जन में 10 प्रतिशत की कमी से उत्सर्जन पर उतना ही प्रभाव पड़ता है, जितना औसत उपभोग में 10 प्रतिशत की कमी का। यह शेष 90 प्रतिशत के लिए जीवन को बेहतर बनाता है। हालांकि, धनी आबादी को नियंत्रित करना काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे अपने उच्च खपत स्तर से प्रति व्यक्ति अधिक नुकसान पहुंचाते हैं।