विकास

मनरेगा जरूरी या मजबूरी-10: बड़े उद्योगों की बजाय यहां दिया जाए पैसा

कोविड-19 वैश्विक महामारी के इस समय में ग्रामीण भारत के लिए मनरेगा कितनी कारगर साबित हो रही है। पड़ताल करती एक बड़ी रिपोर्ट-

DTE Staff

2005 में शुरू हुई महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना एक बार फिर चर्चा में है। लगभग हर राज्य में मनरेगा के प्रति ग्रामीणों के साथ-साथ सरकारों का रूझान बढ़ा है। लेकिन क्या यह साबित करता है कि मनरेगा ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी है या अभी इसमें काफी खामियां हैं। डाउन टू अर्थ ने इसकी व्यापक पड़ताल की है, जिसे एक सीरीज के तौर पर प्रकाशित किया जा रहा है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा, 85 फीसदी बढ़ गई काम की मांग । दूसरी कड़ी में आपने पढ़ा, योजना में विसंगतियां भी कम नहीं । तीसरी कड़ी में आपने पढ़ा, - 100 दिन के रोजगार का सच । चौथी कड़ी में आपने पढ़ा, 250 करोड़ मानव दिवस रोजगार हो रहा है पैदा, जबकि अगली कड़ी में आपने पढ़ा, 3.50 लाख करोड़ रुपए की आवश्यकता पड़ेगी । इसके बाद आपने शंकर सिंह और निखिल डे का लेख पढ़ा। इसके बाद आपने अमित बसोले व रक्षिता स्वामी का लेख पढ़ा। अगली कड़ी में आपने करुणा वाकती अकेला का लेख पढ़ा। आपने आमोद खन्ना का आलेख पढ़ा, आज पढ़ें, उरमुल के निदेशक अरविंद ओझा का आलेख -

राजस्थान में अकाल निरन्तर पड़ते ही रहे हैं। मुझे साल 2000 का अकाल ध्यान आ रहा है। जब राज्य में न्यूनतम 100 दिनों के रोजगार की मांग की गई थी। उस समय के ग्रामीण विकास मंत्री ने इसे सुनते ही खारिज कर दिया था। तब से शुरू हुई लड़ाई आखिर राष्ट्रीय न्यूनतम रोजगार गारंटी एक्ट प्राप्त कर के ही जीती गई थी।

वर्तमान में रेगिस्तान के दूरदराज के क्षेत्रों में लौटकर आए श्रमिकों से बात करने का मौका मुझे मिला। पोखरण के रहने वाले चाचा रहमान खान ने बताया कि वह पिछले 6 साल से पूना में थे और फर्नीचर का काम करके अच्छा कमा लेते थे। कुछ पैसा घर भी भेज देते थे, किन्तु कोरोना के कारण जब वहां काम नहीं रह गया तो वह परिवार सहित वापस गांव आ गए। इसमें परेशानी भी हुई और बचत किया हुआ सारा पैसा भी खर्च हो गया। गांव आकर खाने को राशन का गेहूं और दाल मिल गई पर दूसरे खर्च पर और भी तो खर्चे होते हैं। कहां से लाएं, कर्ज भी कोई अब देता नहीं। मनरेगा में अब जाॅबकार्ड बनवाया है। एक हफ्ते काम का भुगतान मिल गया है। यही अब तो आसरा है। फर्नीचर के कुशल कारीगर के लिए तो अब मनरेगा ही बड़ा सहारा है।

फातमा के आठ लोगों का परिवार भी पूना से लौटा है। अब जाॅबकार्ड बनवा कर नाड़ी पर मजदूरी कर रही है। चेतनराम, हरिदास बताते हैं कि अब खाली बैठे तो पेट नहीं भरेगा। बरसात होने तक तो मनरेगा से ही गुजारा करना होगा। मनरेगा में 10 दिन का भुगतान मिल गया है। अपने खेत का काम मिल जाए तो सबसे अच्छा होगा। बरसात आने पर खेती कर सकेंगे। राजस्थान के हर क्षेत्र में ऐसे हजारों कुशल श्रमिक मिल जाएंगे जो अपने अच्छे हालातों से अब गुजारा चलाने के लिए मनरेगा पर निर्भर है।

कोविड के इस संकट काल में राजस्थान सरकार ने भी मनरेगा को व्यवस्थित करने पर पूरा जोर दिया है। यह भी सरकार का सही निर्णय रहा कि नए रोजगार कार्ड बनवाने के आदेश दिये। पूरे देश के आंकड़ों में राजस्थान सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार देकर देश में सबसे आगे है। राजस्थान में मनरेगा के आयुक्त पी.सी.किशन ने राज्य में प्रगति के ग्राफ को ऊपर पहुंचाया है। राजस्थान के कुछ जिलों को छोड़कर अधिकांश जिले ज्यादा से ज्यादा कार्य मनरेगा के तहत करवा रहे हैं।

राजस्थान सरकार द्वारा भारत सरकार से इस कोविड काल में रोजगार के 100 दिनों को बढ़ाकर 200 दिन करने की मांग निरन्तर की जा रही है। यहां यह उल्लेख करना गलत भी नहीं होगा कि भारत सरकार ने मनरेगा के महत्व को बहुुत देर बाद ही सही, स्वीकार तो किया। मनरेगा पर बजट को भी बढाने की घोषणा की गई। मनरेगा के लिए राजस्थान सरकार की इच्छा की पुष्टि, पिछले कुछ महीनों के आंकड़े भी करते हैं। 23 मार्च को कोविड-19 के लाॅकडाउन कारण 2020-2021 में मनरेगा कार्यों पर श्रमिकों का नियोजन 16 अप्रैल 2020 को मात्र 1,21,854 था जबकि राज्य का स्वीकृति श्रम बजट 3000 लाख मानव दिवस है। 

राज्य की आर्थिक गतिविधियों को शुरू करना राज्य की पहली जरूरत थी। इसी क्रम में मनरेगा को प्राथमिकता पर लिया गया, क्योंकि यह सीधे लौट कर आए श्रमिकों को रोजगार से जोड सकती थी। राज्य सरकार ने लगातार जोर देकर कई वीडियो कान्फ्रेंस के माध्मय से जिलों से बात का नतीजा यह रहा कि श्रमिकों की संख्या दिनांक 24 अप्रेल 2020 को 8.30 लाख बढना शुरू हुई जो 30 अप्रेल 2020 को 10.92 लाख, 01 जून 2020 को 41.58 लाख और 10 जून 2020 को 52.51 लाख श्रमिकों तक पहुंच गई।

यह भी महत्वपूर्ण है कि 2019-2020 में औसतन मजदूरी दर 145/-रूपये प्रतिदिन थी। 2020-2021 में यह 163/-रूपये प्रतिदिन है। इस वर्ष के लिए सरकारी मजदूरी का दावा 220/-रूपये प्रतिदिन प्रति श्रमिक है। मनरेगा को और अधिक सक्षम बनाने के लिए कुछ झुभाव: 

- प्रत्येक श्रमिक को कम से कम 20/-रूपये प्रतिदिन का औजार भत्ता दिया जाना चाहिए। आन्ध्रप्रदेश, तेंलगाना और कर्नाटक पहले से दे रहे है।

- दिव्यांगजनों के लिए 150 कार्य दिवस कम से कम किये जा सकते है।
- चारागाह विकास, पोषण वाटिका एवं पशु छपरों जैसे कार्य प्राथमिकता पर हों।
- नाली तालाबों की खुदाई जहां बहुत हो चुकी है वहां अपना खेत अपना काम के तहत ज्यादा से ज्यादा कार्य श्रमिकों को अपने खेतो के लिए दिये जाने से ज्यादा लाभ होगा। अच्छी खेती से उत्पादन भी अच्छा आने की सम्भावनाएं बढ जाती है।

अभी जब बहुत बडी संख्या में कुशल कारीगर लौट कर अपने अपने क्षेत्रों में आए है तो बहुत उचित समय है कि उनकी क्षमता के अनुरूप कार्यो को भी सूचि में शामिल कर कुछ अच्छी शुरूआत की जा सकती है। अकाल के संकटों से उपजी मनरेगा ने कोविड के वैश्विक संकट में सिद्व कर दिया कि कैसे जरूरतमंदों को रोजगार मिलना लोगों को पलायन की बड़ी पीड़ा से बचाती है।

महात्मा गांधी का नाम इसमें जोड़ा गया, जो सही मायनों में उनके ग्रामस्वराज और स्वावलम्बन के सिद्वान्त को स्थापित करता है। ऐसे में ग्राम स्वावलम्बन और पंचायती राज को सक्षम बनाते हुए लोकतंत्र में आस्था को सुदृढ करने में महत्वपूर्ण योगदान मनरेगा कर सकती है। देश के दूसरे राज्यों विशेषकर बिहार, झारखण्ड, छतीसगढ़, पश्चिम बंगाल एवं मध्यप्रदेश जहां के गरीब लोग लौटकर आए हैं, उन्हें इस विकट स्थिति में अपने गांवों में स्थापित करने में थेडी मदद इससे मिल सकेगी।

भारत सरकार को चाहिए कि बड़े उद्योगों को बड़े वित्तीय पैकेज देने की बजाय मनरेगा पर और बडे़ वित्तीय प्रावधानों पर विचार करे। मनरेगा देश भर में बडी संख्या में लोगो को रोजगार देने में सक्षम हो पायेगी। साथ ही आत्मनिर्भरता और लोकल को वोकल करने का नारा भी साकार हो पायेगा।