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कोरोना की दूसरी लहर और मनरेगा-3: बिहार में मजदूरों को मांग के मुताबिक नहीं मिल रहा काम

दूसरे राज्यों को सस्ता मजदूर मुहैया कराने वाले शीर्ष राज्यों में शुमार बिहार में मजदूरों की मांग के मुताबिक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम नहीं दिया जा रहा है

DTE Staff

उमेश कुमारा राय/ रितेश रंजन

कोविड-19 महामारी के पहले दौर में महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) ने ग्रामीणों को बहुत सहारा दिया। सरकार ने भी खुल कर खर्च किया। लेकिन कोविड-19 की दूसरी लहर में मनरेगा ग्रामीणों के लिए कितनी फायदेमंद रही, यह जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने देश के पांच सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्यों में मनरेगा की जमीनी वस्तुस्थिति की विस्तृत पड़ताल की है। इस कड़ी की पहली रिपोर्ट में आपने पढ़ा, सरकार ने नियमों में किया बदलाव और दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, मध्य प्रदेश में मनरेगा का हाल। आज पढ़ेुं, तीसरी कड़ी-

दूसरे राज्यों को सस्ता मजदूर मुहैया कराने वाले शीर्ष राज्यों में शुमार बिहार में मजदूरों की मांग के मुताबिक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम नहीं दिया जा रहा है।

हाल में जारी की गई नीति आयोग की रिपोर्ट ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल-3’ में बताया गया है कि पिछले साल जब देशभर में कोरोनावायरस का कहर था, तो मजदूरों ने मनरेगा के तहत जितना काम मांगा था, उसके मुकाबले 78.60 प्रतिशत काम ही मुहैया कराया जा सका था।

हालांकि, साल 2019 की तुलना में पिछले साल ज्यादा काम दिया गया था। साल 2019 में बिहार में मनरेगा के तहत काम की जितनी मांग की गई थी, उसके मुकाबले 77.25 प्रतिशत काम ही दिया गया था।

बिहार सरकार पर ये आरोप अक्सर लगता रहता है कि मनरेगा के तहत काम मुहैया कराने को लेकर वह गंभीर नहीं है, जिस कारण मजदूरों को मजबूर होकर पलायन करना पड़ता है।

मुजफ्फरपुर के रहने वाले बटेसर साहनी (47) भी उन मजदूरों में शामिल हैं, जिनके पास मनरेगा का जॉब कार्ड तो है, लेकिन उन्हें मनरेगा के तहत कोई काम नहीं मिलता है। मजबूरी में उन्हें मौसमी मजदूरी करने के लिए कश्मीर जाना पड़ता है। उन्होंने कहा, “पिछले साल जब कोरोना आया था, तब मुझे कोई काम नहीं मिला था और इस साल भी अब तक कोई काम नहीं मिला है।”

बटेसर साहनी हर साल मई में कश्मीर जाते हैं। वहां वे सेब की पैकिंग करते हैं। मई और जून ये दो महीने वे कश्मीर में बिताते हैं और फिर अपने गांव आ जाते हैं। गांव में किसी कंस्ट्रक्शन साइट या खेतों में मजदूरी करते हैं। लेकिन पिछले साल और इस साल वह कश्मीर नहीं जा सके।

उन्होंने कहा, “पिछले साल भी लॉकडाउन लग गया था और इस साल भी मई के शुरू में लॉकडाउन लग गया, इसलिए इस बार वहां नहीं जा सका हूं। पिछले महीने मेरे ही गांव में मनरेगा का कुछ काम हुआ था, लेकिन मुझे काम नहीं मिला। ठेकेदार ने बाहर के मजदूरों से काम करा लिया।”

मुजफ्फरपुर के ही एक अन्य मनरेगा मजदूर ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि उनके पास भी मनरेगा कार्ड है, लेकिन उनसे काम नहीं कराया जाता है बल्कि मशीनों से काम करा कर मेरे अकाउंट में रुपए डलवा लिया जाता है और फिर पैसा निकाल लिया जा रहा है। उक्त मजदूर ने आगे कहा कि मनरेगा का काम नहीं मिलने के कारण ही वह छह महीने से दूसरे राज्य में काम कर रहे हैं।

 मनरेगा के डैशबोर्ड के मुताबिक, बिहार में कुल 206.56 लाख मनरेगा जॉब कार्ड है, लेकिन इनमें से केवल 72.38 लाख जॉब कार्ड ही सक्रिय हैं। जानकारों का मानना है कि मांग के मुताबिक, काम नहीं मिलने के कारण ही ज्यादातर मनरेगा कार्डधारी मजदूर पलायन कर जाते हैं। 

वित्तवर्ष 2021-2022 के लिए केंद्र सरकार ने बिहार के लिए मनरेगा के तहत 20 करोड़ मानव दिवस कार्य के लिए बजट आवंटित किया है। इस बजट का 22.64 प्रतिशत हिस्सा अभी तक खर्च हो चुका है। आंकड़ों के मुताबिक, वित्त वर्ष 2020-2021 में बिहार को जितना आवंटन मिला था, बिहार सरकार ने उससे डेढ़ प्रतिशत ज्यादा खर्च किया था। एक अधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि चूंकि लॉकडाउन के कारण बड़ी संख्या में मजदूर बिहार लौटे थे और रोजगार के अन्य साधन बंद थे, तो ज्यादातर मजदूरों को मनरेगा के तहत काम दिया गया था।

इस साल भी राज्य सरकार मनरेगा का ज्यादा से ज्यादा काम प्रवासी मजदूरों को देने की योजना बना रही है। मनरेगा के कमिश्नर सीपी खंदुजा ने कहा है कि जिलास्तरीय अधिकारों को आदेश दिया गया है कि प्रवासी मजदूरों को मनरेगा के तहत काम दिया जाये।

वहीं  दूसरी ओर बेगूसराय जिले के बरौनी गांव के शोकहारा पंचायत निवासी नसीम का कहना है कि वह दिल्ली में मजदूरी का काम करते थे। 1 महीने में वह 8 से 10 हजार रुपए कमा लेते थे। लेकिन दिल्ली में जब लॉकडाउन लगा तो वह अपने घर वापस आ गए। यहां उनके पास रोजगार का कोई साधन नहीं है, जो जमा पूंजी थी उसी में किसी तरह गुजारा चल रहा है। अब बस इंतजार इस बात का है कि कब स्थिति सुधरेगी और फिर से वह काम पर वापस जा सकेंगे। पेंटिंग का काम करने वाले ब्रिज मोहन शर्मा वहां रोज 400 से 500 रुपए कमा लेते थे। लेकिन दिल्ली में लॉक डाउन होने के बाद वह वापस अपने घर चले आए यहां उनके पास कमाई का कोई साधन नहीं है। कर्ज लेकर अपना घर चला रहे हैं। नसीम और बृजमोहन शर्मा जैसे यहां कई लोग हैं,  जो बाहर के प्रदेश में काम करते थे और महामारी बढ़ने की वजह से अपने घर वापस आ गए। जिनके पास अपनी जमा पूंजी थी वह उसे अपना काम चला रहे हैं और जिनके पास जमा पूंजी नहीं है वह कर्ज लेकर गुजारा कर रहे हैं। 

बरोनी के तेघरा प्रखंड के जिला परिषद मोहम्मद सिकंदर अली का कहना है कि परिषद में पंचायत आती हैं। उनका घर शोकहारा एक पंचायत में पड़ता है। उनके पंचायत में करीबन 200 ऐसे लोग हैं जो कि बिहार में लॉकडाउन लगने से पहले घर वापस आ गए थे। इन लोगों को मनरेगा के तहत कोई भी काम नहीं मिला है। हालांकि कुछ ऐसे लोग हैं जो कि फसल की कटाई, पटवन, भवन निर्माण आदि कार्य में लगकर कुछ पैसा कमा लेते थे लेकिन जब से लॉकडाउन लगा है तब से यह भी संभव नहीं है। कुछ लोग तो अपना जेवर, जमीन और घर गिरवी रख कर के दो वक्त की रोटी खा रहे हैं। 

घरा प्रखंड के बीडीओ संदीप कुमार पांडे का कहना है कि बरौनी जंक्शन से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक करीब 2371 इस बार लॉकडाउन से पहले घर वापस आ गए। इनमें से 23 ऐसे लोग हैं जिन्हें मनरेगा के तहत काम किया गया है। पिछली बार लॉकडाउन के समय यह संख्या ज्यादा थी लेकिन इस बार काम नहीं होने और सख्त लॉकडाउन लगने के कारण काफी लोगों को रोजगार मुहैया नहीं कराया जा सका है।