विकास

भाषाओं का सिमटता संसार, हर साढ़े तीन माह में मर रही है एक भाषा

इस समय दुनिया एक ऐसी त्रासदी से गुजर रही है, जिस पर बहुत कम लोगों का ध्यान है। यह त्रासदी भाषाओं की गुमनाम मृत्यु से जुड़ी है। अनुमान है कि हर साढ़े तीन महीने में दुनिया में किसी न किसी भाषा की मृत्यु हो रही है। भाषा के खत्म होने के साथ ही सदियों से फल फूल रही संपूर्ण संस्कृति और उस ज्ञान का भी लोप रहा है जिसकी भरपाई असंभव है। कितनी बड़ी है यह त्रासदी और क्या हैं इसके मायने, बता रहे हैं भागीरथ

Bhagirath

पिछले साल अप्रैल में जब सारा देश लॉकडाउन की जद में था, तभी एक भाषा की गुमनाम मौत हो गई। “सारे” नामक इस भाषा को बोलने वाली आखिरी महिला लीचो 4 अप्रैल 2020 को इस दुनिया से विदा हो गई। वह करीब 50 वर्ष की थी। लीचो अंडमान के दक्षिणी द्वीप में रहने वाली महान (ग्रेट) अंडमानी जनजाति समूह से ताल्लुक रखती थी। लंबे समय तक टीबी और हृदय की बीमारियों से पीड़ित लीचो ने पोर्ट ब्लेयर के शादीपुर में स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली। अपने अंतिम दिनों में लीचो बीमारियों की असहनीय पीड़ा के साथ अपनी भाषा के मरने की पीड़ा से भी गुजर रही थी।

उनके समुदाय के लोग अपनी मातृभाषा से दूसरी भाषाओं में स्थानांतरित हो रहे थे और अपनी जड़ों से कटते जा रहे थे। लीचो यह सब देखकर दुखी थीं। अंतिम समय तक वह अपने समुदाय के लोगों को मातृभाषा का महत्व समझाती रहीं, लेकिन समुदाय के लोगों ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं दिया। लीचो की मृत्यु की साथ ही उनकी मातृभाषा का गौरव और उसमें संरक्षित पारंपरिक ज्ञान भी दफ्न हो गया। ग्रेट अंडमानी हमारे पुरखों यानी आदि मानव के अवशेष माने जाते हैं। भारत में उनका पहला ठिकाना अंडमान ही था और लीचो उन्हीं की उत्तराधिकारी थी।

ग्रेट अंडमानी भाषाओं पर लगभग दो दशक तक शोध कार्य कर चुकीं और इन भाषाओं का शब्दकोश तैयार करने वाली भाषाविज्ञानी अन्विता अब्बी के लीचो से जैसे पारिवारिक संबंध हो गए थे। ग्रेट अंडमानी भाषा का शब्दकोश तैयार करने में लीचो ने उनकी बड़ी मदद की थी। लीचो की मृत्यु के बाद उनकी याद में सरवाइवल इंटरनेशनल में लिखे संस्करण में अब्बी लिखती हैं, “लीचो बहुत दिलेर महिला थी।

वह आदिवासियों के हक के लिए किसी से भी भिड़ जाती थी। उन्होंने अंडमान ट्रंक रोड बनाने का विरोध किया था और चेताया था कि यह रोड हमारी तरह जारवा भाषा बोलने वालों को भी समाप्त कर देगा।” उल्लेखनीय है कि अंडमान की जारवा भाषा बोलने वाले भी महज 266 लोग ही बचे हैं और उनकी भाषा पर भी विलुप्ति का खतरा है। अब्बी आगे लिखती हैं, “लीचो की मौत से साथ ही एक अद्भुत भाषा (सारे) का ज्ञान भी खत्म हो गया। उनकी मृत्यु से केवल उनके परिवार को ही क्षति नहीं पहुंची है, बल्कि पूरी संपर्ण मानवता को भी नुकसान पहुंचा है।” सारे भाषा की मृत्यु के साथ पर्यावरण और जैव विविधता से जुड़ाव भी काफी हद तक खत्म हो गया।



भाषा विज्ञानी मानते हैं कि करीब 70 हजार साल पहले जब आदि मानव ने अफ्रीका से निकलकर दक्षिण एशिया, दक्षिणपूर्व एशिया, न्यू गिनी और ऑस्ट्रेलिया की ओर पहली बार पलायन किया था, तब उन्होंने अंडमान में भी डेरा डाला था। जैव विविधता से परिपूर्ण इस क्षेत्र में वे हजारों साल तक दुनिया से कटे और फलते-फूलते रहे। 1858 में जब पोर्ट ब्लेयर में ब्रिटिश अधिकारियों ने जबरन कॉलोनी बनाई तब यहां करीब 8,000 ग्रेट अंडमानी आबादी थी।

बाहरी लोगों के संपर्क में आने के साथ ही ग्रेट अंडमानी आबादी का पतन शुरू हो गया। दरअसल, बाहर से आए लोग अपने साथ तरह-तरह के वायरस भी लेकर आए जिनके प्रति यहां के देशज (इंडीजीनस) लोगों की प्रतिरोधक क्षमता नहीं थी। 1960 के दशक में जब लीचो का जन्म हुआ था, तब सिफलिस और अन्य बीमारियों की वजह से ग्रेट अंडमानी लोगों की आबादी केवल 19 तक सीमित हो गई थी। वर्तमान में इनकी आबादी 50 से भी कम है। ये लोग ग्रेट अंडमानी भाषा समूह की बो, खोरा, सारे और जेरू भाषा बोलते थे। लीचो सारे भाषा की आखिरी ध्वजवाहक थीं।

भाषाओं की विलुप्ति की महामारी ने सारे की तरह कई भाषाओं को अपनी जद मंे ले लिया है। सारे की तरह 2010 में ग्रेट अंडमानी भाषा खोरा और बो भाषा बोलने वाले भी खत्म हो गए थे। इस तरह 2010-20 के बीच ग्रेट अंडमानी परिवार की तीन भाषाएं- खोरा, बो और सारे दम तोड़ चुकी हैं। जेरू भाषा को बोलने वाले भी केवल तीन लोग ही बचे हैं। इनमें दो पुरुष और एक महिला है। इन सभी लोगों की उम्र 50 साल से अधिक और ये विभिन्न बीमारियों से ग्रस्त हैं। इनकी मौत जेरू भाषा की ताबूत में आखिरी कील साबित होगी।

ग्रेट अंडमानी भाषाओं की तरह ही भारत और दुनिया की हजारों भाषाओं पर विलुप्ति की तलवार लटक रही है। अगर हम युनेस्को द्वारा जारी “एटलस ऑफ वर्ल्ड लैंग्वेज इन डैंजर” को देखें तो पाएंगे कि 1950 से अब तक दुनियाभर में 230 भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। युनेस्को ने 2001 में पहली बार जब एटलस जारी किया था, तब 900 भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा पाया था, लेकिन 2017 में अद्यतन किया गया एटलस बताता है कि ऐसी भाषाओं की संख्या 2,464 तक पहुंच गई। सबसे डरावनी बात यह है कि इनमें भारतीय भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है।

युनेस्को की सूची में अहोम, आंद्रो, रांगकास, सेंगमई और तोल्चा भारतीय भाषाएं ऐसी हैं जो मर चुकी हैं। युनेस्को ने भारत की 197 भाषाएं चिन्हित की हैं जो विलुप्तप्राय हैं। दूसरे स्थान पर अमेरिका है जहां 191 भाषाएं खतरे में हैं। तीसरे स्थान पर मौजूद ब्राजील में कुल 190 भाषाओं का वजूद संकट में है। ये आंकड़े साफ तौर पर इशारा करते हैं कि हाल के वर्षों में यह खतरा तेजी से बढ़ रहा है।

इसी खतरे को भांपते हुए संयुक्त राज्य अमेरिका के गैर लाभकारी संगठन एनडेंजर्स लैंग्वेज फंड ने माना, “संपूर्ण इतिहास में भाषाएं मरी हैं, लेकिन मौजूदा समय जैसी व्यापक विलुप्ति पहले कभी नहीं देखी गई।” कुछ अध्ययन अंदेशा जाहिर करते हैं कि अगर यही दर जारी रहती है तो भारत समेत दुनियाभर की 50 से 90 प्रतिशत भाषाएं इस शताब्दी के अंत तक विलुप्त हो जाएंगी। युनेस्को भी मानता है कि सदी के अंत तक 50 प्रतिशत भाषाएं विलुप्त हो सकती हैं। कुछ भाषा विज्ञानी यहां तक कहते हैं कि 3.5 महीने में एक भाषा दम तोड़ रही है।

भारतीय भाषाओं पर किया गया पीपुल्स लिंग्विस्टि सर्वे ऑफ इंडिया (पीएलएसआई) का आकलन तो और भी भयावह तस्वीर पेश करता है। देश के विभिन्न राज्यों में किए गए भाषायी सर्वेक्षण में पाया गया है कि पिछले 50 सालों में 220 भाषाएं दम तोड़ चुकी हैं। सर्वेक्षण में कुल 780 भारतीय भाषाओं का पता लगाया था। डरने वाली बात यह है कि इनमें से 600 भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। पीएलएसआई के अध्यक्ष गणेश देवी ने डाउन टू अर्थ से बातचीत में माना कि घुमंतू समुदाय और तटवर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की भाषा सबसे अधिक खतरे में हैं(देखें, घुमंतू समुदाय की भाषा पर खतरा सबसे अधिक,)।

दुनियाभर में भाषाओं पर नजर रखने वाले गैर लाभकारी संगठन एथनोलॉग से भी इस संबंध में महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। समय-समय पर भाषाओं को अपडेट करने वाले इस संगठन के अनुसार, इस समय दुनियाभर बोली जाने वाली 7,139 भाषाओं में 42 प्रतिशत (3,018) भाषाएं संकटग्रस्त हैं। यानी ये भाषाएं विलुप्ति के विभिन्न चरणों में हैं। एथनोलॉग ने भाषाओं के संकट के स्तर को मापने के लिए एक मापदंड बनाया है जिसे एक्सपेंडेट ग्रेडेड इंटरजनरेशनल डिसरप्शन स्केल (ईजीआईडीएस) नाम दिया गया है (देखें, कैसे विलुप्त होती है भाषा)।



दुनियाभर में भाषाओं का बड़ा ही असमान वितरण है। यह असमानता एथनोलॉग के विश्लेषण में भी झलकती है। एथनोलॉग के अनुसार, दुनिया की आधी आबादी महज 24 भाषाएं बोलती है। इनमें मुख्य रूप से चीनी मंदारिन, स्पेनिश, अंग्रेजी, हिंदी, पुर्तगाली, बंगाली, रूसी, जापानी, जावानी और जर्मनी शामिल हैं। इन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या करोड़ों में हैं, वहीं दूसरी तरफ विश्व की आधी आबादी 7,000 भाषाएं बोलती है। एथनोलॉग ने अपने विश्लेषण में पाया है कि दुनिया की आधी भाषाओं को 10 हजार से कम बोलने वाले लोग बचे हैं।

इतना ही नहीं, विश्व की केवल एक प्रतिशत आबादी लगभग 5,000 भाषाएं बोलती हैं। हैरानी की बात यह भी है कि 0.1 प्रतिशत यानी 80 लाख (लंदन की आबादी के बराबर) लोगों की वजह से 3,500 भाषाएं जिंदा हैं (देखें, छोटी बनाम बड़ी भाषाएं)। छोटे स्तर पर बोली जाने वाली इन्हीं भाषाओं पर बड़ा खतरा है। 1995 में किया गया एक विश्लेषण साफ कहता है कि दुनिया की आबादी 25 प्रतिशत बढ़ने पर करोड़ों लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं का तो विस्तार हुआ लेकिन छोटे स्तर पर बोली जाने वाली भाषाएं खतरे में पड़ गईं। भारत में इस तथ्य की पुष्टि हिंदी और अंग्रेजी के बढ़ने प्रभुत्व से होती है।



अब सवाल यह उठता है कि भाषा कब मरती या खतरे में पड़ जाती है? दरअसल, वह तब मरती है जब उसे बोलने वाली आबादी मर जाती है या किसी दूसरी भाषा को अपना लेती है। नतीजतन, उस आबादी की अगली पीढ़ियां मातृभाषा भूल जाती है। सामाजिक और आार्थिक कारण भी इसकी एक बड़ी वजह है। व्यापार और पलायन, ताकतवर्ग द्वारा किसी एक भाषा को तवज्जो देने से भी छोटी और स्थानीय भाषाएं उपेक्षित रह जाती हैं। व्यापार और मीडिया के वैश्विक होने, यातायात और संचार में तकनीकी सुधार से भी एक भाषा से दूसरी भाषा में स्थानांतरित होने का दबाव बढ़ा है।

उदाहरण के लिए हिंदी के प्रचार और प्रसार से उत्तरपूर्वी राज्यों और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में बोली जाने वाली भाषाएं खतरे में पड़ गई हैं। इस द्वीप समूह में रहने वाली आदिवासी आबादी हिंदी को अंगीकार कर रही है जिससे उनकी मातृभाषा बोलने और समझने वाले खत्म होते जा रहे हैं। यही स्थिति पश्चिम बंगाल में बोली जाने वाली टोटो भाषा की है। विलुप्तप्राय टोटो भाषा बोलने वाले धनीराम टोटो डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि उनकी जनजाति बंगाली, नेपाली के अलावा हिंदी के दखल से अपनी मातृभाषा से मुंह मोड़ रही है। यही वजह है कि इस टोटो को बोलने वाले गिने चुने लोग ही बचे हैं।

लिपि का न होना भी भाषा के खत्म होने के बड़े कारक के तौर देखा जाता है। लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भाषाविज्ञानी संदेशा रायपा इससे इत्तेफाक नहीं रखतीं। वह मानती हैं, “लिपि न होना भाषा के मरने का कारण नहीं है। मुख्य कारण है भाषा का उपयोग न करना। अगर लोगों के मन में अपनी भाषा के प्रति सम्मान और अस्मिता का भाव है जो वह कम लोगों द्वारा बोली जाने के बाद भी जिंदा रहती है।” उपरोक्त कारणों के अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन भी भाषा को प्रभावित करने वाले एक महत्वपूर्ण और प्रबल कारक के रूप में जुड़ गया है। दरअसल छोटे पैमाने पर भाषा बोलने वाले बहुत से समुदाय तटीय इलाकों में रहते हैं। ये इलाके समुद्री चक्रवातों और समुद्र के बढ़ते जलस्तर के प्रति बेहद संवेदनशील है।

आपदाओं के वक्त इन समुदायों को दूसरी जगह स्थानांतरित करना पड़ता है और एक तरह से ये लोग “जलवायु परिवर्तन शरणार्थी” बन जाते हैं। इस तरह के बिखराव से ये समुदाय अपने भाषायी समाज से कट जाते हैं और नई भाषा के संपर्क में आ जाने से अक्सर अपनी भाषा को धीरे-धीरे खो देते हैं। क्वींस विश्वविद्यालय में स्ट्रेथी भाषा इकाई के निदेशक एनेसतासिया रीहल अपने अनुभव के आधार पर लिखते हैं, “इंडोनेशिया के सुलावेसी द्वीप में दर्जनों भाषाएं बोली जाती हैं। कुछ भाषाओं को बोलने वाले तो मुट्ठी भर लोग हैं। 2004 में आए सुनामी के वक्त अपनी जगह से बेदखल होना पड़ा जिससे उनकी भाषा खतरे में पड़ गई।” गौर करने वाली बात है कि इंडोनेशिया में 600 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। मौजूद समय में इनमें से अधिकांश भाषाओं पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

दुनियाभर में विभिन्न संस्थानों और अध्ययनों से इस बात की पुष्टि होती है कि विलुप्ति की खतरा आमतौर उन भाषाओं पर सबसे अधिक है जो देसज लोगों द्वारा बोली हैं। एथनोलॉग द्वारा जारी संकटग्रस्त भाषाओं के मानचित्र की मानें तो न्यूजीलैंड की 100 प्रतिशत, संयुक्त राज्य की 98 प्रतिशत, ऑस्ट्रेलिया की 89 प्रतिशत, कनाडा की 88 प्रतिशत, चिली की 86 प्रतिशत, मलेशिया की 83 प्रतिशत, जापान की 81 प्रतिशत, ब्राजील-इंडोनिशया की 62 प्रतिशत, नेपाल की 61 प्रतिशत देसज भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। भारत की 30 प्रतिशत देसज भाषाएं इस श्रेणी में आती हैं (देखें, देसज भाषाएं अधिक संवेदनशील)।



विलुप्त हो चुकीं ग्रेट अंडमानी भाषाएं भी देसज लोगों की थीं। हालांकि युनेस्को ने अपने एटलस में ग्रेट अंडमानी भाषाओं को जगह नहीं दी है। यही वजह है कि अन्विता अब्बी युनेस्को के एटलस को सटीक नहीं मानती। डाउन टू अर्थ से बातचीत के दौरान उन्होंने माना कि युनेस्को ने खासी भाषा को संकटग्रस्त माना है जबकि यह भाषा बड़े स्तर पर बोली जाती है, शैक्षणिक संस्थानों में इसका प्रयोग हो रहा है और इसमें पीएचडी भी हो रही है।

वहीं दूसरी तरफ ग्रेट अंडमानी भाषाएं जो वास्तव में संकट में हैं, उनका एटलस में नामोनिशान नहीं हैं। अब्बी संकटग्रस्त भाषाओं के मामले में युनेस्को के एटलस से अधिक भारतीय भाषा संस्थान (सीआईआईएल) की जानकारी को अधिक सटीक मानती हैं। भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के अधीन मैसूर स्थित भारतीय भाषा संस्थान देशभर की ऐसी भाषाओं की जानकारी जुटा रहा है जिन पर विलुप्ति का खतरा है। संस्थान ने अब तक ऐसी 117 भाषाओं की पहचान की है (देखें, संकटग्रस्त भारतीय भाषाएं,)। गौर करने वाली यह भी है कि इनमें अधिकांश भाषाएं देसज (मूल निवासियों की भाषा जो मुख्य रूप से वनों, दूरस्थ या तटीय इलाकों में निवास करती है। ये लोग जल जंगल और जमीन से जुड़े होते हैं) यानी आदिवासियों द्वारा बोली जाती हैं और इन्हें बोलने वालों की संख्या 10 हजार से कम बची है।



सीआईआईएल ने देशभर के भाषाविज्ञानियों को इस काम में लगाया है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के भाषाविज्ञानी इ़म्तियाज हुसैन ने मुख्यत: झारखंड में बोली जाने वाली बीरहोर भाषा पर काम करते हुए पाया कि इसे बोलने वाले केवल 5,000 लोग ही बचे हैं।

सीआईआईएल ने हिमाचल प्रदेश के लाहौल स्पीति में बोली जाने वाली चिनाली भाषा को भी गहरे संकट में माना है। 2011 की जनगणना के अनुसार, 31,564 की आबादी वाले चिनाल समुदाय में चिनाली बोलने वाले मात्र 120 लोग ही बचे हैं। पेशे से शिक्षक और चिनाली बोलने वाले नीलंचद अपनी मातृभाषा को पल-पल दम तोड़ता देख रहे हैं। डाउन टू अर्थ से अपना दुख जाहिर करते हैं “नई पीढ़ी भाषा सीखना नहीं चाहती। लोग दूसरी जगह और दूसरी भाषाओं में पलायन कर गए हैं। ये लोग भाषा बोल-समझ नहीं पाते और उसे भूलते जा रहे हैं। मातृभाषा और मिट्टी हमारी पहचान है, जो मिटती जा रही है।”

चिनाली भाषा के खत्म होने के साथ ही उससे जुड़े लोकगीत और लोककथाएं भी जेहन से मिटती जा रही हैं। चिनाली पर शोध करने वाले भाषाविज्ञानी फारुक अहमद मीर अपने शोधपत्र में लिखते हैं, “यह भाषा मृतप्राय (मोरीबंड) यानी उस अवस्था में पहुंच गई जहां से यह युवा पीढ़ी में स्थानांतरित होना पूरी तरह बंद हो जाती है।” मीर ने चिनाली भाषा के अध्ययन के दौरान पाया कि हिमाचल प्रदेश में रहने वाले 75 प्रतिशत चिनाल का अपनी मातृभाषा के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण है, जबकि 25 प्रतिशत लोग ही सकरात्मक रवैया रखते हैं। भाषा के प्रति यह नकारात्मक रवैया उसके मरणासन्न अवस्था में पहुंचने का सबसे बड़ा कारण है।

कुछ ऐसा ही हाल उत्तराखंड में बोली जाने वाली और युनेस्को की विलुप्तप्राय भाषाओं की सूची में शामिल जाड़ अथवा भोटिया भाषा का भी है। लखनऊ विश्वविद्यालय के भाषविज्ञान विभाग से जुड़ीं सुमेधा शुक्ला और अजय कुमार सिंह अपने अध्ययन में मानते हैं, “जाड़ भाषा के जो लोग अपनी मौखिक साहित्य को अच्छी तरह जानते थे, उनकी मृत्यु हो चुकी है। उन्होंने उन गीतों को खो दिया है जो शादियों और विशेष अवसरों पर गाए जाते थे।” अध्ययन के दौरान किए गए सर्वेक्षण में 60 प्रतिशत लोगों ने माना कि उनकी मातृभाषा मर रही है।

इसी तरह मणिपुर में बोली जाने वाली तराओ भाषा को बोलने-समझने वाले भी गिने-चुने 870 लोग ही बचे हैं। हालांकि युनेस्को ने 2009 में इस भाषा को विलुप्त करार दिया था। तराओ समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लमताचाओ एकमात्र ऐसे शख्स हैं जो अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने की जद्दोजहद कर रहे हैं।

लमताचाओ अपने समुदाय में अकेले शख्स हैं जो अपने पारंपरिक वाद्य यंत्रों को बजाने में निपुण हैं। अपने गीत, नृत्य और संगीत से असीम प्रेम करने वाले लमताचाओ ने इंफाल फ्री प्रेस को दिए साक्षात्कार में अपनी पीड़ा जाहिर की, “जब 10 साल पहले मैंने अपने परंपरागत वाद्य यंत्रों और गीतों को सीखना शुरू किया, तब चार-पांच लोग ही इसमें निपुण थे। उनके जाने के बाद मैं अकेला ही बचा हूं।” साक्षात्कार में उन्होंने आगे बताया, “संस्कृति, संगीत, कला और इतिहास से मैंने जो सीखा है, उसे मैं युवा पीढ़ियों को देना चाहता हूं, लेकिन कोई युवा इन्हें सीखने आगे नहीं आ रहा है। मैं अपनी कला और संस्कृति को मरता देखकर बड़ा बेचैन हूं।”

अन्विता अब्बी ने सारे भाषा बोलने वाली अंतिम महिला लीचो की तरह बो भाषा बोलने वाली अंतिम महिला बोआ सीनियर के साथ ही लंबे समय तक काम किया है। अपने अंतिम दिनों में बोया भी अपनी भाषा को मरते देखकर छटपटा रही थीं। अपनी असहायता जाहिर करते हुए वह अक्सर अक्सर कहती थीं, “समुदाय के लोग मेरी बात नहीं समझते। मैं क्या करूं? अगर वे अब भी मुझसे बात नहीं करेंगे तो मेरे जाने के बाद वे किससे अपनी मातृभाषा में बात करेंगे?” अकेले में अक्सर बड़बड़ाने वाली बोया अपने समुदाय के लोगों से कहा करती थीं कि अपनी भाषा को मत भूलिए। इसे पकड़कर रखिए। 2010 में 85 साल की उम्र में बोआ की मृत्यु हो गई और सारे की तरह उनकी भाषा भी दफ्न हो गई।



भाषा और जैव विविधता

हम यह साफ तौर पर देख सकते हैं कि भाषाओं से समृद्ध वहीं इलाके हैं जहां जैव विविधता भरपूर है। यही वजह है कि भारत और दुनियाभर में भाषाओं और जैव विविधता में गजब की समानता है। यह महज संयोग नहीं है। भाषाविज्ञानी दोनों को एक-दूसरे से अलग करके नहीं देख सकते। जब भाषा पर खतरा मंडराता है तो जैव विविधता भी खतरे में पड़ जाती और जब भाषा समृद्ध होती है, जैव विविधता भी संपन्न होती है, इसलिए दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू माना गया है क्योंकि दोनों के पतन और उत्थान के कारण लगभग समान हैं।

भाषाओं का वितरण देखने पर पता चलता है कि दुनिया की अधिकांश भाषाएं जैव विविधता की प्रचुरता वाले इलाकों में ही फलती-फूलती हैं। धरती के कुल क्षेत्रफल के महज 7 प्रतिशत हिस्सेदारी वाले ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में सबसे अधिक जीवों की प्रजातियां पाई जाती हैं। ये क्षेत्र सांस्कृतिक विविधताओं से भी भरे हैं। यहां दुनिया की अधिकांश जनजातियां और प्रजातियों एक साथ निवास करती हैं। भाषाओं की बहुतायत जैव विविधता से संपन्न इन्हीं इलाकों में है। आमतौर पर ये ऐसे इलाकें हैं जो आर्थिक रूप से संपन्न नहीं है और यहां जनसंख्या का घनत्व अधिक नहीं है।

चूंकि भाषायी विविधता हमारी सांस्कृतिक विविधता का अटूट हिस्सा है और जैव विविधता के दायरे में जल, जंगल, जमीन और विविध प्रजातियां आती हैं। इसीलिए भाषा विज्ञानियों ने दोनों को एक मिलाजुला नाम जैव सांस्कृतिक विविधता दिया है। इस नाम में जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता दोनों को समाहित किया गया है। कनाडा स्थिति गैर लाभकारी संगठन टेरालिंगुआ की निदेशक लुइसा माफ्फी “बायोकल्चरण डायवर्सिटी टूलकिट : एन इंट्रोडक्शन टु बायोकल्चरल डायवर्सिटी” में लिखती हैं, “जैव सांस्कृतिक विविधता एक जटिल अवधारणा है। यह एक ऐसा तंत्र है जो परस्पर जुड़ा हुआ है।”

इस जुड़ाव को समझने के लिए हमें इसे तीन हिस्सों-जैव विविधता, सांस्कृतिक विविधता और भाषायी विविधता में बांटना होगा। सबसे पहले बात जैव विविधता की। इसे हम पारिस्थितिक तंत्र में मौजूद सभी जीवों के रूप में देखते हैं। अब तक सभी जीवों की पहचान नहीं हुई और उन्हें वर्गीकृत नहीं किया गया है, फिर भी अनुमान है कि दुनियाभर में 8.7 मिलियन प्रजातियां हैं जो पशुओं, पौधों, कवक और एककोशकीय जीवों से संबंधित हैं।

सांस्कृतिक विविधता विभिन्न मानवीय संस्कृतियों का द्योतक है जिसमें उनके दृष्टिकोण, जीने के तरीके, जानकारियां और मूल्य समाहित होते हैं। दुनियाभर की सभी संस्कृतियों का पता लगाना बेहद मुश्किल कार्य है क्योंकि उनकी कोई तयशुदा सीमा नहीं है और बहुत सी संस्कृतियां विभिन्न सामाजिक समूहों की मिलीजुली हैं। इन जटिलताओं के कारण भाषाओं को संस्कृति का परिचायक और सांस्कृतिक पहचान मान लिया गया। इस तरह दुनिया भर में बोली जाने वाली करीब 7,000 भाषाओं को संस्कृतियों से जोड़ लिया गया। इनमें से 80-85 प्रतिशत भाषाएं देसज लोगों द्वारा बोली जाती हैं।

भाषा, संस्कृति और पर्यावरण एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए हैं, इसीलिए माफ्फी स्पष्ट तौर पर मानती हैं, “प्रकृति और स्थानीय पर्यावरण के संपर्क में आकर ही हमने हजारों संस्कृतियां और भाषाएं विकसित की हैं। मनुष्य अपने अस्तित्व के लिए जैव विविधता और पारिस्थतिक तंत्र पर निर्भर है। इसी तरह जैव विविधता और पारिस्थितिक तंत्र भी अपने अस्तित्व के लिए मनुष्य के क्रियाकलापों का आश्रित हैं।”

मानव के इतिहास को देखने पर पता चलता है कि दुनियाभर में सभी जगह मनुष्य ने पर्यावरण से अपनी नजदीकी के चलते ही वायु, जल, आहार, चिकित्सा, वस्त्र, आश्रय जैसे सभी जरूरी तत्वों का ज्ञान हासिल किया है। भौतिक, मनौवैज्ञानिक और आध्यात्मिक ज्ञान भी पर्यावरण से ही मिला है। पर्यावरण पर निर्भरता के कारण समय के साथ मिला ज्ञान धरती की विभिन्न भाषाओं में संजोया गया है। इस तरह भाषा, संस्कृति और पर्यावरण की कढ़ियां एक-दूसरे से जुड़ी हैं ।

हर जगह स्थानीय पर्यावरण लोगों को जिंदा रखता और बदले में लोग भी भाषा में संरक्षित अपने परंपरागत ज्ञान, मूल्यों और व्यवहार से पर्यावरण को जीवित रखते हैं। यह परस्पर निर्भरता अब भी मुख्य रूप से देसज लोगों व समुदायों में दृष्टिगोचर होती है। पर्यावरण से अस्तित्व जुड़ा होने के कारण ही उनके मन पर्यावरण के प्रति गहरी श्रद्धा होती है और पर्यावरण के विभिन्न तत्वों उनके लिए पूज्यनीय होते हैं। यही वजह है कि जैव विविधता से परिपूर्ण क्षेत्रों में भाषायी विविधता भी सबसे अधिक पाई जाती है।

उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया के पास स्थित पपुआ न्यू गिनी को ही लीजिए जहां दुनिया में सबसे अधिक 840 भाषाएं पाई जाती हैं। पपुआ न्यू गिनी करीब 4.62 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला ऐसा देश है जिसके आधे से अधिक हिस्से (2.78 लाख वर्ग किलोमीटर) में केवल वर्षावन हैं। यह दुनिया की सबसे नम जलवायु वाले देशों में शामिल है जहां साल में 1,000-10,000 मिलीमीटर तक बारिश होती है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ से संयुक्त क्षेत्रफल (4.77 लाख वर्ग किलोमीटर) से भी कम और विश्व के एक प्रतिशत क्षेत्रफल वाले इस देश में दुनिया की पांच प्रतिशत जैव विविधिता है।

पपुआ न्यू गिनी में 15,000-20,000 पौधों की प्रजातियां हैं जो वैश्विक वनस्पतियों का छह प्रतिशत है। इसके अलावा कीड़ों की 1.5 लाख प्रजातियां, मीठे पानी की मछलियों की 314 प्रजातियां, समुद्री मछलियों की 2,800 प्रजातियां, पक्षियों की 740 प्रजातियां, उभयचरों व सरीसृपों की 641 प्रजातियां और स्तनधारियों की कुल 276 प्रजातियां इसे जैव विविधता से संपन्न देशों की सूची में शुमार करती हैं। यहां सबसे अधिक भाषाओं का मिलना स्पष्ट संकेत है कि भाषाएं और जैव विविधता एक-दूसरे के पूरक हैं।

पपुआ न्यू गिनी के बाद इंडोनिशिया (712 भाषा), नाइजीरिया (522 भाषा) और भारत (454 भाषा) में सबसे अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। ये ऊष्णकटिबंधीय देश भी जैव विविधता से परिपूर्ण हैं। “बायोकल्चरण डायवर्सिटी टूलकिट : एन इंट्रोडक्शन टु बायोकल्चरल डायवर्सिटी” के अनुसार, सबसे अधिक भाषाओं वाले देशों में मैक्सिको भी शामिल है। इस देश में दुनिया की करीब 10 प्रतिशत जैव विविधता पाई जाती है। संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में सबसे अधिक प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा है और यही देश भी बड़े पैमाने पर भाषाओं से हाथ धो बैठे हैं। अनुमान है मुताबिक, पिछले 45 वर्षों में संयुक्त राज्य अमेरिका 64 प्रतिशत और ऑस्ट्रेलिया 50 प्रतिशत भाषाएं खो चुका है।

घनिष्ठ संबंध

यह स्पष्ट है कि भाषा के संरक्षण से जैव विविधता का संरक्षण बेहद करीबी से जुड़ा है। प्राकृतिक संसाधनों और जैव विविधता को पोषण किस तरह करना है, इसका ज्ञान वहां की स्थानीय भाषा में होता है। हवाई द्वीप में इसका एक दिलचस्प उदाहरण मिलता है। इस द्वीप में बेहद शुभ माने जाने वाले हरे समुद्री कछुए (होनू) पाए जाते हैं। माना जाता है कि स्थानीय भाषा पर संकट मंडराने पर इन कछुओं की आबादी काफी सीमित हो गई। दरअसल, स्कूली में स्थानीय भाषा पर रोक के साथ, उसे बोलने वाले कम होने लगे थे। 1980 के दशक में स्कूल में भाषा पर लगी यह पाबंदी हटा दी गई तो होनू की आबादी भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ने लगी। माना जाता है कि भाषा के संवर्द्धन के साथ पिछले 25 सालों में इस कछुए की आबादी में 53 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

धरती पर जीवन को बनाए रखने के लिए हमें जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता दोनों की जरूरत है। माफ्फी इन्हें बहुमूल्य उपहार मानती हैं और इनके संरक्षण व संवर्धन पर जोर देती हैं। हालांकि वह यह भी मानती हैं दुनिया की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शक्तियां दुनिया की पारिस्थितिकी और भाषाओं से खिलवाड़ कर रही हैं और दुनियाभर में विविध भाषाओं में उठने वाली आवाजों को कुंद कर रही हैं।

अमेरिका जर्नल ऑफ इंडीजीनस स्टडीज में 2016 में प्रकाशित अध्ययन में टॉक ओडिटी लूज ने पाया है कि जैव विविधता और भाषा के नुकसान के साथ ही स्थानीय ज्ञान भी क्षीण हो जाता है। उन्होंने पश्चिम केन्या के सियासा जिले में देखा कि परंपरागत औषधीय पौधों का ज्ञान क्षेत्र के आर्थिक विकास पर निर्भर करता है। आर्थिक रूप से उन्नत क्षेत्रों को उन्होंने ऐसे ज्ञान से वंचित पाया जबकि आर्थिक विकास में पिछड़े क्षेत्रों में ऐसे लोग बहुतायत में मिले जो पौधों के औषधियों गुणों के जानकार थे।

उन्होंने यह भी पाया कि कम जनसंख्या घनत्व वाले इलाकों में वनस्पतियां अधिक थीं, वहीं घनी बसावट वाले इलाकों में औषधीय वनपतियां भारी दबाव में थीं। लूज ने देखा कि आर्थिक रूप से विकसित क्षेत्र पारिस्थितिक तंत्र को बाधिक करके प्राकृतिक वनस्पतियों के विनाश की नींव पर खड़े हुए हैं। इस प्रकार का विकास जैव विविधता के साथ भाषा के लिए भी कब्रगाह बन रहा है।

जीवविज्ञानी मानते हैं कि धरती से जीवन बड़े पैमाने पर खत्म हो रहा है और मौजूदा समय में वह छठी व्यापक विलुप्ति (मास एक्टिंग्शन) देख रहे हैं। विलुप्ति का मौजूदा संकट प्राकृतिक नहीं बल्कि मनुष्य की देन हैं, इसीलिए इस युग को वैज्ञानिक एंथ्रोपोसीन युग की संज्ञा दे रहे हैं। माफ्फी स्पष्ट करती हैं, “संकट जीवों तक सीमित नहीं है। इसके साथ एक और व्यापक विलुप्ति हो रही है और वह विलुप्ति है संस्कृतियों और भाषाओं की।” इसी कारण दुनियाभर के भाषाविज्ञानी पिछले कुछ दशकों से इन विलुप्तियों पर चिंताएं जाहिर कर रहे हैं। ये दोनों विलुप्तियां भले ही अलग-अलग हों लेकिन इसने जीवन के सभी पहलुओं यानी जैव सांस्कृतिक विविधता को प्रभावित किया है। अनुमान है कि 1970 से दुनियाभर में भाषायी विविधता में 20 प्रतिशत की कमी आई है।

जून 2014 में प्रकाशित जीवविज्ञानी जोनाथन लोह और डेविड हरमन की रिपोर्ट “बायोकल्चरल डायवर्सिटी : थ्रेटंड स्पीसीज, एंडेजर्ड लैंग्वेजेज” भाषायी और जैव विविधता के बीच संबंध स्थापित करती है। रिपोर्ट के अनुसार, उच्च जैव विविधता और सांस्कृतिक विविधता तापमान और बारिश जैसे पर्यावरणीय कारकों पर निर्भर रहते हैं। इसलिए दोनों एक-दूसरे के सहयोगी हैं। इसका उदाहरण देते हुए लेखक बताते हैं कि जैव विविधता से युक्त ऊष्णकटिबंधीय वनों में अधिक भाषायी विविधता है जबकि टुंड्रा और रेगिस्तान जैसे इलाकों में दोनों में कमी देखी जाती है (देखें, विश्व की जैव सांस्कृतिक िवविधता,)। जैव विविधता और भाषायी विविधता के तुलनात्मक अध्ययन के दौरान लोह ने पाया कि वैश्विक स्तर 1970 से दोनों में 30 प्रतिशत की गिरावट आई है।



इससे पता चलता है कि दोनों समान दर से खत्म हो रही हैं। वहीं दोनों के बीच संबंध स्थापित करते हुए अब्बी मानती हैं, “जंगल काटेंगे तो शब्द भी खत्म हो जाएंगे। हमें पेड़-पौधों के इस्तेमाल और उसके संदर्भ से कट जाएंगे। हम एक को मारेंगे तो दूसरा अपने आप मर जाएगा।” अंडमान में काम करने के दौरान अब्बी को औषधीय पेड़ों के ढेरों के नाम पता चले। बायोडायवर्सिटी के खत्म होने के साथ उनके नाम और उनके प्रयोग और ज्ञान भी खत्म हो गए। अंडमान की बो भाषा में बोलने वाली आखिरी महिला बोआ सीनियर ने मिट्टियों के दस नाम और उनके उपयोग बताए थे। वह मिट्टियों के लेप लगाकर अपनी कमर का दर्द दूर करती थीं। उनके जाने के बाद ये नाम और प्रयोग गायब हो गए।

बायो साइंस में जून 2016 में “द इंर्पोटेंस ऑफ इंडीजीनस नॉलेज इन कर्बिंग द लॉस ऑफ लैंग्वेज एंड बायो डायवर्सिटी” नाम से प्रकाशित अध्ययन में बेंजामिन टी वाइल्डर, कोरोलिन ओ मिआया, लॉरी मोंटी और गैरी पॉल नाभम ने पाया है कि भाषा और जैव विविधता मजबूती से एक-दूसरे से जुड़ी हैं और ये दोनों इस वक्त बदहाली से गुजर रही हैं। भाषा का पतन पारंपरिक संसाधनों पर आधारित आजीविका के पतन की गति को तीव्र कर देता है।

भाषा की मृत्यु के मायने

दुनियाभर के भाषाविज्ञानी मानते हैं कि भाषाएं अकेले नहीं मरतीं। उनके साथ पूरी की पूरी संस्कृति और उससे जुड़ा ज्ञान भी लुप्त हो जाता है। अन्विता अब्बी कहती हैं कि मातृभाषा हमारी सोच की, हमारी अनुभूति की, हमारे अनुभव की, हमारे दर्शन की और हमारी विश्व दृष्टि का नतीजा होती है (देखें, भाषा के साथ खत्म हो जाती हैं अनुभूतियां, पेज 34)। बकौल अब्बी, “भाषा के मरने से बहुभाषिता ही नहीं मरती बल्कि पूरा समाज मर जाता है, समाज की संस्कृति मरती है, भाषा से जुड़े लोगों की सोच, हजारों वर्षों से संजोया ज्ञान, उनका दर्शन और मान्यताएं, उनका विश्वास और सबसे अहम पर्यावरण को समझने और बचाने का ज्ञान और सूझबूझ हमेशा के खत्म हो जाती है।”

इस नुकसान की भरपाई दूसरी भाषा नहीं कर सकती, चाहे वह हिंदी हो या अंग्रेजी। अब्बी ओडिशा के कोरापुट का उदाहरण देते हुए समझातीं हैं कि हरित क्रांति से पहले यहां 1,700 किस्म के चावल उगाए जाते थे। दो या तीन किस्मों को छोड़कर चावल की लगभग सभी किस्में लुप्त हो गईं हैं। इसके साथ ही उनसे जुड़े लोक साहित्य का भी लोप हो गया। वे तमाम शब्द भी खो गए जो चावल के साथ जुड़े थे। इन चावलों का स्वाद बताने वाले शब्द और अनुभूतियां भी गायब हो गईं। वह साफ तौर पर मानती हैं कि भाषा के लोप के साथ समझने की शक्ति भी खत्म हो जाती है।

इम्तियाज हुसैन ऐसे ही उदाहरणों की फेहरिस्त को विस्तार देते हैं, “खासी भाषा में “येई” शब्द का चलन है। इसके मतलब है जाओ, चलो। यह शब्द कई अभिव्यक्तियों को प्रदर्शित करता है। येई हिलहिल कहते हैं तो इसका अर्थ है ललक के जाओ, येई डोनडोन कहने का मतलब है बच्चे की तरह या चिड़िया की तरह चलो। येई डोकडोक कहने का तात्पर्य है बुजुर्ग की तरह चलो। इसी तरह खासी में भोजन को बाम कहते हैं। इसे 20 तरह से व्यक्त किया जाता है। खासी में बोलने को क्रिन कहते हैं। इसे 38 प्रकार से व्यक्त किया जाता है। मलेशिया की स्थानीय भाषा में धन्यवाद शब्द को अलग-अलग अवसर पर 16 प्रकार से बोला जाता था। भाषा के साथ यह समृद्धि चली गई है।” इम्तियाज बताते हैं कि आदिवासी समाज की भाषा सांस्कृतिक और पारिस्थितिक विविधताओं का भंडारघर है और उनकी भाषा खत्म होने से ज्ञान का यह खजाना भी खत्म होता जा रहा है।



संदेशा रायपा उत्तराखंड के रंगलो समुदाय से ताल्लुक रखती हैं और उनके समुदाय की भाषा रंग विलुप्ति की कगार पर है। अपनी मातृभाषा को पुनर्जीवित करने की कोशिशों में जुटी संदेशा अपने समुदाय के पारंपरिक ज्ञान का उदाहरण देती हैं, “एक बार मेरे पति के मामा की हड्डी टूट गई। नानी ने एक पेड़ की जड़ीबूटी से लेप लगाया जिसके कुछ समय बाद वे पूरी तरह ठीक हो गए।” इसी तरह उन्हें झारखंड के आदिवासी लड़ने ने बताया कि उनके यहां कुएं में घास उगती है। उस कुएं की घास का लेप लगाने से जोड़ों का दर्द ठीक हो जाता है। इस तरह का परंपरागत ज्ञान स्थानीय भाषा के साथ खत्म हो रहा है। संदेशा के अनुसार, भाषा स्थानीय ज्ञान की उस प्रक्रिया को भी नष्ट कर देती है जो सदियों में संजोयी जाती है। मृतप्राय टोटो भाषा को संजोने के प्रयासों में जुटे धनीराम टोटो ने डाउन टू अर्थ को सदियों में विकसित हुई ऐसी की प्रक्रिया की जानकारी देते हुए बताया, “जब चीटिंयां अंडे देती हैं और ऊंचाई की तरफ जाती हैं तो यह बारिश या बाढ़ का संकेत होता है।”

टोटो समुदाय में यह भी कहा जाता है कि जब चिड़ियां चहचहाना बंद कर देती हैं तो भारी बारिश की आशंका जताई जाती है। इसके अलावा जब फूल और घास अपने तय समय से पहले आ जाते हैं तो माना जाता है कि मॉनसून का मौसम जल्दी आ जाएगा। इस तरह का ज्ञान हर देशज भाषा में कूट कूटकर भरा है। अब्बी निकोबार में समुद्र किनारे पाई जाने वाली एक खास झाड़ी “हुआ” का उदाहरण देते हुए कहती हैं कि अगर इस घास की पत्तियों को हाथ से मसलकर समुद्र के पानी में फेंक दो मछलियां तल पर आ जाती हैं। इसके तने का रस पीने से मलेरिया ठीक हो जाता है। इसका पाउडर चोट पर लगाने से वह ठीक हो जाती है। यह झाड़ी अंडमान में भी पाई जाती थी लेकिन सुनामी के बाद वहां से इसका अस्तित्व मिट गया।

भारत का भाषायी सर्वेक्षण प्रकाशित करने वाले गणेश देवी की मानें तो भाषाओं के साथ बहुत से समुदायों ने रंगों और आकाश व समय से जुड़े शब्द खो दिए हैं। अपने अनुभव के आधार पर वह मानते हैं, “मैंने यह भी देखा कि एक शताब्दी पहले भूतकाल को परिभाषित करने वाली शाब्दिक विविधता भी मौजूदा समय की भाषा में कम हो रही है।” उदाहरण के लिए माया भाषा में नीले रंग को परिभाषित करने वाले नौ शब्द थे यानी इस रंग को लोग नौ नामों से जानते थे लेकिन अब नीले रंग की अनुभूति महज तीन रंगों या नामों में सिमटकर रह गई है। इस भाषा को बोलने वाले समुदाय ने तितलियों को देखकर नीले रंग के नौ शब्द संजोए थे।

सारे भाषा का उदाहरण देते हुए अन्विता अब्बी डाउन टू अर्थ से कहती हैं, “इस अंडमानी भाषा में ऐसे शब्द थे जिसके समानार्थी हिंदी या दूसरी भाषाओं में नहीं हैं। ऐसा ही एक शब्द था “रौपुक”। यह शब्द ऐसे लोगों के लिए प्रयोग होता था जिसके भाई या बहन का देहांत हो जाता है। हिंदी या दूसरी भाषाओं में पति की मृत्यु के बाद महिलाओं को विधवा, पत्नी की मृत्यु के बाद पुरुषों को विधुर और माता-पिता की मृत्यु के बाद बच्चों को अनाथ कहा जाता है लेकिन ऐसा कोई शब्द नहीं है भाई या बहन की मृत्यु के बाद उसके भाई-बहन के लिए बोला जाए।”

चिनाली भाषा के अवशेषों को सहेजने और जिंदा करने की कोशिशों में जुटे नीलचंद अपने समुदाय का चिकित्सीय ज्ञान का उदाहरण देते हैं, “चोट लगने पर मिर्च को सरसों के तेल में भूनकर हम उसका लेप लगाते थे। इससे दर्द में आराम मिलता था और चोट जल्दी ठीक हो जाती थी। इसी तरह भुकक्षुर नामक घास का पानी पीने से अस्थमा से आराम मिलता था। भाषा के खत्म होने के साथ लोग यह ज्ञान भूलते जा रहे हैं।”

दिरंग मोंगपा जनजाति

अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमी कमेंग जिले में रहने वाली इस जनजाति की आबादी केवल 5050 है। ये लोग खुद को तिब्बती बौद्ध मानते हैं। दिरंग मोंगपा महान मोंगपा जनजाति की एक उप जनजाति है। समुदाय में किसी की मृत्यु होने पर यह जनजाति शव नदी के पास ले जाकर उसे 108 टुकड़ों में काटकर नदी में बहा देती है। दुर्घटना से मृत्यु होने पर शव को दफनाया जाता है।

गुटोब गडाबा जनजाति

इस भाषा को बोलने वाली जनजाति मुख्य रूप से ओडिशा के कोरोपुट जिले के 40 गांवों में रहती है। रागी से आटे से तैयार “मांडिया” इनका मुख्य आहार है। यह जनजाति पत्थरों, धरती और गांवों की पूजा करती है और आभूषणों की शौकीन है। दूसरी भाषाओं के प्रभाव में आकर ये लोग अपनी मातृभाषा भूल रहे हैं। अनुमान है कि 85 प्रतिशत गुटोब जनजाति अपनी मातृभाषा नहीं बोलते। केवल बुजुर्ग की मातृभाषा बोलते हैं।

जेनूकुरूबा जनजाति

यह जनजाति केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में रहती है। कन्नड़ में जेनू का अर्थ है शहद और कुरुबा का जाति। इस तरह शहद इकट्ठा करने वालों को कहा जाता है। जिन छोटी बस्तियों में यह लोग रहते हैं, उसे हदी कहा जाता है। ये लोग हाथियों को नियंत्रित करने में कुशल होते हैं। यह जनजाति मुख्य रूप से घुमंतू होती है लेकिन सरकारी हस्तक्षेपों से अब एक जगह टिककर रहने लगी है।

मातृभाषा में संजोया गया ज्ञान कई समुदायों को जीवित रखने में मददगार साबित हुआ है। इम्तियाज हुसैन इसके एक उदाहरण से समझाते हैं कि समुद्री तट पर रहने वाले समुदाय ने अपने पारंपरिक ज्ञान के बूते 2004 में आए सुनामी को पहले ही भांप लिया था। समुद्र से मछली पकड़ने के दौरान उन्होंने कुछ ऐसी मछलियां देखीं तो गहरे पानी में मिलती थीं। तट पर ऐसी मछलियों को देखकर वे समझ गए कि समुद्र के अंदर कोई हलचल चल रही है।

उन्होंने समय रहते लोगों को चेता दिया और वे समुद्र से दूर चले और सुनामी की चपेट में आने से बच गए। निकोबार द्वीप समूह की सेनिन्यो भाषा पर सीआईआईएल के लिए शोध करने वाले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एमफिल के छात्र राहुल पचौरी भी इस ज्ञान की पुष्टि करते हुए मानते हैं कि सुनामी के वक्त अंडमान के जरावा आदिवासियों ने समुद्र की लहरों को पढ़कर अनहोनी का पता लगा लिया था। इसके बाद वे लोग समुद्र तट से दूर जंगलों में चले गए और सुनामी के प्रकोप से बच निकले। आदिवासियों के ज्ञान के ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। इम्तियाज हुसैन मानते हैं कि ऐसा सारा ज्ञान मातृभाषा में गुप्त रूप से संजोया (एनकोड) गया है और मातृभाषा से ही उसे समझा (डिकोड) जा सकता है।

चूंकि दूरस्थ इलाकों में रहने वाली जनजाति आधुनिक चिकित्सीय सेवाओं से दूर रही है, इसलिए जंगल में उगने वाले पौधों के औषधीय ज्ञान के बूते वे बीमारियों से लड़ने और जीतने में सक्षम रहे हैं। मसलन, केन्या में रहने वाली अकंबा और लुओ जनजाति ने पौधों के तत्व से सांप के जहर की काट तैयार की है। लुओ समुदाय विभिन्न बीमारियों का इलाज औषधीय पौधों से करता है। दुनिया की हर मातृभाषा इस प्रकार के ज्ञान का पिटारा है। भाषा के खत्म होने साथ ही यह पिटारा भी गुम होता जा रहा है।

गणेश देवी मानते हैं कि जैसी भाषा बोलने वाली दुनिया में युवाओं के ज्ञान ग्रहण करने की क्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। न्यूरोलॉजिस्ट और संज्ञात्मक विज्ञान द्वारा यह वैज्ञानिक रूप से स्थापित हो चुका है। अगर दुनिया में चुनिंदा भाषाएं ही बचेंगी तो उस दुनिया की आबादी बदरंग हो जाएगी। अस्तित्व की चुनौती से जूझने की क्षमता का भी पतन होगा। शायद यही वजह है कि अब दुनिया को भाषाओं में छुपे ज्ञान का महत्व पता चल रहा है और भाषाओं को पुनर्जीवित करने की कोशिशें तेज हो गई हैं।

भारत को विविधताओं में एकता वाला देश माना जाता है। भाषाओं की विलुप्ति का अर्थ है इन विविधताओं से हाथ धो बैठना। भाषाओं के संरक्षण के महत्व को हाल ही में बनी शिक्षा नीति में स्वीकार किया गया है और प्राथमिक स्कूलों में शिक्षा मातृभाषा में देने की वकालत की गई है। भाषाविद मानते हैं कि अगर इस नीति पर ठीक से अमल किया जाए तो स्थितियों में सुधार आ सकता है। मातृभाषा में मिला ज्ञान उन्नति के द्वार खोल सकता है। यही वजह है कि हिंदी के प्रसिद्ध कवि, नाटककार और महान साहित्यकार ने भारतेंद्र हरिश्चंद्र ने 19वीं शताब्दी में कहा था-

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषाज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।”

भाषा और जैव विविधता का विकास

भाषा और प्रजातियां में समानता को डार्विन द्वारा विकसित “जीवन के पेड़” से समझा जा सकता है। पेड़ का एक हिस्सा बहुकोशकीय जीवों के विकास से संबंधित है और दूसरा मानव की सांस्कृतिक विविधताओं का परिचायक है। जीवन का पेड़ स्पष्ट करता है कि धरती पर जीवन की शुरुआत करीब 3.9 बिलियन साल पहले हुई लेकिन करीब 550 मिलियन साल पहले कैंब्रियन विस्फोट के साथ जैविक विविधता की नींव पड़ी। इस विस्फोट के बाद धरती पर जमी बर्फ पिछली और जीवों के विकास के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनीं।

करीब 2 लाख साल पहले आधुनिक होमो सेपियंस की उत्पत्ति हुई। करीब एक लाख साल पहले मनुष्यों की आबादी करीब एक लाख थी और वे मुख्यत: अफ्रीकी देशों में सीमित थी। करीब 70-80 हजार साल पहले अंतिम हिमयुग के दौरान मनुष्यों ने अफ्रीका से पलायन शुरू किया। समुद्र का जलस्तर होने पर संभवत: वे लाल सागर को पार कर अरब में पहुंच गए।

यहां से वे संपूर्ण एशिया में पहुंच गए। सबसे पहले वे दक्षिण एशिया में पहुंचे और 60-70 हजार साल पहले पूर्वी एशिया में पहुंच गए। कालांतर में दक्षिणपूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया में पहुंचने में वे कामयाब रहे। बाद में दुनिया भर महाद्वीपों में उनकी पहुंच हो गई। इस पलायन से पहले अफ्रीका में रहते हुए इन मानवों ने बहुत से औजार, खुद को सजाना, समुद्र से खाना खोजना आदि सीख लिया था। माना जाता है कि यही वह समय रहा हो जब भाषा, कला और संस्कृति विकसित हुई। पलायन के दौरान वे इन्हें साथ लेकर गए। दुनियाभर में छोटे-छोटे समूहों में फैलने बाद इनका तेजी से विकास हुआ जिससे भाषायी और सांस्कृतिक विविधता समूचे विश्व में फैल गई।