विकास

पंचायती राज: भावना और संभावना के मध्य

वर्ष 1992 में 73 वें संविधान संशोधन के माध्यम से लागू किया गया पंचायती राज कानून, वास्तव में भारत के सभी और सही अर्थों में 'ग्रामीण भारत का संविधान' होना था

Ramesh Sharma

भारत में पंचायती राज की अवधारणा, मूलतः भारतीय संविधान के ग्रामीण भारत - का / के द्वारा / के लिये - एक जिन्दा सपना है। इस दृष्टि से भारत की स्वाधीनता के लगभग 45 बरसों बाद वर्ष 1992 में 73 वें संविधान संशोधन के माध्यम से लाया और लागू किया गया पंचायती राज कानून, वास्तव में भारत के सभी और सही अर्थों में ‘ग्रामीण भारत का संविधान’ होना था।

लेकिन आज ऐसा नहीं हो पाना, उपेक्षित होने वाले समाज और उपेक्षा करने वाली सरकार, दोनों की ही नैतिक-राजनैतिक पराजय है। पंचायत एक ऐसा निकाय लगभग नहीं ही बन पाया जिसे ग्रामसभा – न्यायिक स्वायत्तता के बरक्स, ग्राम निर्माण का मार्ग बना सकता था/है। पंचायतों के प्रस्तावों की अवमानना का भरा-पूरा इतिहास और वर्तमान की अनेक दुर्घटनाएं, पंचायती राज के संवैधानिक मूल्यों की अवमानना का सार्वजनिक प्रमाण है।

आज सन्दर्भ ग्रामीण भारत के उन लगभग 91 करोड़ ‘अधिकार संपन्न’ नागरिकों का है – जिनके लिये ग्राम स्वराज और पंचायती राज के नैतिक-वैधानिक प्रावधान ‘न्यायपूर्ण और अधिकारसंपन्न’ होने का महत्वपूर्ण माध्यम होता।

ऐसा होने की एक बुनियादी आवश्यकता यह रही कि – पराधीन भारत के औपनिवेशिक कानूनों और प्रशासनतंत्र को, स्वाधीन भारत के अपनें पंचायती राज कानून के अनुरूप पुनर्निर्मित किया जाये। अर्थात कम से कम ‘जल, जंगल और जमीन’ के कानूनों और नीतियों को वर्ष 1992 के बाद पूर्णतः बदला जाना और इन्हें पंचायती राज कानून के संवैधानिकता के अनुसार नये शब्द, नये अर्थ और नये भावना के साथ लागू किया जाना था।

जिस जंगल को सभ्यताओं के विकासकाल से ही आदिवासी समाज ने अपने अस्तित्व और अधिकारों के रूप में संरक्षित किया, उसे वर्ष 1865 में औपनिवेशिक रूप से पूर्णतः अधिग्रहित कर लिया गया। वास्तव में ब्रितानिया हुकूमत के द्वारा 1865 में लागू ‘वन अधिनियम’ के माध्यम से आदिवासी समाज के लगभग 8.8 करोड़ हेक्टेयर जंगल को सरकारी खाते में छलपूर्वक शामिल कर लेना – भारत के इतिहास का सबसे बड़ा और विवादस्पद ‘जंगल-जमीन अधिग्रहण’ है।

यह अधिग्रहण केवल जंगलों की हरियाली और वनसंपदा के अधिग्रहण से कहीं अधिक, उस समूचे प्रशासनिक तंत्र का अधिग्रहण बन गया, जिसनें वन प्रशासन को हमेशा के लिए अपने ही आदिवासी समाज के विरूद्ध खड़ा कर दिया।

आज वन संरक्षण (संशोधन) कानून (2023) के पक्षकार के रूप में हों, या वनाधिकार कानून (2006) के प्रतिवादी के रूप में, एक स्वाधीन देश में वन विभाग का ‘औपनिवेशिक शरीर और आत्मा’ अब भी सक्रिय है।

भारत में जमीन के सन्दर्भ को तो और भी जटिल बना दिया गया। एक ऐसा राज्य, जहाँ ‘भूमि अधिकार’ शब्द को ही राज्यों के विशेषाधिकार के विरोध का पर्याय मान लिया गया, वहां ‘खेत मजदूर को किसान बनानें’ का, केवल महात्मा गांधी का नहीं, बल्कि उन सभी भूमिहीनों का भी अपना सपना टूटना ही था – जो स्वाधीनता के संघर्ष में, अपनी ‘दो गज जमीन’ पाने की हसरत से शामिल हुए थे।

विडंबना ही है, उन करोड़ों भूमिहीनों को तथाकथित गुलामी से मुक्ति तो मिली, लेकिन स्वाधीनता के स्वर्णकाल में अब भी वे अपनी दो गज जमीन की प्रतीक्षा में हैं। ग्राम समाज की सामुदायिक जमीन, कब सरकारी फरमानों में ‘सरकारी भूमि’ के रूप में हथिया ली गयी - यह ग्राम सभाओं को कभी पता ही नहीं चला।

आज अधिकार संपन्न ग्रामसभाओं के करोड़ों वंचित– भूमि कानूनों की तमाम प्रतिबद्धताओं के साथ/के बिना भी भूमिहीन ही रह गये। जहां, सामुदायिक भूमि के स्वप्रेरित सदुपयोग के लिए उन्हें भूमि कानूनों के विरुद्ध खड़ा होना होता है – और अक्सर जिसकी कीमत उन्हें ‘देशद्रोही’ होने के लांछन के रूप में चुकानी होती है।

उत्तर यह नहीं है कि – पंचायती राज कानून ही ‘जल, जंगल और जमीन’ पर निर्भर ग्रामसमाज के अस्तित्व और अधिकारों का संवैधानिक समाधान है। प्रश्न शेष हैं कि – क्या जमीन और जंगल के विधान की प्रथम इकाई, ग्रामसभा नहीं होनी चाहिये ? क्यों नहीं एक राज्य के बजाये आखिर भूमि आबंटन का अधिकार, ग्रामसभा को होना चाहिये?

गाँव में कोई भी व्यक्ति भूमिहीन न रहे, यह दायित्व भी क्यों नहीं ग्रामसभा के अधिकार क्षेत्र में होना चाहिये? समस्त सामुदायिक भूमि के रख-रखाव और संरक्षण-संवर्धन का वैधानिक दायित्व, क्या ग्रामसभाओं को नहीं दिया जाना चाहिये? भूमि संबंधी सभी विवादों का संभावित समाधान, क्या ग्रामसभा के अधिकार क्षेत्र में ‘ग्राम न्यायालय’ के माध्यम से नहीं होने चाहिये?

आखिर स्वाधीनता के 75 बरसों के बाद भूमि, संवैधानिक रूप से ‘केंद्र अथवा राज्य सरकारों के विषय’ के बजाये, पंचायती राज की संवैधानिकता में ग्रामसभाओं का ‘पूर्ण अधिकार-क्षेत्र’ क्यों नहीं होना चाहिये?

उत्तर यह भी नहीं है कि – पंचायती कानून का कागजी अधिकार क्षेत्र, वन कानूनों की वैधानिक सीमाओं से कहीं अधिक व्यापक है। इस छद्म, और छद्म के मुगालते में बरसों गवां देने वाला भारत का बहुसंख्यक आदिवासी समाज, आज लगभग अधिकार-विहीन कर दिया गया है।

प्रश्न शेष हैं कि – क्या मौजूदा वन कानूनों में आदिवासी समाज को अतिक्रमणकर्ता के लांछन से पूरी तरह मुक्त करने का नैतिक-वैधानिक साहस है? क्या वन प्रशासन ही वास्तव में आदिवासी संस्कृति के विरुद्ध ‘निर्वनीकरण’ के लिये, स्वाधिकार सम्पन्न नहीं हो गया है?

क्या वनाधिकार कानून (2006) के बाद औपनिवेशिक वन कानूनों की अवपालना, ऐतिहासिक अन्यायों का जारी क्रम नहीं है? आखिर क्यों नहीं वनाधिकार कानून (2006) के शब्दों-अर्थों और भावनाओं का सम्मान करते हुये, स्वप्रेरणा से जंगलों का अधिकार, आदिवासी समाज को हस्तांतरित कर दिया जाना चाहिये?

आखिर स्वाधीन भारत में आदिवासी समाज को क्यों औपनिवेशिक वन कानून के तहत अब तक ‘अतिक्रमणकर्ता’ मानना चाहिए? क्या भारतवासियों सहित आदिवासी समाज की भी स्वाधीनता के 75 बरसों बाद वन कानूनों को - पूर्ण रूप से पंचायती राज कानून के वैधानिक दायरे में नहीं लाया जाना चाहिये?

भारत जैसे लगभग 7.5 लाख गांवों के देश में आज स्वाधीनता के स्वर्णयुग तक एक अदद ‘ग्रामीण विकास / पंचायत अधिकार नीति’ का नहीं बन पाना अथवा नहीं बना पाना, ग्रामीण भारत के विरुद्ध एक ऐसी अक्षम्य अवमानना है, जिसका प्रायश्चित पंचायती राज कानून को उसके सही शब्द, अर्थ और भावना के साथ आत्मसात करके ही संभव है।

काश, आज स्वाधीनता के 75 बरस और पंचायती राज की सफ़लता का 32 बरस, हम एक साथ इतने ही उत्साह के साथ मना पाते। सत्य तो यह है कि - गावों और पंचायतों का अस्तित्व मिटाकर शहर तो खडे किये जा सकते हैं लेकिन देश नहीं – यह जाननें, माननें और आत्मसात करनें के लिये अब अंतिम कुछ बरस शेष हैं।

महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहने और मानने वालों के भारत देश में – उनके सबसे महान पंचायती राज के सपनों को जिलाना, आज सरकार और समाज दोनों का नैतिक-राजनैतिक दायित्व है। ऐसा करते हुये हम सही अर्थों में एक अधिकार संपन्न विकसित भारत बन सकते हैं।

लेकिन, ऐसा न करने का अर्थ ऐसे अविकसित, अर्ध-विकसित और अधिकारविहीन गावों का परिसंघ होना रह जायेगा जिसे कम से कम विकसित भारत तो नहीं ही कहा जा सकता। पंचायती राज के अस्तित्व का निर्णायक क्षण – हमारे आपके निर्णय की प्रतीक्षा में है।

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं)