2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, योजना में विसंगतियां भी कम नहीं । पढ़ें , तीसरी कड़ी-
मनरेगा कभी भी ग्रामीण परिवारों को 100 दिन का रोजगार देने के करीब नहीं पहुंच पाया। वर्ष 2016-17 से वर्ष 2019-20 के केंद्रीय ग्रामीण मंत्रालय के अध्ययन से पता चला कि इस अवधि में औसतन 7.81 करोड़ सक्रिय जाब कार्डधारी परिवारों में से केवल 40.7 लाख (5.2 प्रतिशत) को ही 100 दिन का रोजगार मिला।
बिहार में 54.12 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड में से केवल 20 हज़ार (0.3 प्रतिशत) परिवारों ने, उत्तरप्रदेश में 85.72 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड्स में से औसतन 70 हजार (0.8 प्रतिशत) परिवारों ने, मध्यप्रदेश में 52.58 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से केवल 1.1 लाख (2.1 प्रतिशत) परिवारों ने, छत्तीसगढ़ में 33.41 लाख जाॅबकार्ड धारी परिवारों में से 2.9 लाख (8.8 प्रतिशत), कर्नाटक में 33.39 लाख सक्रिय जाॅबकार्ड धारियों में से 1.6 लाख (4.7 प्रतिशत) पश्चिम बंगाल में 83.48 लाख कार्ड धारियों में से 6.1 लाख (7.4 प्रतिशत) और राजस्थान में 69.88 लाख जाॅबकार्ड धारियों में से 5.2 लाख (7.5 प्रतिशत) परिवारों ने ही यह लक्ष्य हासिल किया।
मनरेगा में हर पंचायत की वार्षिक और पंचवर्षीय कार्ययोजना बनाने का प्रावधान है, लेकिन क्रियान्वयन में सही ढंग से नियोजन न होना, एक बड़ी चुनौती रही है। चार साल की रिपोर्ट्स बताती हैं कि मनरेगा में हर साल औसतन 184.1 लाख काम या तो नए शुरू होते हैं या फिर पहले से चले आ रहे होते हैं। हर साल औसतन 39.4 प्रतिशत काम ही पूरे हो रहे हैं, बाकी अगले साल की कार्ययोजना में जुड़ जाते हैं। सबसे खराब स्थिति बिहार की है। वहां औसतन 12.4 लाख काम खोले गए, जिनमें से औसतन 2.1 लाख (16.1 प्रतिशत) ही पूरे किये गए। छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में 40 प्रतिशत से ज्यादा काम पूरे हुए।
सब्सिडी नहीं, श्रम का पारिश्रमिक
वर्ष 2019-20 के बजट पर चर्चा करते हुए भारत के ग्रामीण विकास मंत्री ने कहा था कि हमारी सरकार मनरेगा को हमेशा नहीं चलाये रखना चाहती है। यह योजना गरीबों की मदद के लिए है और हम गरीबी मिटा देंगे ताकि यह योजना बंद की जा सके। इस वक्तव्य से यह स्पष्ट दिखता है कि भारत सरकार यह जानती ही नहीं है कि इस योजना से केवल मजदूरों को काम नहीं मिलता है, इससे ऐसी परिसंपत्तियों का निर्माण भी होता है, जिनसे गांवों की बदहाली पर रोक लग रही है। इनसे पानी-पेड़ों-खेतों-पशुपालन-आवागमन का ढांचा भी तैयार हुआ है।
आलोचना के बावजूद उसी साल ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 60 हजार करोड़ रुपये का आवंटन भी किया। कहा था कि इस राशि से 1.52 लाख सूक्ष्म सिंचाई इकाइयां बनाई जाएंगी। वनीकरण के 32 हजार काम किये जाएंगे। इस राशि से कुल मिलाकर 58.21 लाख परिसंपत्तियां बनाने या उनकी मरम्मत का काम किया जाएगा। कभी सोचियेगा कि मनरेगा का भारत को बदहाली से बचाने में क्या योगदान है? इसी कार्यक्रम ने शहरी भारत और ग्रामीण भारत के बीच असमानता की खाई को असीमित होने से और गांवों को फिर से जीवन देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
यह बहुत ही सामान्य सा विषय रहा है कि छोटे किसानों और गांवों को आर्थिक विकास का लाभ दिलाने के लिए उनके संसाधनों को ज्यादा उत्पादक बनाना होगा। यही कारण है कि मनरेगा में खेत तालाब, मेढ़ बंधान, निजी प्रांगण या जमीन पर कुएं खोदना और अब पोषण वाटिका लगाने जैसे काम भी इसमें शामिल हैं। वर्ष 2020-21 के शुरूआती 2 महीनों में ही इस तरह के 1.37 करोड़ व्यक्तिगत कामों को मनरेगा में शामिल करके, उन पर काम चालू किया गया।
भारत के सुरक्षित और संपन्न तबकों को इतना तो अहसास होना ही चाहिए कि जिस देश को वे इतना प्रेम करते हैं, वहां गांव और गांव के मजदूरों के जीवन में भी सकारात्मक बदलाव आए। जो लोग यह मानते हैं कि मनरेगा के लिए किया जाने वाला खर्च मध्यमवर्गीय परिवारों पर बोझ बनता है, तो उन्हें केवल एक जानकारी ग्रहण कर लेना चाहिए। जब वर्ष 2020-21 के लिए भारत सरकार ने मनरेगा के लिए 61,500 करोड़ रुपये का बजट आवंटित किया, तो वह किसी दान या मुफ्त वितरण के लिए आवंटन नहीं था। इस राशि से 5.5 करोड़ परिवार (और 7.8 करोड़ मजदूर) मेहनत करके भारत को ठोस विकास अवस्था में ले जाते हैं। इससे उत्पादन बढ़ता और भारत की खाद्य असुरक्षा और गरीबी में कमी आती और महंगाई दर नियंत्रण में रहती।
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