विकास

लाभार्थियों को नया वोट-बैंक बना रही मोदी सरकार

Richard Mahapatra

इस बार के उत्तर प्रदेश चुनावों के बाद मतदाताओं की एक नई जाति उभरी है, जिसे ‘लाभार्थी वर्ग’ कहा जा रहा है। यह वह वर्ग है, जिसे केंद्र और राज्य सरकार की कई योजनाओं का लाभ मिला है।

सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी का दावा है कि इन योजनाओं को बिना किसी भेदभाव के इस तरह से लागू किया गया है कि इनका फायदा पाने वाला वर्ग निश्चित तौर पर भाजपा को ही वोट देगा।

हालांकि यह तो 10 मार्च 2022 को आने वाले नतीजे ही बताएंगे कि लाभार्थी वर्ग किस तरह वोट दे रहा है। यह भाजपा के उस दावे का भी फैसला करेंगे, जिसके मुताबिक, कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने में उसकी सरकार कामयाब रही है।

ऐसे राज्यों में, जहां जाति और धर्म के ध्रुवीकरण के आधार पर चुनाव लड़े जाते हों, वहां कल्याणकारी योजनाओं का एक निर्णायक फैक्टर के तौर पर उभरना निश्चित रूप से अंधेरे में रोशनी की तरह है।
 
केंद्र सरकार की जिन प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं का लोगों को लाभ मिला है, उनमें पीएम आवास योजना, पीएम उज्जवला योजना, जन-धन खाता, पीएम किसान सम्मान निधि योजना, मुद्रा लोन, पीएम जीवन-सुरक्षा योजना आदि शामिल हैं।
 
इन्हें भाजपा शासित राज्यों में अन्य योजनाओं के साथ जोर-शोर से लागू किया जा रहा है। इन योजनाओं के अलावा सरकार द्वारा कोरोना महामारी के बाद से देश के लगभग 80 करोड़ लोगों को फ्री राशन भी दिया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश में लगभग 15 करोड़ वोटर हैं, माना जा रहा है कि इनमें से 13 करोड़ सरकार की किसी न किसी कल्याणकारी योजना के लाभार्थी हैं। अगर यह पूरा वर्ग मिलकर भाजपा को एकतरफा वोट देता है तो योगी आदित्यनाथ की सरकार, राज्य में ऐतिहासिक बहुमत के साथ सत्ता में दोबारा लौट सकती है। यहां तक कि अगर लाभार्थियों के बड़े वर्ग ने भी भाजपा को वोट दे दिया तो उसे आसानी से बहुमत मिल सकता है।

लाभार्थियों के वर्ग को अपने वफादार वोटरों के रूप में बदलना, भाजपा की खास रणनीति रही है। इसकी शुरूआत उसने पिछली बार उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में की थी, और बाद में इसे 2019 के आम चुनावों में भी अपनाया गया।
 
2017 के यूपी विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के लिए अन्य पहलुओं के अलावा पीएम उज्जवला योजना को भी श्रेय दिया गया।

इस रणनीति के तहत कल्याणकारी योजनाओं की जो थाली, लोगों के सामने पेश की गई है, उसमें से हर एक, आदमी की बुनियादी जरूरतों से जुड़ी है- एक सब्सिडी वाला घर, पानी के नल का कनेक्शन, गैस का कनेक्शन, सस्ता राशन, रोजगार की गारंटी, और किसानों के खाते में सीधे रुपये भेजना आदि।
 
अगर इन सारी कल्याणकारी योजनाओं के पैसे को मिलाकर, किसी परिवार को दिया जाए तो माना जा सकता है कि सरकार उस परिवार को करीब 3 लाख रुपये ट्रांसफर करती है।

पिछले आम चुनावों में भी इस वर्ग पर काफी चर्चा हुई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ऑफिस इन कल्याणकारी योजनाओं पर कड़ी नजर रखता है, जिनमें से हर एक में ‘प्रधानमंत्री’ अनिवार्य तौर पर जुड़ा हुआ है।

इससे, कल्याण करने के नजरिये में भी बदलाव दिखाई देता है। एक दशक पहले भारत में लोगों को मिलने वाले अधिकारों को वैधानिक जामा पहनाया जा रहा था- जैसे, सौ दिन काम पाने की गारंटी का अधिकार, शिक्षा को अधिकार बनाने वाला कानून, और यहां तक कि किसी की जमीन को सरकार द्वारा ले लेने पर उसका मुआवजा पाने का अधिकार।
 
यह नजरिया देश की पूरी आबादी को किसी न किसी अधिकार से लैस करने का था। बेशक इनमें से तमाम लोग ऐसे भी थे, जिन्हें सौ दिन काम पाने जैसे अधिकार समेत कई दूसरे अधिकार हासिल थे।

दूसरी ओर मोदी सरकार की सोच ने लोगों को अधिकार रखने वाले नागरिक की बजाय लाभार्थी बना दिया है। लाभार्थी, जाहिर तौर पर एक कृतज्ञ व्यक्ति होता है, जिसकी बुनियादी सुविधाओं को ख्याल रखकर सरकार उसे ‘फ्री में पाने वाले’ नागरिक में बदल देती है।
 
यही मोदी के विकास का मॉडल है, जिसका सीधा संबंध चुनाव जीतने से है। ऊपर बताई गई तमाम योजनाओं में से किसी न किसी का लाभ लोगों को मिला है, जिसके लिए उन्हें सरकार के प्रति अपनी वफादारी भी दिखानी है। इन योजनाओं के जरिए सरकार हर वोटर से सीधा संपर्क भी रखती है।

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, कल्याण करने के इस दृष्टिकोण की चैंपियन थीं। उन्होंने गरीबी हटाओं का नारा दिया और उसके साथ ही केंद्र सरकार के फंड से कई कल्याणकारी योजनाएं भी चलाईं। उन्होंने भी ऐसी हर योजना को लोगों की निजी जरूरतों से जोड़ा था।
 
इसका परिणाम यह हुआ कि एक समय में भारत में एक हजार से ज्यादा केंद्र प्रायोजित योजनाएं थीं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं का उपयोग करके जनता के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध का नया जीवन दिया।

मोदी भी इसी रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने कल्याणकारी योजनाओं के साथ विकास का तड़का भी लगा दिया है। सारी कल्याणकारी योजनाओं के साथ ‘प्रधानमंत्री’ जोड़कर वह लोगों से सीधे रिश्ता तो जोड़ रहे हैं लेकिन इससे वह लोगों को लोकतंत्र में नागरिक की बजाय सरकार के प्रति वफादार बनाने का काम भी कर रहे हैं।