विकास

मनरेगा जरूरी या मजबूरी-2: योजना में विसंगतियां भी कम नहीं

Sachin Kumar Jain

2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । पढ़ें, दूसरी कड़ी-

मनरेगा एक असामान्य कार्यक्रम इसलिए है, क्योंकि जिस काल में रोजगार और अधोसंरचना विकास के काम का बेतरतीब निजीकरण किया जा रहा था, उस काल में सामाजिक आन्दोलनों और जनपक्षीय राजनीति के दबाव के कारण भारत सरकार ने सभी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन के काम का वैधानिक अधिकार दिया।

2005 में बनी यह योजना एक कानून के तहत संचालित होती है। सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर और असमानता बढ़ाने वाली आर्थिक नीतियों के पैरोकार हमेशा से रोजगार के कानूनी अधिकार के खिलाफ रहे हैं। यह कानून कहता है कि हितग्राही के काम मांगने पर 15 दिनों के भीतर रोजगार दिया जाएगा। नहीं दिया तो सोलहवें दिन से बेरोजगारी भत्ता पाने का कानूनी अधिकार होगा।

मनरेगा भारत के पर्यावरण को बेहतर करने के लिए भी एक बेहद महत्वपूर्ण कार्यक्रम रहा है और पानी के विकराल होते संकट के असर को कम करने में भी इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। 7 से 15 दिन की अवधि में मजदूरी का भुगतान किया जाएगा। देरी हुई, तो देरी के लिए भी मुआवजा दिया जाएगा। ग्राम सभा और पंचायत खुद तय करेंगी कि कौन से काम किये जाने हैं? उनसे क्या लाभ होगा? वे ही कामों का सोशल ऑडिट करने के लिए अधिकृत भी हैं। अब सवाल यह है कि क्या हम सरकारों से यह उम्मीद कर सकते हैं कि अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी को खुशहाल बनाने में मनरेगा की भूमिका को ईमानदारी से स्वीकार करेंगी और इसका संरक्षण भी करेंगी।

सक्रिय जॉबकार्ड और श्रमिक

मनरेगा में फिलहाल 13.87 करोड़ जॉबकार्ड हैं। भारत के 55 प्रतिशत परिवार जॉबकार्ड धारी हैं। उत्तरप्रदेश में 1.85 करोड़, बिहार में 1.86 करोड़, पश्चिम बंगाल में 1.27 करोड़, गुजरात में 40.95 लाख, राजस्थान में 1.08 करोड़ और मध्यप्रदेश में 71.33 लाख परिवारों के पास जॉबकार्ड हैं। इनमें से 7.81 करोड़ (56 प्रतिशत) जॉबकार्ड धारी पिछले तीन सालों में योजना में श्रम करते रहे हैं।

बिहार से सबसे ज्यादा पलायन होता है, वहां 1.86 करोड़ जॉबकार्ड धारी परिवारों में से केवल 54.12 लाख (29.1 प्रतिशत) ही सक्रिय हैं। छत्तीसगढ़ में 41.16 लाख जॉबकार्ड में से 33.41 (81.2 प्रतिशत), मध्यप्रदेश में 71.33 लाख में से 52.58 लाख (73.7प्रतिशत), पश्चिम बंगाल में 83.48 लाख (65.6 प्रतिशत) और राजस्थान में 69.88 लाख (64.6 प्रतिशत) जॉबकार्ड सक्रिय हैं।

मई 2020 की स्थिति में 13.87 करोड़ जॉबकार्ड पर 27 करोड़ श्रमिक दर्ज हैं। इनमें से लगभग 12 करोड़ (कुल श्रमिकों का 44.3 प्रतिशत) ने पिछले तीन सालों में मनरेगा में श्रम किया है। बिहार में मनरेगा में दर्ज 2.61 करोड़ श्रमिकों में से केवल 63.23 लाख (24.2 प्रतिशत) श्रमिक ही सक्रिय हैं। जबकि छत्तीसगढ़ में 94.61 लाख में से 67.55 लाख (71.4 प्रतिशत), मध्यप्रदेश में 1.62 करोड़ में से 95 लाख (58.8 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल में 2.86 करोड़ में से 1.39 करोड़ (48.7 प्रतिशत) श्रमिक ही सक्रिय रहे हैं।

मनरेगा में विसंगतियां

मनरेगा के कुछ प्रावधानों में और बहुत सारी इनके क्रियान्वयन में विसंगतियां हैं। पिछले 20 वर्षों की स्थिति यह रही है कि इन परिवारों को 300 दिन में से अन्य स्रोतों से 75 से 100 दिन का ही रोजगार हासिल हो पाता है, ऐसी अवस्था में उन्हें 200 दिन के रोजगार की जरूरत रही है, लेकिन मनरेगा भी केवल 100 दिन का रोजगार देने के प्रावधान के कारण पूरा विश्वास स्थापित नहीं कर पाया।

दूसरी बड़ी विसंगति मनरेगा की मजदूरी भारत की न्यूनतम मजदूरी की दर से वर्ष 2019-20 तक लगभग 18 से 20 प्रतिशत कम रही है। तीसरी बात मजदूरों को 6 से 12 महीनों की देरी से मजदूरी का भुगतान होना है। भ्रष्टाचार, सोशल आडिट न होना, मशीनों से काम कराया जाना भी कारक रहे हैं।

न्यूनतम से भी न्यूनतम मजदूरी

अध्ययन से पता चलता है कि मनरेगा में मजदूरों को तय मजदूरी से भी कम का भुगतान होता है। वर्ष 2020-21 की केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक गुजरात में मजदूरों को 188 रुपए के हिसाब से ही भुगतान हुआ है, जबकि वहां मनरेगा में मजदूरी की दर 224 रुपए प्रतिदिन है, राजस्थान में 220 के स्थान पर औसतन 167, मध्यप्रदेश में 190 रुपए के स्थान पर 180, पश्चिम बंगाल में 204 के स्थान पर 193, छत्तीसगढ़ में 190 प्रतिदिन के स्थान पर 174 रुपए की मजदूरी का भुगतान हुआ है। मजदूरी के कम मूल्यांकन के कारण भी लाखों मजदूरों ने किनारा किया है।

100 दिन के रोजगार का सच क्या है? कोविड-19 के कारण लगभग 1.5 से 2.0 करोड़ मजदूरों के गांव वापस लौटने का अनुमान है। बिहार का नागरिक किन हालातों में मुंबई या बंगलुरु पलायन करता होगा? क्या वास्तव में वहां ज्यादा मजदूरी मिलती है? ऐसा तो नहीं है। बंगलुरु में भी औसतन 350 से 400 रुपये की मजदूरी मिलती है, जो बिहार के औसत से ज्यादा है, किन्तु जब पलायन पर रहने के खर्चों के आधार पर गणित लगाते हैं, तो पता चलता है कि वास्तव में उन्हें बिहार की दर से 15 से 20 प्रतिशत मजदूरी ही ज्यादा मिलती है। तब सवाल यह है कि मजदूर पलायन क्यों करता है? शोषण, लगातार रोजगार नहीं मिलने और नए विकास की चमक को अपनी आंखों में उतार लेने की अपेक्षा के कारण! सच तो यह भी है कि सरकारों ने मनरेगा के लिए बजट जरूर आवंटित किया है, किन्तु इस पर विश्वास नहीं किया।

शेष जल्द -