शोभा कुमारी की उम्र महज 18 साल है, लेकिन उन्हें कई उपलब्धियाँ पहली बार हासिल करने वाली बालिका बनने का गौरव प्राप्त है। वह अपने गांव और समुदाय में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने तथा अपने पहले ही प्रयास में 10वीं एवं 12वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा पास करने वाली पहली लड़की, स्नातक की पढ़ाई करने वाली पहली लड़की, बाल विवाह के खिलाफ सबसे पहले 'विद्रोह' करने वाली और इससे इनकार करने वाली पहली लड़की हैं।
इतना ही नहीं, वह बड़े सपने देखने वाली अपने गांव की पहली लड़की भी हैं। बिहार के एक दूर-दराज इलाके में रहने वाली यह युवा लड़की हर सुबह अपने कॉलेज जाने के लिए साइकिल से 7 किलोमीटर का सफ़र तय करती है। वह इस बात को अच्छी तरह समझती है कि आगे की कच्ची सड़क सही मायने में और प्रतीकात्मक रूप से काफी ऊबड़-खाबड़ और बाधाओं से भरी है।
शोभा ने अब तक जो कुछ हासिल किया है, वह कितनी बड़ी बात है, इसे समझने के लिए, उसकी "प्रत्यक्ष उपलब्धियों" से परे देखना ज़रूरी है।
दरअसल वह मुसहर समुदाय से आती हैं, जिसे सदियों से समाज द्वारा पारंपरिक "चूहा पकड़ने वाला समुदाय" कहा जाता रहा है। आज, इस समुदाय के ज़्यादातर लोग दिहाड़ी मज़दूरी करते हैं। उनकी आमदनी बहुत कम है और उन्हें हर दिन गुजर-बसर करने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।
इस समुदाय से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या बहुत कम है और जो जाते भी हैं, वे जल्दी ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। इन्हें स्वास्थ्य सेवाएँ भी सहज उपलब्ध नहीं हैं और जीवन स्तर बहुत खराब है। बाल विवाह, खास तौर पर लड़कियों की कम उम्र में शादी बेहद सामान्य बात है।
शोभा ने बचपन से ही बाधाओं और कठिन परिस्थितियों के साथ सामंजस्य बिठाना सीखा है। छह भाई-बहनों में सबसे छोटी होने के नाते उन्हें हर कदम पर अपने माता-पिता को समझाना पड़ा कि वह उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती हैं। "तुम पढ़ना चाहती हो? पैसा नहीं है," उनके पिता उनकी ओर से उदासीनता के भाव के साथ कंधे उचकाते हुए एक कठोर, चुभने वाला जवाब देते, मानो उनके बचपन के अरमानों का मज़ाक उड़ा रहे थे।
इतना ही नहीं, उनके लिए "उपयुक्त वर" की तलाश भी जारी थी, क्योंकि 13 साल की उम्र से ही उनके विवाह के लिए प्रस्ताव आने शुरू हो गए थे। उसे बताया गया था कि "समुदाय में कम उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती है। यही हमारी परंपरा है।"
उनके आस-पास इस तरह की बातों का शोर बढ़ता ही जा रहा था और एक दिन ऐसा आया जब शोभा ने हार मान ली और मानसिक रूप से टूट गई। दसवीं की बोर्ड परीक्षा के तुरंत बाद उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। शायद कुछ बुरा होने वाला था। फिर उन्होंने आखिरी कोशिश की और मदद के लिए क्राई के सहयोगी संगठन जेजेबीवीके (जवाहर ज्योति बाल विकास केंद्र) के सदस्यों के पास पहुँची। इसके बाद जेजेबीवीके के सदस्यों ने योजनाबद्ध तरीके से उन्हें लगातार परामर्श दिया और उनकी सहायता की।
शोभा के साथ-साथ उनके माता-पिता ने भी व्यक्तिगत परामर्श सत्रों में भाग लिया। JJBVK के सदस्य उनके घर पहुँचे तथा सामुदायिक जागरूकता सत्र आयोजित किए गए। इसमें काफी समय लगा, लेकिन आखिरकार उनके माता-पिता ने कुछ हद तक नरमी दिखाई। लगभग एक साल के अंतराल के बाद, शोभा ने ग्यारहवीं कक्षा में फिर से स्कूल में दाखिला लिया। इस घटना को तीन साल बीत चुके हैं, और आज उन्हें गर्व है कि वह अपने घर से 13 किमी दूर, सरायरंजन में केदार संत रामाश्रय इंटरमीडिएट कॉलेज में बीए की छात्रा हैं।
साइकिल के पैडल पर अपने पांव को मजबूती से टिकाकर और अपने बुलंद हौसले के साथ शोभा अब एक रोमांचक सफर पर निकल पड़ी है, जो कि बहुत ऊँची और उससे भी आगे की उड़ान है।
शोभा के इस सफ़र से, रोशनी (16 वर्ष) की तरह समुदाय की दूसरी लड़कियों को भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली है। रोशनी एक अच्छी छात्रा हैं जिनमें सीखने की सच्ची लगन है, परंतु इसके बावजूद उन्हें पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है। उसे घर के काम-काज संभालने के अलावा खेतों में, खासकर फसल कटाई के मौसम में अपनी माँ की मदद भी करनी पड़ती है, जो गुज़ारा करने के लिए अस्थाई तौर पर मज़दूरी करती हैं।
स्कूल जाने के लिए 30 मिनट की लंबी पैदल दूरी उनकी परेशानी को और बढ़ा देती है। मानसून के मौसम में सड़क पानी में डूब जाती है, जिसकी वजह से दसवीं कक्षा की यह छात्रा कई दिनों तक स्कूल नहीं जा पाती हैं।
दरअसल, स्कूल से काफी दिनों तक उनकी अनुपस्थिति ही जेजेबीवीके की टीम को रोशनी के दरवाजे तक ले आई। और इस तरह उनके बीच आपसी जुड़ाव की शुरुआत हुई, जिससे लड़की और उसकी माँ निर्मला देवी को भी काफी फायदा हुआ। रोशनी अब जेजेबीवीके की सुधारात्मक कक्षाओं में भाग लेती है, ताकि वह स्कूल में छूटी हुई पढ़ाई को पूरा कर सके। वह अपनी माँ के साथ ज्ञान-निर्माण सत्रों में भाग लेती हैं, जिससे शिक्षा, विवाह और अपने पैरों पर खड़े होने के बारे में उनके नज़रिये में काफी बदलाव आया है।
जब उनकी मां ने अपनी बेटी को समस्तीपुर में क्राई द्वारा स्थानीय तौर पर शुरू किए गए अभियान, 'पूरी पढ़ाई, देश की भलाई' में भाग लेने के लिए घर से निकलते देखा, तब उन्होंने कहा, "लड़कियों को अपनी शिक्षा जारी रखने और अपने रास्ते में आने वाले अवसरों का लाभ उठाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।" रोशनी कहती हैं, "यह अभियान लड़कियों को अपनी शिक्षा पूरी करने की जरूरत पर जोर देता है। जितने ज़्यादा लोग इस बात को समझेंगे, हम जैसी लड़कियों के लिए यह उतना ही बेहतर होगा।"
इस बारे में बात करते हुए जेजेबीवीके के सचिव, सुरेंद्र कुमार ने कहा: "हम समाज के कमज़ोर तबके की बालिकाओं को शिक्षा के जरिये आगे बढ़ाने और उनके लिए अवसर पैदा करने के अपने संकल्प पर कायम हैं। हमारा संगठन लड़कियों को शिक्षित करता है और उनकी शैक्षणिक प्रगति में बाधा डालने वाली चुनौतियों को दूर करने में उनकी मदद करता है।
यह अभियान किशोरियों को भविष्य के लिए सक्षम बनाने में शिक्षा की ताकत के बारे में जागरूकता फैलाने का एक अवसर है।" जेजेबीवीके एक स्थानीय गैर-लाभकारी संस्था है, जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से राज्य के कई जिलों में शिक्षा और बाल संरक्षण पर काम कर रही है।
यूडीआईएसई+ 21-22 के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में माध्यमिक विद्यालय के स्तर पर लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर लगभग 21 प्रतिशत है, जो 12.3 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से कहीं ज़्यादा है। परंतु, शोभा और रोशनी की कहानियों से इस सकारात्मक प्रवृत्ति का संकेत मिलता है कि अब ज़्यादा-से-ज़्यादा लड़कियां, यहां तक कि मुख्यधारा से अलग समुदायों की लड़कियां भी विपरीत परिस्थितियों और बाधाओं के बावजूद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ रही हैं।
लड़कियों की पढ़ाई पूरी होनी चाहिए, क्योंकि यही पीढ़ी-दर-पीढ़ी गरीबी के चक्र को तोड़ने के सबसे कारगर तरीकों में से एक है। यह देखकर खुशी होती है कि शोभा और रोशनी विपरीत परिस्थितियों से उबर रही हैं और अपने रास्ते में आने वाले अवसरों का लाभ उठा रही हैं।
हमने 'पूरी पढ़ाई, देश की भलाई' अभियान की शुरुआत की है, जो लड़कियों के लिए उज्जवल और अधिक समतापूर्ण भविष्य को आकार देने की दिशा में एक पहल है। इसके ज़रिये हम यही संदेश फैलाना चाहते हैं कि लड़कियों की शिक्षा सिर्फ़ बयानबाजी नहीं है, बल्कि यह हमारे देश की प्रगति और समृद्धि के लिए बेहद जरूरी भी है।