विकास

लुटता हिमालय: नीति निर्माताओं को खोलनी होगी आंख: अनिल जोशी

सड़कें पहले हाथों से बनाई जाती थीं, लेकिन अब भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाती हैं

DTE Staff

जोशीमठ में जो कुछ भी हो रहा है, वह हिमालयी क्षेत्र के पहाड़ों में कहीं भी हो सकता है। इतने व्यापक तौर पर भू-धंसाव का कारण यह है कि हिमालय 5 करोड़ साल पहले बना मलबा है। यह अभी भी अपने शैशव अवस्था में ही है। यह हर साल 10 मिमी की दर से बढ़ रहा है। अभी तक के तमाम भूस्खलनों पर ध्यान दें, तो इसका बढ़ना जारी रहेगा।

अगर जोशीमठ की बात करें, तो यह 100 साल पहले बना एक छोटा-सा गांव था। जल निकासी व्यवस्था, मिट्टी की स्थिति, स्थलाकृति, ढलान और मिट्टी की संरचना जैसे शहरी विकास के चरित्र को देखते हुए इसका दायरा बढ़ता चला गया। जोशीमठ से जुड़ी सबसे बड़ी बात यह है कि शहरीकरण के लिए जरूरी तमाम पहलुओं में से ज्यादातर को अनदेखा करके एक गांव को शहर बना दिया गया।

यह मान लें कि हिमालय एक मलबे पर बसा है। इसकी निर्माण प्रक्रिया के दौरान भारी दबाव के कारण कुछ स्थान कठोर हो गए। फिर गांवों की बस्तियां ऐसी जगहों पर बन गईं, जहां अपेक्षाकृत कठोर चट्टान और पानी की उपलब्धता थी। जोशीमठ की स्थिति हिमालय के ज्यादातर बड़े भू-भागों के समान है, जो जल बहाव वाले क्षेत्रों के रूप में काम करते हैं। इन इलाकों के नीचे से नदी बहती है। जोशीमठ की बात करें तो इसके नीचे अलकनंदा नदी बहती है। इससे चट्टानों का कटाव होता है। इसके अलावा, सड़कों के निर्माण, पनबिजली पावर स्टेशन और दूसरी बुनियादी ढांचा वाली परियोजनाओं ने भी दशकों से कटाव को तेज कर दिया है। इनकी वजह से आज भू-धंसान की नौबत आ गई है।

यह ध्यान देने वाली बात है कि जोशीमठ का 35 फीसदी हिस्सा डूब रहा है। 50 फीसदी से ज्यादा बरकरार है और जनजीवन सामान्य है। यहां दरारें व्यापक तौर पर देखी गई हैं, जिससे पूरा हिस्सा धंस सकता है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि भारी आबादी की बसावट के कारण जोशीमठ की तरफ लोगों का ध्यान गया है। हालांकि, पहाड़ी इलाकों में ऐसी कई जगहें हो सकती है, जिन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। नतीजतन वहां लगातार कटाव होता रहता है, क्योंकि यह एक सामान्य घटना है जो बड़े पैमाने पर हो रही है।

भंगुर और नाजुक हिमालय की यह स्थिति जारी रहेगी, क्योंकि हमारे पास बुनियादी ढांचे के विकास के लिए कोई नीति नहीं है। मसूरी और नैनीताल जैसे शहर ब्रिटिश काल के दौरान बिना जल निकासी की व्यवस्था के ही बने थे। स्थानीय निकायों की ओर से बड़े पैमाने पर निर्माण में भी जल निकासी और ढांचागत बातों की अनदेखी की गई है। इन पहलुओं की अनदेखी की वजह से आपदा की नौबत आई है और शहर धंस रहा है।

इस समस्या का समाधान यह है कि हमें प्रकृति के विज्ञान को समझने की जरूरत है न कि इंसानों द्वारा अपने स्वार्थ के लिए बनाए गए विज्ञान पर पूरी तरह निर्भर रहने की। विकास के मुख्य अंगों ने प्रकृति की अनदेखी की है। विकास की इस प्रक्रिया में पारिस्थितिकी तंत्र को शामिल नहीं किया गया है। इसकी वजह से पूरी व्यवस्था प्रकृति की कीमत चुका रही है। अब यह तय करने का समय आ गया है कि हम प्रकृति की कीमत पर विकास चाहते हैं या प्रकृति और पारिस्थितिकी को मिलाकर।

जोशीमठ संकट की सबसे बड़ी सीख यह है कि लोगों की पीड़ा और निकासी के प्रयास के अलावा यह आपदा नीति निर्माताओं के लिए आंखें खोलने वाली है। उत्तरकाशी के पहाड़ी इलाके में लगभग एक दशक पहले बड़े पैमाने पर भूस्खलन की सूचना मिली थी। इसे वरुणमठ पर्वत के रूप में भी जाता है। इस भूस्खलन ने पूरे क्षेत्र को खतरे में डाल दिया था। यह इलाका अब शांत है और यहां बुनियादी ढांचे का विकास बदस्तूर जारी है। इससे पता चलता है कि प्रकृति इलाज या समाधान देने वाला एक बड़ा कारक भी है। अगर हम विज्ञान और प्रकृति को समझ लें तो हम इसके साथ मिलकर रह पाएंगे। बतौर पारिस्थितिकी विज्ञानी और पर्यावरणविद के रूप में कहूं तो अगर हम और ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करते हैं तो जोशीमठ में भू-धंसाव एक सीमा तक ही जारी रहेगा। अगर इस पर विकास का और ज्यादा बोझ नहीं डाला जाता है, तो यह दबाव सहने में सक्षम बना रहेगा। औली जैसे ऊपरी इलाके की मिट्टी से ये दरारें भर जाएंगी।

जोशीमठ की ही तरह का दूसरा मामला अनमठ और पेन्यमठ का है। यहां करीब ढाई दशक पहले दरारें दिखाई देने लगीं और क्षेत्र धंसने लगे। जमीन के धंसने की आवाज आम तौर पर नहीं सुनाई देती थी। स्थानीय लोगों ने इन्हें लचीलापन बनाने के लिए नदी के किनारे एक पत्थर की दीवार का निर्माण किया, जिसने क्षेत्र में मिट्टी को स्थिर कर दिया।

मेरा सुझाव है कि हमें प्रकृति की बेहतर समझ होनी चाहिए। इसकी सहने की क्षमता और विकास को समझना चाहिए। स्थानीय लोगों को विकास से वंचित नहीं किया जा सकता है, लेकिन एक महीने में 20-50 किलोमीटर सड़कों के निर्माण के बजाय 2 किलोमीटर के बुनियादी ढांचे का निर्माण क्यों नहीं किया जा सकता है। ताकि पहाड़ों को नुकसान न पहुंचे और जरूरी तरक्की भी की जा सके। सड़कें पहले हाथों से बनाई जाती थीं, लेकिन अब भारी मशीनों का इस्तेमाल किया जाता है। यह बड़े पैमाने पर पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाती है। यही वजह है कि विकास की प्रक्रिया को नीतिगत स्तर पर बदलाव करके फिर से परिभाषित करना होगा। हिमाचल प्रदेश ने उसी रास्ते को चुना है, जिसने अब कृषि और बागवानी के क्षेत्र में करोड़ों रुपए की स्थानीय अर्थव्यवस्था बनाने में मदद की है।

उत्तराखंड का सही अर्थ और उसका विकास तभी सफल हो पाएगा, जब हिमालय की पारिस्थितिकी, अर्थव्यवस्था, उसके संसाधनों के साथ नाजुक क्षेत्र को समझते हुए उपकरणों के इस्तेमाल और योजनाओं को लागू किया जाए।

नीति आयोग एक ऐसा रास्ता बना सकता है, जो कई कारकों पर विचार कर सकता है। खासकर वैसे कारक जो नियंत्रण में हैं और हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को समावेशी रूप से चलाते हैं। विकास को छोटे-छोटे हिस्सों में किया जा सकता है, ताकि उनमें स्थानीय हितधारक भी शामिल हो सकें और मानवीय विफलता को कम कर सकें।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट बताती है कि अचानक आई बाढ़ और जलवायु परिवर्तन का पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों पर ज्यादा असर पड़ेगा। दिल्ली में एक डिग्री तापमान बढ़ोतरी से ज्यादा असर नहीं हो सकता है, लेकिन पहाड़ों में तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलेंगे। स्थानीय तौर पर अति और आक्रामक विकास को एक बार के लिए रोकना होगा। संवेदनशील संरचनाओं को दूर किया जाना चाहिए, जो अचानक आई बाढ़ में बह जाती हैं। आगे से विकास के हर कार्यों में स्थानीय भूगोल पर विचार करने की जरूरत है।