विकास

महात्मा गांधी की नैतिक-राजनैतिक विरासत

महात्मा गांधी का कथित 7 लाख से अधिक स्वशासी, स्वाधीन और स्वावलंबी गावों का परिसंघ (अर्थात भारत) आज शनैः शनैः अधिकार विहीन और अस्तित्व विहीन किया जा रहा है

Ramesh Sharma

स्वाधीन भारत में विगत 75 बरसों के दौरान अनेक योजनाओं का नामकरण महात्मा गांधी की स्मृति में किया गया और यह प्रक्रिया जारी रही। नाम चस्पां करने की होड़ मे महात्मा गांधी के विचार और भावना कहीं बहुत पीछे छूट गए।

आज लगता है महात्मा गांधी की विरासत का वारिस होने का दावा करने वाला समाज और सरकार – गलत रास्ते पर बहुत लंबी दूरी तक आगे बढ़ चुके हैं। एक ऐसे रास्ते पर जहां मील के गलत संकेतक भी उसे सही मार्ग में होने का गुमान देते हैं।

महात्मा गांधी के विचारों में ग्राम-स्वराज्य, स्वाधीन भारत के नियोजनों और प्रयोजनों का गुरुत्वकेंद्र होना था। महात्मा गांधी के विचारों और मूल्यों पर केन्द्रित “स्वाधीन भारत का संविधान” वास्तव में स्वाधीन भारत के भविष्य की वह विरासत थी जो महात्मा गांधी, तत्कालीन 7 लाख से अधिक गावों के करोड़ों ग्रामवासियों की ओर से समाज और सरकार के समक्ष रखना चाहते थे।

वर्ष 1945 में महात्मा गांधी के अनुयायी नारायण अग्रवाल ने स्वाधीन भारत के लिये उनके विचारों को एकसूत्र में पिरोया और फिर वर्ष 1946 में इसे प्रकाशित किया। देश ने इसे महात्मा गांधी के संविधान की तरह स्वीकार किया।

30 नवम्बर 1945 को इसकी प्रस्तावना लिखते हुये स्वयं महात्मा गांधी नें इस प्रस्तावित संविधान की सराहना करते हुए इसे भारतवासियों के विचारों और सपनों का वास्तविक प्रतिबिम्ब कहा।

22 अध्यायों के अंतर्गत लगभग 60 पृष्ठों में छपे इस संविधान में मार्गदर्शी सिद्धांतों, मूल अधिकारों और कर्तव्यों, राज्य और केंद्र के अधिकारों आदि जैसे महत्वपूर्ण विषयों पर बेबाक विचार रखे गये थे।

इस संविधान की मूल खासियत – पंचायती राज व्यवस्था को राज्य व्यवस्था का गुरुत्व केंद्र मानते हुये राजनैतिक और प्रशासनिक ढांचे को पंचायती व्यवस्था के अनुकूल बनाने को लेकर था।

महात्मा गांधी सहित उनके लाखों सहयात्रियों और करोड़ों ग्रामवासियों को यह उम्मीद थी कि भारत का संविधान लिखने के लिये वर्ष 1946 में गठित संविधान सभा निश्चित ही “स्वाधीन भारत के संविधान” को शब्द और भावना के साथ आत्मसात करेगी.
महात्मा गांधी जानते और मानते थे कि भारत की आत्मा तो गावों में बसती है. ग्राम स्वराज्य को वे ग्रामीण विकास का प्रथम पायदान मानते थे।

उनका कहना था कि पंचायती राज को केंद्र में रखकर ही प्रशासनिक और राजनैतिक तथा न्यायिक व्यवस्था बेहतर तरीके से कार्य कर सकती है। आज महात्मा गांधी के नाम पर संचालित लगभग 500 से अधिक सरकारी और गैर-सरकारी प्रतिष्ठान इसे सैद्धांतिक तौर पर पढ़ते-पढ़ाते हैं लेकिन व्यावहारिक तौर पर राज्य व्यवस्था नें उन सभी सिद्धांतों को लगभग खारिज ही किया है।

वैसे भी पराधीन भारत के एक औपनिवेशिक राज्य तंत्र में पंचायती राज व्यवस्था केवल सपना भर रहा। यही कारण है कि महात्मा गांधी सहित उनके लाखों सहयात्रियों का विश्वास था कि स्वाधीन भारत में राज्य व्यवस्था कम से कम अपने औपनिवेशिक चरित्र को तो त्याग देगी। न ऐसा हुआ और न ही ऐसा होना था। इसलिये नहीं कि तब भारत पराधीन था बल्कि इसलिये कि स्वाधीन होकर भी वह पराधीनता की मानसिकता से कभी बाहर नहीं आ पाया।

स्वाधीनता का संधिकाल और उसके बाद के बरस इसका सार्वजनिक प्रमाण है। वर्ष 1946 के अंत में जब भारत का संविधान लिखने की औपचारिक प्रक्रिया प्रारंभ हुई – तब कई सदस्यों द्वारा महात्मा गांधी के सुझाये संविधान के आधार पर पंचायती राज व्यवस्था को राजनैतिक-प्रशासनिक गुरुत्व देते हुये विकेन्द्रित प्रजातंत्र की वकालत की गयी।

लेकिन संविधान सभा के द्वारा प्रथम मसौदा तैयार होते-होते पंचायती राज व्यवस्था के विचार को खारिज कर दिया गया। बाद में सांकेतिक रूप से Article-40 के अंतर्गत पंचायती राजव्यवस्था को Non Justiciable Directive Principle of State Policy; Article-47 के अंतर्गत शराब बंदी; और Article-43 के अंतर्गत कुटीर उद्योग को स्थान दिया गया।

स्वाधीनता के 75 बरसों बाद इन संवैधानिक प्रावधानों और सु-उद्देश्यों को लगभग अप्रासंगिक बना देना स्वाधीन राज्य की नई व्यवस्था है जहाँ संवैधानिक नैतिकता, अर्थहीन घोषित की जा चुकी है।

स्वाधीनता के बाद के बरसों में महात्मा गांधी के अनेक सहयात्रियों नें पंचायती राज व्यवस्था को स्वाधीन भारत के संविधान में उचित स्थान न मिलनें पर अपना मतभेद जाहिर किया। एक ऐसा संविधान जिसमें गांव, गांवों के अधिकार और गावों की व्यवस्था को सम्मानजनक स्थान नहीं मिला – वो बाद के बरसों में करोड़ों ग्रामवासियों की बुलंद आवाज में बदल गयी।

फलस्वरूप वर्ष 1992 में 73 वें संविधान संशोधन के आधार पर त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक रूप से स्वीकार किया गया, लेकिन प्रश्न शेष हैं कि - क्या पंचायती राज व्यवस्था आने के 3 दशकों के बाद भी, आज व्यवस्था का विकेंद्रीकरण पूर्ण हुआ है?

क्या आज की राज्यव्यवस्था, पंचायतों के प्रस्तावों को प्रशासनिक रूप से वैध और विधिसम्मत मानती है? क्या अब तक पंचायतों के अधिकारों के दायरे में जल, जंगल और जमीन का स्वामित्व दिया गया है? क्या आज पंचायतें, आर्थिक रूप से अधिकार संपन्न और स्वशासी हैं?

और फिर यदि पंचायती राज व्यवस्था संवैधानिक रूप से सर्वोपरि है तो ग्राम और राज्य व्यवस्था के समस्त कानूनों और नीतियों को उसके अनुकूल बनाया गया है? क्या व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की केन्द्रीयकृत व्यवस्थायें वास्तव में पंचायती राज के विकेन्द्रित व्यवस्थाओं का वैधानिक और नैतिक सम्मान करती हैं?

क्या व्यावहारिक अर्थों में पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधि आर्थिक और राजनैतिक रूप से अधिकार संपन्न हैं? क्या पंचायती राज की यह व्यवस्था स्वशासन और स्वावलंबन के अपनें सैद्धांतिक अधिकारों का व्यावहारिक क्रियान्वयन करने हेतु अधिकारसम्पन्न है?

अनेक अनुत्तरित प्रश्नों का यह कारवां स्वाधीन भारत के 75 बरसों के इतिहास से कहीं भी कम महत्वपूर्ण नहीं है. वह इसलिये नहीं कि पंचायती राज व्यवस्था के प्रचलित-अप्रचलित ढांचे में अंततः राज्यों की संप्रभुता ही सर्वोपरि है – बल्कि इसलिये कि अधिकारों के लिये जारी इस अराजक खेल का प्रथम और अंतिम आखेट तो वह ग़रीब है जिसे अधिकार संपन्न बनाने के लिये ही यह सब रचा गया।

महात्मा गांधी के सात लाख – स्वाधीन, स्वावलंबी और स्वशासित गावों के परिसंघ अर्थात ‘भारत’ का अपना सपना, अब तलक यहीं कहीं हम सबके दिलो-दिमाग और व्यवस्थापिका – कार्यपालिका और न्यायपालिका के चौखटों में दफ़न है।

स्वाधीन भारत में ग्रामीण विकास मंत्रालय के गठन की राजनैतिक प्रतिबद्धता के दशकों बाद भी एक समग्र ‘ग्रामीण विकास नीति’ अर्थात ग्रामीण भारत के विकास का नीतिगत मसौदा न होना महज एक गंभीर चूक से कहीं अधिक पंचायती राज्य व्यवस्था के प्रति एक ऐसी राजनैतिक अवमानना है – जिसका प्रायश्चित केवल पंचायती राज मंत्रालय के गठन मात्र से नहीं हो सकता।

यही कारण है कि दशकों बाद भी ग्रामीण विकास मंत्रालय और/अथवा पंचायती राज मंत्रालय – पंचायती राज की मूल भावना को आत्मसात कर ही नहीं पाया।

महात्मा गांधी का कथित 7 लाख से अधिक स्वशासी, स्वाधीन और स्वावलंबी गावों का परिसंघ (अर्थात भारत) आज शनैः शनैः अधिकार विहीन और अस्तित्व विहीन किया जा रहा है। भारत के नक्शे से मिटा दिये जा रहे गावों का वजूद उसके अधिकार विहीन होने का प्रथम और अंतिम प्रमाण है।

भारत के गावों में बसने वाले करोड़ों भारतीय यह जानते और मानते हैं कि महात्मा गांधी की प्रासंगिकता – सात लाख गांवों के परिसंघ को स्वाधीनता, स्वावलंबन और स्वशासन के पैमानों पर अधिकार संपन्न बननें तक जिन्दा रहेंगी।

आइये महात्मा गांधी के विरासत के योग्य-अयोग्य वारिस हम सब, स्वाशासी और स्वावलंबी ग्रामीण भारत के निर्माण-पुनर्निर्माण के लिये, अपनें जिन्दा होनें और और जिन्दा होनें की सार्थकता साबित होनें की इस यात्रा में शामिल हो जायें।

(लेखक रमेश शर्मा – एकता परिषद के महासचिव हैं)